जम्मू और कश्मीर को किसी भी तौर पर राजनीति के दांव- पेंचों की प्रयोगशाला नहीं बनाया जा सकता है। इसलिए नहीं कि यह समूचा राज्य भारतीय संघ का अटूट हिस्सा है बल्कि इसलिए भी कि इस राज्य में रहने वाले सभी नागरिक भारतीय हैं। इस राज्य का संवैधानिक दर्जा विशेष हो सकता है मगर इसमें रहने वाले इंसानों का दर्द इंसानियत के दायरे से बाहर नहीं हो सकता। हम इस राज्य की समस्या को चाहे जिस भी तरीके से हल करना चाहें मगर उसका घेरा इंसानी जज्बे से बाहर नहीं हो सकता और जब हम इस नजरिये से सोचते हैं तो पाते हैं कि इस सूबे मंे पाकिस्तान की शह पर काम करने वाले हैवानों ने वह चंगेजी रुख अख्तियार किया हुआ है जिसके आगे इंसानियत शर्मसार हो जाती है। जिस तरह पिछले तीन-चार सालों से राज्य के पुलिस कर्मियों को दहशतगर्दों ने अपने निशाने पर रखा हुआ है उससे यही साबित होता है कि हैवानियत के ये पैरोकार न तो राज्य की लोकतान्त्रिक प्रणाली से चुनी हुई सरकार को काम करने देना चाहते हैं और न ही संविधान का शासन स्थापित होने देना चाहते हैं।
उनकी नीयत उन भोले-भाले नागरिकों में दहशत भरने की है जो अमन पसन्दगी के साथ अपनी जिन्दगी गुजारना चाहते हैं। हकीकत यह है कि कश्मीरी जनता शुरू से ही अमन पसन्द रही है और उसने अपने लोकतान्त्रिक अधिकारों के लिए महाराजा के शासन के समय से ही अहिंसक व शान्तिपूर्ण आन्दोलन का रास्ता अपनाया है। मगर 1990 के बाद से जिस तरह इस राज्य में हिंसा और दहशतगर्दी का बोलबोला चल रहा है उसकी वजह हमें कहीं गहरे जाकर ढूंढनी होगी लेकिन फिलहाल मुद्दा यह है कि दहशतगर्द घाटी के दक्षिणी इलाके में आतंक का साम्राज्य स्थापित करने के लिए कश्मीरियों पर दुतरफा वार कर रहे हैं। एक तरफ सीमा पर तैनात हमारी फौजों के सिपाहियों को पाकिस्तानी फौज अपनी बर्बरता का शिकार बना रही है तो दूसरी तरफ राज्य के भीतर पुलिस कर्मियों को निशाना बनाया जा रहा है लेकिन इसके साथ-साथ ही राज्य में दहशतगर्दों के खिलाफ पुलिस और फौज सख्त अभियान भी चलाये हुए है। यह काम केन्द्र मंे मोदी सरकार के गठन के बाद शुरू हुआ और सरकारी दावों के अनुसार आतंकवादी गतिविधियां कम हुई हैं और दहशतगर्दों का एक हद तक सफाया भी किया गया है।
मगर इसके साथ ही यह सवाल भी पैदा हो रहा है कि जब सरकार के सख्त कदमों के बेहतर परिणाम निकल रहे हैं तो तीन सप्ताह पहले ही जम्मू-कश्मीर पुलिस ने हिरासत में लिये गये आतंकवादियों के एक दर्जन परिवारजनाें को उन तीन पुलिस कर्मी व आठ अन्य पुलिसकर्मियों के परिवारजनाें की एवज में क्यों रिहा किया जिन्हें दहशतगर्दों ने अगवा कर लिया था? इनमें हिज्बुल मुजाहिदीन के कमांडर रियाज नायकू का पिता भी था। जाहिर है कि कहीं न कहीं तालमेल नहीं बैठ रहा है और सरकार की दहशतगर्द विरोधी नीति के सिरे आपस में नहीं जुड़ पा रहे हैं। पुलिस किसी भी राज्य के प्रशासन की रीढ़ की हड्डी होती है और खुश किस्मती से जम्मू-कश्मीर पुलिस की प्रतिष्ठा पूरे देश में बहुत ऊंचे स्थान पर रख कर देखी जाती है। आतंकवादी इसी पुलिस का मनोबल तोड़ना चाहते हैं। इसी वजह से उन्होंने आज तीन पुलिस कर्मियों की हत्या करने से पूर्व चेतावनी जारी की थी कि पुलिस की मदद करने के काम में ‘लगे स्पेशल पुलिस अफसर’ अपने पदों से इस्तीफा दे दें।
जम्मू-कश्मीर में जिस प्रकार की परिस्थितियां हैं उनमें राज्य पुलिस द्वारा भर्ती किये गये इन विशेष पुलिस अफसरों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है क्योंकि ये दहशतगर्दों के छिपे होने की जानकारी राज्य प्रशासन को देते हैं और उसके दहशतगर्द विरोधी अभियान को सफल बनाने में मदद करते हैं। स्थानीय स्तर पर दहशतगर्द तैयार न हो इसके लिए भी वे प्रयास करते हैं। साथ ही स्थानीय नागरिकों के साथ भी उनका राब्ता भरपूर रहता है। अतः राज्य में फौज व सशस्त्र बलों पर पत्थरबाजी की घटनाएं कम होने के पीछे का राज भी हमें समझना चाहिए। वैसे यह मसला भी बहुत पेचीदा है और हमें इसे खुले नजरिये से देखना होगा क्योंकि पुलिस और फौज की भूमिका अलग-अलग होती है। यह कोई कम महत्वपूर्ण नहीं है कि इस माहौल के बावजूद राज्य के नवनियुक्त राज्यपाल श्री सत्यपाल मलिक ने राज्य मंे पंचायत स्तर के चुनाव कराने का फैसला किया है। इसके पीछे श्री मलिक का कश्मीरी जनता में भरोसा बोल रहा है। श्री मलिक मूलतः समाजवादी हैं और उन्हें जनभागीदारी द्वारा किसी भी गूढ़ समस्या का हल निकालने का रास्ता वैचारिक घुट्टी में पिलाया गया है। पंचायत चुनावों का बहिष्कार करने का ऐलान बेशक नेशनल कान्फ्रेंस व पीडीपी ने किया है मगर कश्मीरी जनता का मन जाने बिना ही यह काम इन दोनों पार्टियों ने कर डाला है।
इनमें से पीडीपी तो अब लावारिस सियासी पार्टी के तौर पर कश्मीर में अपनी जगह बनाती जा रही है। क्योंकि इसने अपने शासन के दौरान राज्य की जनता को इस तरह जख्म दिये हैं कि इस राज्य की कश्मीरी संस्कृति आंखें भर-भर कर रो रही है। अतः कांग्रेस पार्टी द्वारा इन चुनावों में भाग लेने की घोषणा करने का भी विशेष महत्व है लेकिन पंचायत चुनावों से इस राज्य के लोगों में वह आत्मविश्वास जाग सकता है जिसके बूते पर वे दहशतगर्दों का स्थानीय स्तर पर ही इलाज कर सकते हैं और इन्हें सम्पन्न कराने की जिम्मेदारी अन्ततः राज्य पुलिस की ही होगी। इसीलिए दहशतगर्द इसका मनोबल तोड़ना चाहते हैं। मगर उन्हें सफलता नहीं मिलेगी क्योंकि एेसा करके वे कश्मीरियों को ही और घाव दे रहे हैं ।