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नीति आयोग की ‘श्रेष्ठ नीति’

मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल की शुरूआत में आयोजित नीति आयोग की पहली बैठक में तीन राज्यों के मुख्यमन्त्रियों की अनुपस्थिति से केन्द्र व राज्यों के बीच टकराव का सन्देश किसी भी स्तर पर नहीं जाना चाहिए हालांकि तीनों मुख्यमन्त्रियों ने बैठक में न आने के अलग-अलग कारण बताये हैं।

मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल की शुरूआत में आयोजित नीति आयोग की पहली बैठक में तीन राज्यों के मुख्यमन्त्रियों की अनुपस्थिति से केन्द्र व राज्यों के बीच टकराव का सन्देश किसी भी स्तर पर नहीं जाना चाहिए हालांकि तीनों मुख्यमन्त्रियों ने बैठक में न आने के अलग-अलग कारण बताये हैं। प. बंगाल की मुख्यमन्त्री सुश्री ममता बनर्जी की नजर में नीति आयोग की उपयोगिता नहीं है क्योंकि इसके पास कोई अधिकार नहीं है। 
पंजाब के मुख्यमन्त्री कैप्टन अमरेन्द्र सिंह अस्वस्थ हैं और तेलंगाना के मुख्यमन्त्री चन्द्रशेखर राव राज्य की सिंचाई परियोजना के कार्यक्रम में पहले से व्यस्त हैं। संयोग से ये तीनों मुख्यमन्त्री  गैर-भाजपा दलों से हैं परन्तु इस बैठक की उपयोगिता केन्द्र व राज्यों के बीच सन्तुलन व सामान्य सम्बन्ध रखने के सन्दर्भ में बहुत महत्वपूर्ण है। अतः राजनैतिक शिष्टाचार का पालन करते हुए इसमें सभी राज्यों के मुख्यमन्त्रियों की हाजिरी मुनासिब समझी जाती है क्योंकि इसकी अध्यक्षता प्रधानमन्त्री करते हैं। निश्चित रूप से देश की समस्याओं के बारे में राजनैतिक आग्रह परे रखते हुए विचार करने का यह महत्वपूर्ण मंच है। इस बैठक से पहले कांग्रेस शासित राज्यों के मुख्यमन्त्रियों ने पूर्व प्रधानमन्त्री डा. मनमोहन सिंह से भेंट करके अपनी पार्टी के आर्थिक नजरिये पर भाजपा की केन्द्र सरकार की नीतियों के तहत क्या दृष्टि रखी होगी इसका पता तो बाद में चलेगा।
 मनमोहन सरकार के वाणिज्य मन्त्री के रूप में कमलनाथ ने विश्व व्यापार संगठन में भारत के कृषि क्षेत्र को बचाने के लिए जिस तरह विश्व के अन्य विकासशील देशों का सहयोग लेकर औद्योगिक राष्ट्रों को झुकाने में कामयाबी हासिल की थी उसी के परिणामस्वरूप आज भारत के किसानों की खेती का व्यय तमाम विसंगतियों के बावजूद नियन्त्रण में है। यह उनके उस रुख की वजह से ही संभव हो पाया था जो उन्होंने विश्व संगठन में खुलकर लिया था और कहा था कि ‘भारत के किसानों को सरकारी सब्सिडी व सुविधाएं तब तक मिलनी जारी रहनी चाहिएं जब तक कि उनकी माली हालत यूरोप के किसानों जैसी नहीं हो जाती।’
 नीति आयोग की बैठक में कृषि क्षेत्र की समस्याओं का एजेंडा भी था और जल संकट का भी तथा माओवादी हिंसा का भी। इन सभी मोर्चों पर भारत के प्रत्येक राज्य का सरोकार इस तरह है कि किसी एक राज्य में भी किसी समस्या के पनपने से उसका असर तुरन्त दूसरे पर होता है। जिस तरह महाराष्ट्र के नासिक में पैदा हुई प्याज की फसल पर असर पड़ने से उसके दाम देश के सभी राज्यों में बढ़ जाते हैं, उसी प्रकार छत्तीसगढ़ या झारखंड की नक्सली समस्या का मनोवैज्ञानिक प्रभाव दूसरे राज्यों पर पड़ता है और यहीं पर श्रेष्ठ भारत का सवाल आकर खड़ा हो जाता है।  जाहिर है यह श्रेष्ठ भारत सभी राज्यों के सम्मिलित प्रयासों से ही बनेगा। बिना शक इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए विभिन्न राजनैतिक दलों का नजरिया अलग-अलग हो सकता है मगर सभी का उद्देश्य एक ही है। 
जाहिर है कि रास्ता बदलने से तय की हुई मंजिल को नहीं बदला जा सकता। केन्द्र व राज्यों के बीच आर्थिक स्रोतों का बंटवारा योजना आयोग के विघटन के बाद अब ‘वित्त आयोग’ के हाथ में इस प्रकार आया है कि इसमें ज्यादा पेंचोखम नहीं बचे हैं। पूरे देश में ‘जीएसटी’ के लागू होने के बाद राज्यों की राजस्व स्वायत्तता केवल पेट्रोलियम पदार्थों व मदिरा पेयों तक सीमित रह गई है। इसे देखते हुए राज्यों की आर्थिक निर्भरता केन्द्र पर बढ़ी है, जबकि इस दायरे में सबसे ज्यादा संजीदा क्षेत्र (वल्नरेबल) कृषि ही है और यह राज्यों का विषय है। प्राकृतिक आपदाओं से लेकर अन्य अाक​िस्मक विपत्तियों के प्रभाव में जब चाहे आने वाले इस क्षेत्र में ही लोगों को सर्वाधिक रोजगार मिलता है, जिसकी वजह से राज्य सरकारें अब ज्यादा विपन्नता का खतरा महसूस करने लगी हैं। 
किसानों की कर्जमाफी का मुद्दा इसी समस्या से जुड़ा हुआ है, जिसके चलते 2022 तक कृषि क्षेत्र की आय दुगनी करने का लक्ष्य पहाड़ जैसा लगता है किन्तु यह असंभव भी नहीं है। नीति आयोग में इन सभी मुद्दों पर सर्वसम्मति बनाने की जरूरत निश्चित रूप से पड़ेगी जिसके लिए पानी की इफरात होना पहली शर्त है। 
जल संसाधन व प्रबन्धन के मामले में एक बात ध्यान में रखी जानी जरूरी है कि इस देश में जल की कमी नहीं है बल्कि प्रबन्धन का अकाल है। यह कार्य राज्य सरकारों के सहयोग के बिना नहीं हो सकता। ग्रामीण इलाकों मंे इसमें रोजगार सृजन की भी अपार संभावनाएं मौजूद हैं। यदि मनमोहन सरकार के 2004-05 के पहले बजट को देखा जाये तो इसमें देशभर के ग्रामीण इलाकों में पारंपरिक पोखरों और तालाबों की पुनर्संरचना के लिए प्रचुर धन की व्यवस्था की गई थी। इस योजना की मोदी सरकार के जल शक्ति मन्त्री श्री शेखावत नये जोश के साथ समीक्षा करके कायाकल्प कर सकते हैं और प्रधानमन्त्री मोदी के ‘नल से जल’ सपने को पूरा कर सकते हैं क्योंकि यह कार्य जल संरक्षण की परियोजना को युद्ध स्तर पर लागू किये बिना नहीं हो सकता। 
आर्थिक मोर्चे पर विश्व की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था  बनने के लिए भारत के हर राज्य को सक्रिय भागीदारी करनी पड़ेगी और इसमें अपने नागरिकों का विकास भी तलाशना होगा। आर्थिक उदारीकरण के बहुत से दोष हो सकते हैं मगर एक सबसे बड़ा फायदा यह हुआ है कि इसने प्रत्येक राज्य को अपने स्रोतों का अधिकतम उपयोग करते हुए विकास करने का अवसर सुलभ कराया है। यही वजह थी कि केरल व प. बंगाल की (पुरानी) कम्युनिस्ट सरकारों तक ने इसे अपनाया था। इसकी वजह से  राज्यों में विकास की प्रतियोगिता को बढ़ावा मिला है। अतः यह बेवजह नहीं है कि आन्ध्र प्रदेश, बिहार व ओडिशा विशेष राज्य का दर्जा देने की मांग कर रहे हैं।
 नीति आयोग की उपयोगिता कई मायनों में योजना आयोग से इसीलिए ज्यादा है क्योंकि राज्य अपनी पसन्द के अनुसार विकास का खाका तैयार करके केन्द्र से मदद की मांग कर सकते हैं और मदद को किसी भी रूप में लाचारी नहीं कहा जा सकता क्योंकि उद्देश्य भारत को आगे बढ़ाने का है।

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