बिहार की चुनावी राजनीति जिस तरह नाटकीय मोड़ ले रही है उससे सत्तारूढ़ और विपक्षी गठबन्धन दोनों ही प्रभावित होते दिखाई पड़ रहे हैं। एक तरफ सत्तारूढ़ गठबन्धन की सदस्य लोक जनशक्ति पार्टी के अध्यक्ष चिराग पासवान ने जनता दल (यू) के प्रत्याशियों के विरुद्ध अपने प्रत्याशियों को खड़ा करने की घोषणा करके गठबन्धन धर्म को तोड़ दिया है तो वहीं दूसरी तरफ विपक्षी गठबन्धन के मुख्यमन्त्री पद के दावेदार तेजस्वी यादव के खिलाफ अपनी ही पार्टी के एक नेता की हत्या में शामिल होने का आपराधिक मुकदमा दर्ज हो गया है। विपक्षी गठबन्धन के लिए यह वास्तव मे बहुत ही दुविधापूर्ण समय है कि उनका नेतृत्व करने वाला नेता चुनावों से पहले ही हत्या जैसे संगीन आरोप में घिर चुका है। दूसरी तरफ सत्तारूढ़ गठबन्धन में चुनाव में उतरते ही फूट पड़ गई है। दरअसल इससे यह भी स्पष्ट होता है कि बिहार के मतदाताओं के सामने जाते हुए दोनों ही गठबन्धन अपने-अपने डर से सहमे हुए हैं। अतः बिहार की जनता को ही आगे बढ़ कर जमीनी गठबन्धन तैयार करना होगा।
लोकतन्त्र में यह राजनीतिक सुविज्ञता का परिचायक भी कहा जायेगा क्योंकि इस व्यवस्था में अन्ततः जनता ही मालिक होती है। यदि जनता स्वयं आगे बढ़कर जमीनी राजनीति की सच्चाई के आधार पर अपना गठबन्धन तैयार करती है तो इससे राजनीतिक दलों का खोखलापन ही साबित होता है। ऐसा बिहार की जनता ने 2005 में किया था जब इस राज्य में पहली बार जनता दल (यू)-भाजपा गठबन्धन श्री नीतीश कुमार के नेतृत्व में सत्तारूढ़ हुआ था मगर यह 2020 चल रहा है और इस दौरान बिहार की जमीनी हकीकत बहुत बदल चुकी है। नीतीश बाबू वह रुतबा खो चुके हैं जो इनके नाम के साथ जुड़ा हुआ ‘सुशासन बाबू’ का माना जाता था।
बिहार के बारे में यह प्रसिद्ध है कि इसका मतदाता अपने राज्य के साथ ही राष्ट्रीय राजनीति पर भी पैनी नजर रखता है। पिछले दिनों समाप्त संसद सत्र के दौरान राज्यसभा में कृषि विधेयकों को पारित कराने के मुद्दे पर जो खेल हुआ उसकी गूंज भी बिहार के विधानसभा चुनावों में उठनी शुरू हो गई है। ये विधेयक जनता दल (यू) के सदस्य हरिवंश नारायण सिंह के उपसभापति के नेतृत्व में ही ध्वनिमत से पारित हुए थे। इस मुद्दे को लेकर विपक्ष राष्ट्रपति के पास तक गया था। विषय राज्यसभा में नियमों की अवहेलना का था। बिहार के मतदाता इतने संजीदा माने जाते हैं कि वे भारत के अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों तक पर बेबाक टिप्पणी करने की अक्ल रखते हैं। अतः ये विधानसभा चुनाव साधारण चुनाव नहीं हैं क्योंकि इनमें वर्तमान की राष्ट्रीय समस्याओं की समीक्षा भी बिहारी मतदाता करेंगे मगर अफसोस यह है कि राजनीतिक दल अभी तक जातिगत गणित के फेर में ही पड़े हुए हैं। हकीकत यह है कि बिहार में राष्ट्रीय चुनावों में ही यह जातिगत गणित पूरी तरह फेल हो गया था। 2019 में चुनाव राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दे पर लड़ा गया था। बिहार की जनता ने तब एकमत से प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी का समर्थन किया था। अतः इन चुनावों के आधार पर विजयी क्षेत्रीय पार्टियां अगर अपनी ताकत का आंकलन करती हैं तो वे पूरी तरह गलत हैं। लोक जनशक्ति पार्टी के छह सांसद इन चुनावों में जीत कर आये थे। यह विजय श्री नरेन्द्र मोदी द्वारा खड़े किये गये राष्ट्रवादी एजैंडे की थी। इसके आधार पर लोक जनशक्ति पार्टी यदि सीटों की मांग करती है तो वह अपनी असली ताकत से नावाकिफ है मगर दूसरी तरफ यदि विपक्षी राजद-कांग्रेस-कम्युनिस्ट गठबन्धन गंभीर आपराधिक मुकदमे में नामजद किये गये तेजस्वी यादव के नेतृत्व में चुनाव लड़ता है तो चुनावों से पहले ही उसकी विश्वसनीयता खतरे में पड़ जाती है। यही वजह है कि बिहार में जनता को स्वयं आगे आकर अपना गठबन्धन बनाने को मजबूर होना पड़ सकता है।
बिहार में लालू जी का माई (मुस्लिम-यादव) गठबन्धन हो या पासवान का दलित-मुस्लिम गठबन्धन हो, दोनों ही दम तोड़ चुके हैं। इसकी वजह बहुत साफ है कि ऐसे गठबन्धनों से बिहार की राजनीति ने अपना मूल ‘कमजोर बनाम ताकतवर’ का विमर्श खो दिया था। दोनों गठबन्धनों की संरचनात्मक विवेचना से यही निष्कर्ष निकलता है कि इन चुनावों में आम मतदाता कौन सा नया समीकरण बना कर सबको हैरान करेगा। बिहार के मतदाता यह काम करने में माहिर माने जाते हैं इसीलिए यह कहावत प्रसिद्ध हुई है कि ‘बिहारी उड़ती चिड़िया’ को हल्दी लगा देता है।’