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पिता–पुत्र की राजनीतिक रंजिश !

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देश की अर्थव्यवस्था की स्थिति को लेकर जो तीखा विवाद शुरू हुआ है उसमें वर्तमान भाजपा सरकार के मंत्री जयन्त सिन्हा का अपने ही पिता भाजपा नेता श्री यशवन्त सिन्हा से गंभीर मतभेद पैदा हो गया है। लोकतंत्र में इस वैचारिक मतभेद का स्वागत किया जाना चाहिए क्योकि विचार भिन्नता लोकतंत्र का मूलाधार होती है। मगर देखने वाली बात यह है कि क्या इन दोनों पिता–पुत्र में कोई सैद्धांतिक मतभेद है अथवा सिर्फ सत्ता में बने रहने के लिए जयन्त सिन्हा अपने पिता के विरोध में रुख अपना रहे हैं? जयन्त सिन्हा उन सवालों का जवाब स्वीकार्य तर्कों के आधार पर देने में लगभग असफल रहे हैं जो उनके पिता ने अर्थव्यवस्था के बारे में उठाए हैं। पहला मूलभूत प्रश्न यह है कि वर्तमान सरकार द्वारा किया गया आर्थिक संशोधनों का क्या यह वास्तव में तीसरा चरण है? और यदि है तो इसके परिणाम क्या निकले हैं? रक्षा उत्पादन क्षेत्र में शत- प्रतिशत विदेशी निवेश की इजाजत देने के बाद इसका प्रतिफल देश को क्या मिला है।

भारत के पक्ष में सबसे बड़ा तथ्य यह जा रहा है कि इसने अपनी मुद्रा रुपए का अभी तक पूर्ण परिवर्तन करने का जोखिम नहीं उठाया है जबकि इसका चालू खाता घाटा ( सीएडी ) दो प्रतिशत से भी कम है। वास्तव में उदारीकरण का सबसे बड़ा तीसरा चरण इसे ही कहा जा सकता था क्यों​िक जो भी कदम उठाये गए हैं वे पिछले कार्यों का ही विस्तार हैं। जीएसटी को हम शुल्क प्रणाली में आधारभूत परिवर्तन करने वाला कदम जरूर मानेंगे मगर इसे लागू करने के लिए भारतीय बाजारों का वातावरण जबर्दस्त प्रतिरोध दिखा रहा है। यह अल्पकालिक या तात्कालिक प्रभाव नहीं माना जा सकता क्योकि यह देशी व घरेलू छोटे और मंझले उद्योगों को विलीन करने की दिशा में बढ़ रहा है। सवाल केवल तकनीकी समायोजन के साथ कदम–ताल मिला कर चलने का नहीं है बल्कि रोजी–रोटी की सुलभता का है। इसके साथ ही समूचा भारतीय समाज और अर्थव्यवस्था का प्रत्येक वाहक अंग भी इसकी जकड़न महसूस कर रहा है।

परन्तु श्री जयन्त सिन्हा को यकीन है कि दीर्घावधि में सरकार द्वारा उठाए गए कदमों का अर्थव्यवस्था पर सकारात्मक असर पड़ेगा और सकल विकास वृद्धि की दर में अपेक्षानुरूप इजाफा होगा। जबकि उनके पिता का मानना है कि आर्थिक माहौल कालान्तर में और बिगड़ेगा क्योंकि 1963 के बाद में पहली बार बैंकों द्वारा दिए गए ऋणों की वृद्धि दर साल 2016-17 में केवल पांच प्रतिशत के करीब रही है इससे निजी निवेश का माहौल पूरी तरह लकवाग्रस्त हो चुका है। बेशक यह बड़े नोटों को बंद करने का असर भी कहा जा सकता है परन्तु जीएसटी ने इसे और नकारात्मक दिशा दे दी है। वैसे यह तथ्य है कि श्री यशवन्त सिन्हा जीएसटी के प्रबल विरोधी रहे हैं मगर तर्क दिया जा सकता है कि कांग्रेस शासनकाल में तो पूरी भाजपा पार्टी ही इसके विरोध में थी। तब सत्ता में आने पर खुद भाजपा ने ही इसे लागू करने का बीड़ा क्यों उठाया? जाहिर तौर पर अर्थव्यवस्था को राजनीतिक हानि–लाभ के समीकरणों से दूर रख कर देखा जाना चाहिए। वह भी तब जबकि कांग्रेस व भाजपा की आर्थिक नीतियों में अब कोई मूलभूत अंतर नहीं रहा है क्योंकि दोनों ही खुली बाजार अर्थव्यवस्था की वकालत करती हैं।

साथ ही श्री जयन्त सिन्हा का यह भी मत है कि मौजूदा सरकार को पिछली सरकार ने बहुत खराब अर्थव्यवस्था हाथ में दी थी। मगर असली मुद्दे की बात यह है कि पिछले तीन सालाें में आम आदमी की औसत आय में कितनी वृद्धि हुई है और गरीबी का स्तर कितना कम हुआ है तथा ग्रामीण व कृषि क्षेत्र में कितना अधिक पूंजी निर्माण हुआ है? जहां तक भवन निर्माण उद्योग का सवाल है तो भारत के सन्दर्भ में यह पश्चिमी विकास के नमूने की बेअक्ली नकल के अलावा कुछ नहीं है। इस क्षेत्र को संगठित क्षेत्र का दर्जा देकर हमने सम्पन्नता के सामाजिक विस्तार की गति को अवरुद्ध किया है और कालेधन की पूंजी का केन्द्रीयकरण किया है। मगर असल सवाल यह है कि क्या सिन्हा पिता–पुत्र में सैद्धांतिक मतभेद है? ऊपर से देखने में यह जरूर लगता मगर नीतिगत भेद कहीं नहीं है। भारत का इतिहास पारिवारिक सैद्धांतिक मतभेदों से भरा पड़ा है। सबसे बड़ा मतभेद पिता-पुत्र के बीच तब हुआ था जब 1923 में अंग्रेजों की दासता से मुक्ति पाने के लिए पं. जवाहर लाल नेहरू के पिता मोतीलाल नेहरू ने महात्मा गांधी द्वारा चौरी–चौरा कांड मे भड़की हिंसा के बाद असहयोग आंदोलन वापस लेने की घोषणा के बाद कांग्रेस से अलग होकर देशबन्धू चितरंजन दास के साथ मिल कर अपनी अलग ‘स्वराज पार्टी’ बना ली थी।

उस समय मोतीलाल जी के पुत्र पं. नेहरू ने अपने पिता का पुरजोर विरोध करते हुए कांग्रेस में ही रहने का संकल्प लिया था और अपने पिता की नीतियों से जबर्दस्त विरोध जताया था। यह पूरी तरह नीतिगत मतभेद था। इसी प्रकार आजादी के वर्ष 1947 में कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष रहे आचार्य कृपलानी ने जब बाद में प्रजा समाजवादी पार्टी बनाई तो उनकी पत्नी स्व. सुचेता कृपलानी ने उनका सैद्धांतिक विरोध पूरे वेग के साथ किया और वह कांग्रेस पार्टी की सदस्य ही जीवन पर्यन्त बनी रहीं। परन्तु पिता-पुत्र में सैद्धांतिक मतभेद का एक और एेसा उदाहरण है जो भारतीय राजनीति के तेवरों को बहुत ऊंचा स्थान देता है। लोकसभा के अध्यक्ष रहे श्री सोमनाथ चटर्जी के पिता श्री एन.सी. चटर्जी हिन्दू महासभा के अध्यक्ष थे।

परन्तु उनके पुत्र सोमनाथ ने अपने पिता के राजनितिक दर्शन को कड़ी चुनौती देते हुए कम्युनिस्ट पार्टी की सदस्यता ग्रहण की और इसी पार्टी की शाखा मार्क्सवादी पार्टी में वह अपना पूरा राजनीतिक जीवन गुजारने की जिद ठान बैठे-बेशक कुछ लोग मुलायम सिंह व अखिलेश यादव का भी उदाहरण दे सकते हैं मगर यह कोई भेद नहीं था बल्कि सत्ता की राजनीति में खुद को बनाये रखने का एक पैंतरा भर था और समाजवादी पार्टी को जीवित रखने की एक चाल थी। वैसे तो कांग्रेस के नेता श्री दिग्विजय सिंह के पिता भी एक जमाने में जनसंघ के सांसद रहे थे और उनके छोटे भाई लक्ष्मण सिंह भी भाजपा में शामिल हो गये थे। मगर ये सैद्धांतिक राजनीति से प्रेरित घटनाएं कम और अंशकालिक लाभ– हानि के समीकरणों में गुंथे हुए मसले ज्यादा थे। एेसे उदाहरण तो वर्तमान राजनीति में भी कई हैं मगर उनका कोई मतलब नहीं है। ग्वालियर का पूर्व राज परिवार भी इसी दायरे में आता है। क्यों​िक इसमें सिद्धान्त नहीं बल्कि व्यक्तिगत लाभ प्रमुख है। सैद्धांतिक राजनीतिक बदलाव वह जरूर था जब स्व. डा. रघुवीर कांग्रेस छोड़ कर जनसंघ में शामिल हो गए थे और उनके पुत्र भी इसी पार्टी की विचारधारा से बन्धे रहे।

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