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झारखंड में राजनैतिक स्थिरता?

झारखंड में हेमन्त सोरेन सरकार विश्वास मत प्राप्त करने में सफल रही है मगर मुख्यमन्त्री का भविष्य अभी भी अधर में ही लटका हुआ है।

झारखंड में हेमन्त सोरेन सरकार विश्वास मत प्राप्त करने में सफल रही है मगर मुख्यमन्त्री का भविष्य अभी भी अधर में ही लटका हुआ है। इसकी वजह चुनाव आयोग की वह अनुशंसा है जो राज्यपाल श्री रमेश बैंस के पास है। इस सिफारिश में श्री सोरेन की विधान सभा से सदस्यता समाप्त करने को कहा गया बताया जाता है परन्तु अभी तक राज्यपाल महोदय ने इसे सार्वजनिक नहीं किया है। इसका क्या कारण है, इसकी वजह तो उनका कार्यालय ही बता सकता है परन्तु जहां तक राज्य में चुनी हुई सरकार का सवाल है तो वह बाकायदा बहुमत की सरकार है। 2019 के विधानसभा चुनावों में जो जनादेश झारखंड की जनता ने दिया था उसे देखते हुए ही इस राज्य में श्री सोरेन की झारखंड मुक्ति मोर्चा व कांग्रेस की सांझा सरकार गठित हुई थी। 82 सदस्यीय विधानसभा में झामुओ को 30 व कांग्रेस को 18 स्थान मिले थे जिसके आधार पर इस सरकार का गठन हुआ था। एक स्थान राजद को भी मिला था और वह भी इस सरकार में शामिल हो गया था। तब से लेकर अब तक राज्य में राजनैतिक स्थिरता बनी हुई थी मगर पिछले दिनों श्री सोरेन के खिलाफ चुनाव आयोग का फैसला आने के बाद से राजनैतिक परिस्थितियां बदलने की आशंका पैदा होने लगी थी। ऐसे आरोप लगने शुरू हो गये थे कि सत्तारूढ़ पार्टियों के सदस्यों की निष्ठा बदलने के लिए राजनैतिक चौसर बिछनी शुरू हो गई है जिसकी वजह से श्री सोरेन ने अपने विधायकों को इकट्ठा रखने के लिए जवाबी कार्रवाई शुरू की और उन्हें कभी छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर ले जाया गया तो कभी अन्य स्थानों का पर्यटन कराया गया।
मे लोकतन्त्र में यह स्थिति किसी भी सूरत में अच्छी नहीं कही जा सकती खास कर दल बदल कानून के अस्तित्व में रहते इस तरह की घटनाएं पूरी लोकतान्त्रिक प्रणाली की वैधता पर ही सवालिया निशान लगाती है। मगर पिछले दो दशकों से विधायकों को पर्यटन पर ले जाने की संस्कृति में लगातार वृद्धि हो रही है। इसका प्रमुख कारण स्वयं विधायक ही हैं क्योंकि जिस लोकतान्त्रिक प्रणाली के माध्यम से वह जनता का विश्वास प्राप्त करके विधानसभा में पहुंचते हैं, बाद में उसी जनता के साथ विश्वासघात करते हैं। विधानसभा में सरकारों का गठन बहुमत के विधायकों की संख्या पर निर्भर करता है और इसमें जब हेर- फेर होता है तो सरकारें बदल जाती हैं। 1986 में दल-बदल विरोधी कानून आने से पहले देश के विभिन्न राज्यों मंे ‘आया राम-गया राम’ संस्कृति अपने चरम पर थी। विशेषकर उन राज्यों में जहां सरकारों का गठन मामूली बहुमत के आधार पर होता था। इसे समाप्त करने के लिए ही दल-बदल विरोधी कानून लाया गया और शुरू में यह प्रावधान किया गया कि एक दल से दूसरे दल में तभी कोई विधायक जा सकेगा जबकि उसके साथ उसके दल के एक-तिहाई विधायक होंगे। बाद में यह संख्या बढ़ा कर दो-तिहाई कर दी गई। मगर बाद में इसका तोड़ भी निकाला गया और पहली बार प्रयोग गोवा जैसे छोटे राज्य में ही किया गया जहां 2001 के आसपास कुछ विधायकों का इस्तीफा करा कर सदन की सदस्य शक्ति को ही घटा दिया गया। 
पहली बार यह प्रयोग कांग्रेस पार्टी की तरफ से गोवा के प्रभारी स्व. प्रियरंजन दास मुंशी ने किया था। बाद में इस इस्तीफा संस्कृति का विकास होता चला गया और विभिन्न राज्यों में सरकारें अदलने बदलने लगीं।  लेकिन विधायकों को सैर सपाटे पर ले जाने की संस्कृति की शुरूआत सबसे पहले गुजरात में 1996 के आसपास हुई जब तत्कालीन भाजपा नेता शंकर सिंह वाघेला ने अपनी ही पार्टी के मुख्यमन्त्री स्व. केशुभाई पटेल की सरकार के खिलाफ विद्रोह किया और वह अपने समर्थक विधायकों को इकट्ठा रखने की गरज से पर्यटन स्थलों पर ले गये। श्री वाघेला बाद में  कांग्रेस पार्टी में भी आ गये थे। परन्तु झारखंड के सन्दर्भ में महत्वपूर्ण यह है कि सोरेन सरकार के लगभग सभी विधायक एकजुट रहे हालांकि उन्हें भी खूब सैर सपाटा कराया गया। परन्तु लोकतन्त्र में इस प्रकार की संस्कृति का पनपना बताता है कि हमारे चुने हुए जन प्रतिनिधि कितने कमजोर हो चुके हैं। अतः प्रत्येक राजनैतिक दल का भी यह कर्तव्य बनता है कि वह अपनी पार्टी के विधायकों को ताकतवर बनाये जिससे लोकतन्त्र ताकतवर बने। सांझा सरकारें भी लोकतन्त्र के अंकगणित के सिद्धान्त के अनुसार ही बनती हैं। छोटे राज्यों के सन्दर्भ में हमें बहुत संजीदगी के साथ इस विषय पर सोचना होगा क्योंकि एक बार चुनी हुई बहुमत की सरकार स्थापित हो जाने के बाद यदि किसी भी प्रकार की टूट-फूट सत्तारूढ़ गठबन्धन में होती है तो उसका सीधा प्रभाव राज्य की जनता के मनोबल पर पड़ता है जिससे राज्य की सभी विकास योजनाएं बुरी तरह प्रभावित होती हैं।
 झारखंड वैसे भी आदिवासी राज्य है जिसकी विकास की प्राथमिकताएं सामान्य राज्यों से अलग हैं। परन्तु इस राज्य में सोरेन सरकार जिस तरह मुस्लिम जेहादी मानसिकता वाले लोगों के प्रति उदार रुख दिखा रही है वह समूचे भारत की सामाजिक व राष्ट्रीय एकता के लिए हानिकारक हो सकता है। राष्ट्रविरोधी तत्वों के साथ सख्ती दिखाने में कोई भी वोट बैंक आगे नहीं आना चाहिए और सभी के लिए कानून का डंडा सख्त से सख्त होना चाहिए। अब श्री सोरेन की जहां तक विधानसभा सदस्यता का सवाल है तो राज्यपाल को इस बारे में धुंध छांटनी चाहिए क्योंकि इससे भी राजनैतिक स्थिरता को नुकसान पहुंचता है। राज्यपाल की जिम्मेदारी राजनैतिक रूप से स्थिर चुनी हुई सरकार ही देने की होती है। 

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