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सियासत कहीं तिजारत न बने?

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कर्नाटक का नाटक क्या नजारा पेश कर रहा है कि लोकतन्त्र एक बार फिर लोकतन्त्र होटलों की मेजबानी में गुजारा कर रहा है। संसदीय प्रणाली में पाले बदलवा कर सरकार पलटने का अंजाम हमने 2016 में उत्तर पूर्व के चीन की सीमा से सटे संजीदा राज्य अरुणाचल प्रदेश में हमने जो देखा था उसका बयान करने से कोई ज्यादा फायदा नहीं हो सकता क्योकि सियासत अब जिस तरह सिक्कों की गुलाम होती जा रही है उसने मतदाताओं का दम ही तोड़ कर रख दिया है। अरुणाचल प्रदेश में ऐसा सितम हुआ जैसा आजाद हिन्दोस्तान के इतिहास में कभी नहीं हुआ था। सत्तारूढ़ पार्टी कांग्रेस के विधायकों को तोड़ कर जिस तरह दल-बदल कानून को नाकारा बनाते हुए जिस तरह वहां के तत्कालीन राज्यपाल के इशारे पर ईटानगर की एक पांच सितारा होटल की ‘बार’ में दगाबाज विधायकों की महफिल सजाई गई थी उसका आखिरी नतीजा रौंगटे खड़े कर देने वाला निकला था क्योंकि तब सत्ता के तिजारिती खेल में मुख्यमन्त्री बनने वाले श्री कलिखो पुल ने सिर्फ पांच महीने गद्दी का सुख भोग कर उसे खाली करने की सूरत में आत्महत्या कर ली थी। यह प्रमाण है कि मौजूदा दौर में सियासत किस हद तक तिजारत बन चुकी है।

मगर कर्नाटक का मसला दूसरा है। यहां बाजियां आने वाले लोकसभा चुनावों को देख कर लगाई जा रही है। पिछले साल हुए विधानसभा चुनावों में भाजपा जिस तरह सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरने के बावजूद हुकूमत से बाहर रह गई उसकी कसक में पूर्व मुख्यमन्त्री बी.एस. येदियुरप्पा इस कदर परेशान हैं कि उन्हें ख्वाबों में भी मुख्यमन्त्री की कुर्सी दिखाई पड़ रही है। यह स्थिति इस हकीकत के बावजूद है कि हुजूर जब 2008 में जोड़-तोड़ करके मुख्यमन्त्री बने थे तो भ्रष्टाचार के एेसे– एेसे दिलफरेब कारनामे उन्होंने अंजाम दिए थे कि मुख्यमन्त्री की वह कुर्सी भी चीखेें मारने लगी थी जिस पर कभी स्वतन्त्रता सेनानी एस. निजरिंगप्पा, वीरेन्द्र पाटिल और देवराज अर्स जैसी हस्तियां बैठा करती थीं। कर्नाटक को तब पता चला था कि उसकी सियासत को चलाने की बागडोर इस सूबे के खनन माफिया के हाथ में देकर येदियुरप्पा ने अपने भविष्य को किस तरह सुरक्षित रखने का इन्तजाम बांधा है।

बेशक वह मुख्यमन्त्री रहते हुए ही जेल में सैर करने गए मगर अपने पीछे ऐसी विरासत छोड़ कर चले गए जिससे जब चाहो लोकतन्त्र को कान उमेठ कर जिस तरफ चाहो उस तरफ खड़ा कर दो। यह उन्हीं की नवाजिश है कि आज कर्नाटक विधानसभा के सभी 104 विधायक गुरुग्राम के एक सात सितारा होटल में मौज कर रहे हैं और इन्तजार कर रहे हैं कि मुम्बई के एक पांच सितारा होटल में आराम फरमा रहे सत्ताधारी कांग्रेस के तीन विधायक क्या पैगाम भेजते हैं। पिछले साल हुए चुनावों से जो जनादेश मिला था उसके अनुसार 224 की सदस्य संख्या वाली विधानसभा में कांग्रेस को 80, जनता दल (एस) को 37 व भाजपा को 104 सीटें मिली थीं। तब येदियुरप्पा को राज्यपाल ने आनन- फानन में मुख्यमन्त्री पद की शपथ दिलाकर अपना बहुमत साबित करने के लिए 15 दिन से भी ज्यादा का वक्त दे दिया था जबकि चुनाव परिणाम आते ही कांग्रेस व जनता दल (एस) ने हाथ मिलाते हुए एच.डी. कुमार स्वामी के नेतृत्व में सरकार बनाने का दावा ठोक दिया था। मगर राज्यपाल ने इस स्पष्ट बहुमत की अनदेखी करते हुए येदियुरप्पा को कुर्सी पर बैठा दिया जिसके खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय में रातोंरात अपील करके फैसले को पलटवाया गया और कुमार स्वामी की दावेदारी को परवान चढ़ाया गया।

मगर इस बीच न्यायालय ने येदियुरप्पा को दो दिन में बहुमत साबित करने का आदेश दिया जिसे वह सारी तरकीबें भिड़ाकर भी साबित नहीं कर सके थे। अब फिर से वही नजारा वह पेश करना चाहते हैं। उस समय कांग्रेस पार्टी ने अपने सभी विधायकों को आन्ध्र प्रदेश की एक सैरगाह में ले जाकर इकट्ठा रखा था जिससे येदियुरप्पा कोई रोकड़ा का जादू-मन्तर न कर सके थे। आज लोकतन्त्र में लोगों के विश्वास के बूते पर चुने गए सदस्यों को धनतन्त्र के जाल में फंसा कर पाले बदलवाने की संस्कृति विकसित की जा रही है उससे लगातार यह खतरा बढ़ रहा है कि सरकारें आम जनता के लिए नहीं बल्कि उन लोगों के लिए होती हैं जो अपने धन के बूते पर पूरी विधानसभा की संरचना को ही बदल देते हैं। ऐसी कोई भी सरकार आम जनता के हित में काम नहीं कर सकती क्योंकि उसके सर पर हमेशा हुकूमत में आने के लिए कर्ज का सूद चुकाने की जिम्मेदारी रहेगी।

मगर इस बीमारी का इलाज जिस तरह मेघालय जैसे छोटे से राज्य के लोगों ने ढूंढा है वह भी लाजवाब है और सभी लोकतन्त्रों के लिए एक अनुकरणीय उदाहरण भी है। यहां के लोगों का संगठन चुनाव के समय सभी दलों के प्रत्याशियों से हलफनामा भरवा लेकर ले लेता है कि चुने जाने पर वे दल नहीं बदलेंगे। ऐसा करते ही उन्हें इस्तीफा देकर पुनः चुनाव लड़ना होगा। मतदाताओं की पहल पर ही सियासत को तिजारत बनने से रोका जा सकता है क्योंकि दल–बदल कानून को भी जिस तरह राजनीतिक दलों ने परकटे पंछी की तरह फड़फड़ाता जीव बना दिया है उसे देख कर यही कहा जा सकता है कि ईमान बेचने का कोई तोड़ नहीं हो सकता क्योंकि विधानसभा में बहुमत साबित करने का तरीका दूसरी तरफ के कुछ विधायकों का इस्तीफा दिलवा कर बहुमत के करीब पहुंचना भी होता है। यह तरकीब भी कर्नाटक समेत कई अन्य राज्यों में आजमाई जा चुकी है। सबसे बड़ा मुद्दा यही है कि सियासत को तिजारत बनने से रोकने के लिए चुनाव आयोग को ऐसी तरकीब निकालनी पड़ेगी जिससे एक बार विधानसभा गठित हो जाने पर दलगत संख्या में बदलाव केवल दल–बदल कानून के तहत दिए गए नियमों के अनुसार ही हो सके। इस मामले में विधानसभा अध्यक्षों की भूमिका और उनके अधिकारों की व्याख्या की भी समीक्षा की जानी चाहिए और इस बाबत संविधान में संशोधन भी करना पड़े तो उससे दूर नहीं भागा जाना चाहिए।

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