देश की जनता सरकारों से ही हर समय राहत की उम्मीदें लगाए रखती है। सरकारें वोट बैंक के चक्कर में राजकोषीय घाटा सहकर भी उनकी उम्मीदें पूरी करती हैं। विकास की कोई भी परियोजनाएं वर्तमान जनसंख्या दर को ध्यान में रखते हुए बनाई जाती हैं लेकिन जनसंख्या में लगातार वृद्धि होने के कारण परियोजनाओं को जमीनी धरातल पर साकार कर पाना मुश्किल हो जाता है। यही स्थिति भारत में हो रही है। बढ़ती आबादी के तले बुनियादी ढांचा चरमरा जाता है। आखिर इतनी बड़ी आबादी के लिए पर्याप्त बुनियादी सुविधाओं का प्रबन्धन एक बड़ी चुनौती है। जैसे-जैसे भारत की जनसंख्या बढ़ेगी, वैसे-वैसे गरीबी का रूप विकराल होता जाएगा। बढ़ती आबादी को लेकर सरकार करोड़ों के विज्ञापन तो जारी करती है लेकिन नियंत्रण के लिए कोई नीति नहीं बनाती। बढ़ती आबादी हमारे आने वाले कल को खतरे में डाल रही है। बढ़ती आबादी के कारण ही भारत भुखमरी, पानी और बिजली की समस्या, अशिक्षा, चिकित्सा की बदइंतजामी और रोजगार के विकल्प आदि की समस्याओं से जूझ रहा है। परिवार नियोजन और जनसंख्या में वृद्धि रोकने में जनता की भूमिका महत्वपूर्ण होती है।
बेतहाशा बढ़ती जनसंख्या देश के विकास को प्रभावित कर रही है। बड़ी जनसंख्या तक योजनाओं के लाभों का समान रूप से वितरण सम्भव नहीं हो पाता जिसकी वजह से हम गरीबी आैर बेरोजगारी जैसी समस्याओं से दशकों बाद भी उबर नहीं सके हैं। विश्व में सबसे अधिक गरीब आैर भूखे लोग भारत में हैं। कुपोषण से मरने वाले बच्चों की संख्या भी हमारे देश में सबसे ज्यादा है। युवा हताश हैं और उनका तनाव लगातार बढ़ रहा है। जनसंख्या सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) आैर गरीबी को जोड़ने वाला मार्ग दो दिशाओं में जा सकता है। पहली दिशा तो यह है कि प्रति व्यक्ति जीडीपी आंकड़ा बढ़ने के साथ गरीबी दर घटती है और उससे जनसंख्या वृद्धि दर भी कम होती जाती है। हालांकि इसकी विपरीत दिशा में भी तर्क दिए जाते हैं कि जनसंख्या वृद्धि दर पर काबू पाते ही प्रति व्यक्ति जीडीपी वृद्धि बढ़नी चाहिए लेकिन इससे क्या गरीबी दर भी कम होती है। माल्थस ने यही परिकल्पना की थी कि उच्च जनसंख्या वृद्धि दर से गरीबी, अकाल, महामारी उपजेगी। सच्चाई यह है कि जनसंख्या वृद्धि, जीडीपी वृद्धि और गरीबी दोनों दिशाओं में ही जुड़ी हुई हैं और दोनों ही एक-दूसरे को बाध्य करती है।
1970 के दशक में जबरन जनसंख्या नियंत्रण नीति नाकाम होने के बाद भारत की कोई जनसंख्या नीति नहीं रही। सही दिशा में उठाए गए कदम भी जबरन नसबंदी किए जाने से राह से भटक गए। इसके परिणामस्वरूप राजनीतिक दलों ने जनसंख्या के मुद्दे को छूने से परहेज किया और इस आबादी को अपने वोट बैंक में तब्दील कर दिया। देशभर के आंकड़ों में हम जनसंख्या वृद्धि और प्रति व्यक्ति जीडीपी वृद्धि के बीच सम्बन्धों की दिशा और गरीबी से इसके सम्बन्धों को देख सकते हैं। संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट बताती है कि भारत की तेजी से बढ़ती हुई जनसंख्या 2024 तक चीन की भारी आबादी को पीछे छोड़कर काफी आगे निकल जाएगी। सन् 2100 तक भारत दुनिया की सबसे बड़ी जनसंख्या वाला देश बन जाएगा। अब सवाल यह है कि क्या अगले 5 वर्ष में हम इतना विकास कर पाएंगे कि बढ़ती आबादी का बोझ झेल सकें। प्रसिद्ध योग गुरु बाबा रामदेव ने भी पिछले दिनों कहा था कि जनसंख्या के लिए नियंत्रण के लिए जो भी दो से ज्यादा बच्चे पैदा करे, उससे वोट देने का अधिकार, सरकारी नौकरी और उपचार की व्यवस्था छीन लेनी चाहिए तभी जाकर नियंत्रित होगी। यह उनके व्यक्तिगत विचार हैं लेकिन जिस गम्भीर समस्या की ओर उन्होंने ध्यान दिया है उस पर विचार किया ही जाना चाहिए। यह सही है कि कई राज्य सरकारों ने इस विषय को गम्भीरता से लिया है।
असम की राज्य सरकार ने ऐतिहासिक फैसला लेते हुए दो से अधिक सन्तान पैदा करने वाले लोगों को सरकारी नौकरी के लिए अयोग्य करार दिया। समस्या की जड़ में जनसंख्या विस्फोट है। जनसंख्या के लिए राष्ट्रीय नीति होनी बहुत जरूरी है। दो बच्चों की नीति की अनुपालना राष्ट्रीय स्तर पर होनी ही चाहिए। सरकार पदोन्नति के लिए भी बच्चों की संख्या को आधार बना सकती है। हमारे देश में बढ़ती जनसंख्या का एक कारण पुरुषवादी मानसिकता का होना भी है। घर चलाने और वंश की पहचान के तौर पर बेटे के इंतजार में बेटियों की संख्या में वृद्धि कर लम्बा-चौड़ा परिवार बढ़ाया जाता है। बढ़ती जनसंख्या के लिए आम जनता भी जिम्मेदार है। आखिर भूखे आैर नंगों की संख्या खड़ी करने पर क्यों तुले हैं। सड़कों के किनारे, फ्लाईओवरों के नीचे अर्द्धनग्न बच्चों को देखते हुए पता चलता है कि लोग ‘दो बच्चे ही अच्छे’ के सिद्धांत से भी कोसों दूर हैं। बढ़ते खतरों से अनभिज्ञ हैं तो वह अिशक्षित लोग ही हैं। उन्हें बढ़ती जनसंख्या के बढ़ने के हानिकारक पहलुओं से रूबरू कराना बेहद जरूरी है। केन्द्र सरकार को जनसंख्या नियंत्रण के बारे में सोचना होगा।