कमजोर विपक्षी डोर में जनता - Latest News In Hindi, Breaking News In Hindi, ताजा ख़बरें, Daily News In Hindi

लोकसभा चुनाव 2024

पहला चरण - 19 अप्रैल

Days
Hours
Minutes
Seconds

102 सीट

दूसरा चरण - 26 अप्रैल

Days
Hours
Minutes
Seconds

89 सीट

तीसरा चरण - 7 मई

Days
Hours
Minutes
Seconds

94 सीट

चौथा चरण - 13 मई

Days
Hours
Minutes
Seconds

96 सीट

पांचवां चरण - 20 मई

Days
Hours
Minutes
Seconds

49 सीट

छठा चरण - 25 मई

Days
Hours
Minutes
Seconds

57 सीट

सातवां चरण - 1 जून

Days
Hours
Minutes
Seconds

57 सीट

दूसरा चरण - 26 अप्रैल

Days
Hours
Minutes
Seconds

89 सीट

कमजोर विपक्षी डोर में जनता

अतः मजबूत लोकतन्त्र की पहचान मजबूत विपक्ष कहलाता है, किन्तु भारत में 2014 से जो स्थिति बनी हुई है उसे देखते हुए विपक्ष की एकमुश्त ताकत आज गायब सी दिखाई पड़ती है।

लोकतन्त्र विपक्ष की सशक्त आवाज के बिना ‘गूंगा तन्त्र’ कहलाता है। अतः मजबूत लोकतन्त्र की पहचान मजबूत विपक्ष कहलाता है, किन्तु भारत में 2014 से जो स्थिति बनी हुई है उसे देखते हुए विपक्ष की एकमुश्त ताकत आज गायब सी दिखाई पड़ती है और टुकड़ों में बंट कर यह यहां-वहां विलाप करता नजर आता है। इस स्थिति के लिए जाहिर तौर पर विपक्षी दलों को ही जिम्मेदार कहा जा सकता है क्योंकि वर्तमान लोकसभा में भी कांग्रेस जैसी प्रमुख विपक्षी पार्टी की इतनी सीटें नहीं आयी हैं कि उसके संसदीय दल के नेता को संवैधानिक तौर पर विपक्षी दल के नेता का रुतबा दिया जा सके जिससे वह एक कैबिनेट मन्त्री के स्तर की सुविधाएं पाने का हकदार हो परन्तु ऐसा पहली बार भी नहीं हुआ है। 
जब 1977 में विपक्षी दल के नेता को संवैधानिक दर्जा संसद में देने का नियम बना तो 1980 व 1984 के लोकसभा चुनावों में भी किसी भी राजनैतिक दल की सीटें इसकी कुल सदस्य संख्या की दस प्रतिशत अर्थात 54 नहीं आ सकी थीं। 1984 में तो तेलगूदेशम जैसी क्षेत्रीय पार्टी के संसदीय दल के नेता को विपक्षी नेता का दर्जा शिष्टाचारवश दिया गया था लेकिन हमने देखा कि इन चुनावों के बाद भारत की सियासी फिजा किस तरह बदलनी शुरू हुई और सिमटी संख्या में विपक्षी दलों की सीटें बढ़नी शुरू हुईं और सबसे ज्यादा आज की सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी ने ही सिलसिलेवार छलांग लगा कर 2014 तक पूर्ण बहुमत की पार्टी बनने का दर्जा हासिल किया। 
अतः लोकतन्त्र में एक ‘परिवर्तन’ सतत् चलने वाली प्रक्रिया होती है। यह परिवर्तन ही  लोकतन्त्र का ‘स्थायी भाव’ होता है। यह परिवर्तन हमें ताजा-ताजा झारखंड में दिखाई दिया जहां भाजपा को विधानसभा चुनावों में करारी शिकस्त मिली और यह सत्तारूढ़ से विपक्षी पार्टी बन गई। इससे पहले महाराष्ट्र में संख्या गणित ने कमाल दिखाया और वहां भाजपा विरोधी त्रिगुटी सरकार शिवसेना के उद्धव ठाकरे के नेतृत्व में बनी जिसने यह भी सिद्ध किया कि राजनीति में कोई स्थायी मित्र या दुश्मन नहीं होता है। केवल ‘प्रतिस्पर्धी’ भाव होता है और वह भी ‘अस्थायी’ होता है। राजनैतिक दलों के बीच का यह आपसी सम्बन्ध ही सत्ता के नये-नये गणित की पहेली बुझाता रहता है। 
ऐसा ही हरियाणा में भी हुआ जहां भाजपा हार कर भी आपसी संबंधों के अस्थायीपन की वजह से ही पुनः सत्ता पर काबिज हो गई परन्तु झारखंड में गणित ने ही सीधे तौर पर भाजपा को हरा कर इस राज्य में विपक्षी दलों झामुमो-कांग्रेस की सरकार श्री हेमन्त सोरेन के नेतृत्व में गत रविवार को स्थापित की। दूसरी तरफ महाराष्ट्र में अस्थायी सम्बन्धों के भाव के बदलने से सत्तारूढ़ हुई ठाकरे सरकार का सोमवार को विस्तार हुआ जिसमें राष्ट्रवादी कांग्रेस के विवादित नेता अजित पवार को पुनः उपमुख्यमन्त्री पद मिला। 
अतः स्पष्ट हुआ कि विपक्ष अब उस स्थिति में आना चाहता है जहां से उसकी आवाज गोलबन्द होकर आम जनता के बीच जाये। झारखंड की राजधानी रांची में हेमन्त सोरेन के शपथ ग्रहण समारोह में भारत भर के विपक्षी नेता उसी प्रकार ‘हाथबन्द’ हुए जिस प्रकार दो साल पहले कर्नाटक की राजधानी बेंगलुरु में जनता दल (एस) के नेता एच.डी. कुमारस्वामी के मुख्यमन्त्री शपथ ग्रहण समारोह में शामिल हुए थे परन्तु इस बीच मई 2019 में लोकसभा के चुनाव भी हुए और विपक्ष चारों खाने चित्त रहा। 
इसका परिणाम इतना भयावह निकला कि प्रमुख विपक्षी पार्टी कांग्रेस के नेता राहुल गांधी ने पार्टी के अध्यक्ष पद से ही इस्तीफा दे डाला। इससे समूचे विपक्ष जगत में मायूसी का नया माहौल पैदा हुआ मगर दूसरी तरफ जमीन पर इसकी निराली प्रतिक्रिया हुई। हरियाणा, महाराष्ट्र व झारखंड में स्वयं जनता ने ही विपक्षी दलों की भूमिका में आकर सत्तारूढ़ भाजपा को सचेत करना शुरू किया। अतः लोकतन्त्र में नेता हार गये और जनता जीत गई। लोकतन्त्र के मजबूत होने का इससे बड़ा प्रमाण कोई दूसरा नहीं हो सकता। अतः सिद्ध हुआ कि लोकतन्त्र को जब इसके चारों खम्भों से निराशा होने लगती है तो लोग स्वयं खड़े होकर इसकी छत को संभाल लेते हैं। 
भारत की यही सबसे बड़ी ताकत है जिसके बूते पर यह स्वतन्त्रता के बाद से हर क्षेत्र में आगे बढ़ता रहा है और अब भी इसी प्रयास में है। अतः संशोधित नागरिकता कानून को लेकर जो विरोध सड़कों पर हो रहा है उससे निकलने वाली ध्वनि को सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों को ही कान लगा कर सुनने का प्रयास करना चाहिए। इस मामले में  विपक्ष के नेता श्री शरद यादव ने सबसे ज्यादा सटीक टिप्पणी की और कहा कि विपक्षी राजनैतिक दल बेशक अपने बीच से पहले नम्बर का व्यक्ति चुनने के लिए पूरी कसरत कर सकते हैं परन्तु आम जनता यह काम बहुत आसानी के साथ कर देती है और नेताओं को खबर तक नहीं होती। इसकी संभवतः वजह यह है कि जनता जानती है कि किस नेता के गले से उसकी आवाज ‘प्रतिध्वनि’ बन कर सहजता के साथ निकलती है। 
यह शरद यादव का विश्लेषण नहीं है बल्कि मेरा है और मेरा मानना है कि लोकतन्त्र में जनता नेता की बाट नहीं जोहती है बल्कि नेता जनता की बाट जोहते हैं। इसका गूढ़ अर्थ यह भी है कि कांग्रेस पार्टी के भरोसे देश की जनता बैठी नहीं रह सकती है और न ही सुश्री मायावती या मुलायम सिंह या उनके पुत्र अखिलेश यादव के भरोसे यदि विपक्षी एकता के प्रदर्शन से ये नेता बचना चाहते हैं तो बेफिक्र होकर बच सकते हैं मगर जनता से ये कैसे बच सकते हैं जो बदलते वक्त के मुहाने पर वोटों के गणित को नहीं बल्कि वोट की ताकत का अंदाजा करवा रही है। 
जो लोग सोचते हैं कि नागरिकता कानून या एनआरसी हिन्दू-मुसलमान के पचड़े में फंस कर दम तोड़ देगा वे ऐतिहासिक गलती कर रहे हैं क्योंकि पाकिस्तान के वजूद में आने से सबसे ज्यादा नुकसान अगर किसी का हुआ है तो वह भारतीय मुसलमानों का ही हुआ है। पाकिस्तान बेशक कानूनी या संवैधानिक तौर पर एक देश हो मगर 1947 में भारत के अधिसंख्य मुसलमानों ने ही इसे नाजायज मुल्क माना था और देवबन्द की ‘जमीयत उल-उलेमा-हिन्द’ जैसी संस्था ने इसका पुरजोर विरोध किया था। अंग्रेजी के ‘इल-लीगल’ और ‘इल-लेजिटीमेट’ लफ्जों का मतलब एक जैसा नहीं होता। ठीक ऐसा ही मामला संशोधित नागरिकता कानून के बारे में भी भारत के विधिवेत्ता मानते हैं। 
यह नया कानून पूरी तरह संवैधानिक या ‘कानूनन पूरा’ है मगर नाजायज है क्योंकि इसमें भारतीयता पाने के हक पर मजहब का मुलम्मा चढ़ा दिया गया है जो कि भारत की संस्कृति शरणागत की रक्षा के सिद्धान्त के खिलाफ भी है। मुगलकाल में  रणथम्भौर रियासत के शासक राव हम्मीर ने अपनी सल्तनत एक मुगल सरदार के अपने शरणागत होने पर ही दांव पर लगा दी थी और उसकी इस जिद को ही इतिहास में ‘हम्मीर हठ’ का विशेषण दिया गया मगर दूसरी तरफ अपने मुस्लिम देशों में सताये गये हिन्दू नागरिकों का भी भारत में शरण लेने का पक्का अधिकार है। विपक्ष इस मोर्चे पर भी गफलत में आ रहा है और हकीकत को जनता के सामने रखने से डर रहा है जबकि हकीकत यह है कि  भारत के गांवों में आज भी यह कहावत लयबद्ध तरीके से जोगी गाते फिरते हैंः
जो शरणागत को तजै नहीं वो वीर बहादुर सच्चा है 
जीवन में स्वारथ से जीना तो जानिये नहीं अच्छा है।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

4 − four =

पंजाब केसरी एक हिंदी भाषा का समाचार पत्र है जो भारत में पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, हिमाचल प्रदेश और दिल्ली के कई केंद्रों से प्रकाशित होता है।