भारत के पंजाब राज्य की सबसे बड़ी खूबी यह मानी जाती है कि जब भी देश पर कोई मुसीबत आती है तो यह ‘संकट मोचक’ के रूप में स्वयं उठ खड़े होकर रोशनी की किरण बिखेरने लगता है। वास्तव में इसके लोग जीवट वाले ही नहीं होते बल्कि सकारात्मक कल्पनाशीलता के जीते-जागते प्रमाण भी होते हैं।
आज जब कोरोना वायरस के प्रकोप से उपजे लाॅकडाऊन ने समूची अर्थव्यवस्था को चौपट कर रखा है और शहरों से उल्टा पलायन करके मजदूर व कामगार गांवों में लौट रहे हैं तो पंजाब के परिश्रमी किसानों ने देश की दशा और दिशा बदलने का अभूतपूर्व काम कर डाला है, राज्य में धान की बुवाई करने के लिए उन्होंने बिहार व उत्तर प्रदेश से खेतीहर श्रमिकों को अपने खर्चे पर बुलाना शुरू कर दिया है।
बरसात के मौसम में धान की बुवाई का काम पूरा किया जाता है और इस काम में बिहारी श्रमिकों को महारथ हासिल है। उनके हाथ में वह हुनर होता है कि वे धान की बुवाई और रोपाई का काम न केवल फुर्ती से करते हैं बल्कि इस फनकारी के साथ करते हैं कि फसल ज्यादा से ज्यादा हो। पिछले दिनों पंजाब से मजदूर अपने राज्यों बिहार व लगते पूर्वी उत्तर प्रदेश में पलायन कर गये थे, पंजाब की खेती वास्तव में इन्हीं मजदूरों के कन्धों पर फली-फूली है।
दशकों से बिहारी मजदूर पंजाब आते हैं और अपेक्षाकृत अच्छी मजदूरी पाकर अपने राज्यों में बसे परिवारों का भरण-पोषण करते हैं मगर लाॅकडाऊन ने इन मजदूरों की कमर तोड़ कर रख दी और वे अपने मूल स्थानों में लौटने के लिए मजबूर हो गये, किन्तु खरीफ फसल की बुवाई का समय आते देख कर पंजाब के भूमिधर किसानों को इनकी याद आयी और उन्होंने अपने जिलाधिकारी से सम्पर्क साध कर बिहार के सम्बन्धित जिले के कलेक्टर की मार्फत इन मजदूरों को वापस पंजाब बुलाने में सफलता हासिल की।
उन्हें बुलाने के लिए बसें भेजी गईं और बस से उतरने पर मजदूरों का स्वागत मिठाई खिला कर किया गया। यह इस तथ्य का प्रमाण भी है कि बाजार मूलक अर्थव्यवस्था ने जमींदार-श्रमिक सम्बन्धों को बदला है और इस बात काे भी पुख्ता किया कि कृषि क्षेत्र में श्रम मूलक सेवाएं देने में बिहार सबसे आगे है। पंजाब के जमींदार किसानों ने यह तो सिद्ध कर दिया है कि महान निबन्धकार स्वर्ण सरदार पूर्ण सिंह की ‘श्रम की महत्ता’ लेखमाला जमीनी हकीकत की ही कहानी है जो कहती है कि ‘कारखाने’ मजदूरों के बिना सिर्फ ‘इमारतें’ हैं।
मशीनें कामगारों के बिना सिर्फ ‘लोहा’ हैं। इसी प्रकार पंजाब में बिहारी श्रमिकों के बिना ‘खेत’ सिर्फ ‘जमीन’ है परन्तु पंजाब में यह स्थिति लाने में बड़े-बड़े दूरदर्शी नेताओं का हाथ रहा है जिनमें स्व. सरदार प्रताप सिंह कैरों का नाम सबसे आगे लिखा जायेगा जिन्होंने 1963 में ही पंजाब को भारत का यूरोप बना दिया था। स्व. कैरों ने अपने मुख्यमन्त्री काल में पंजाब के हर जिले में आईटीआई और आधुनिक अस्पताल स्थापित करने के साथ ही हर गांव को पक्की सड़कों और बिजली से जोड़ दिया था और खेती में ट्यूबवैल से लेकर ट्रैक्टर के उपयोग को सामान्य कृषि गतिवििध बना डाला था।
कैरों साहब अमेरिका में अर्थ शास्त्र का अध्ययन करने गये थे मगर पढ़ाई पूरी करने के बाद उन्होंने अमेरिका के कृषि क्षेत्र का एक वर्ष से ज्यादा समय तक अध्ययन किया और भारत के स्वतन्त्रता आन्दोलन में भाग लेते हुए आजादी मिलने के बाद जब वह पंजाब के मुख्यमन्त्री बने तो उन्होंने पंजाब में कृषि क्रान्ति की नींव रख दी। 1965 के बाद से ही पंजाब की तरफ बिहारी मजदूर खिंचने शुरू हुए।
पंजाब में खरीफ की फसल के लिए लगभग 28 लाख एकड़ भूमि में धान रोपा जाना है जिसके लिए कम से कम पांच लाख मजदूरों की जरूरत होगी। इनमें पंजाब व आसपास के मजदूर एक चौथाई से भी कम ही हो पाते हैं जिससे पता चल सकता है कि पंजाब राज्य में खुशहाली का स्तर अन्य राज्यों के मुकाबले क्यों ज्यादा है। इस खुशहाली में कई दशकों से बिहारी मजदूरों की ही नहीं बल्कि औद्योगिक क्षेत्र में बिहार व उत्तर प्रदेश के कामगारों की सहभागिता भी सुनिश्चित हो चुकी है। यह भारत की विविधता की ताकत का नमूना है जो आर्थिक उत्थान में निर्णायक भूमिका निभाता है।
अलग-अलग भाषा-भाषी लोग किस तरह आर्थिक विकास में सहभागिता करते हैं पंजाब उसका शानदार उदाहरण है परन्तु लाॅकडाऊन से निढाल कोराना संक्रमण के विकराल काल में बिहार से मजदूरों को वापस बुलाने का साहस भी पंजाब के किसान ही दिखा सकते थे। बेशक तर्क दिया जा सकता है कि इसमें भूमिहर किसानों का अपना भी लाभ है क्योंकि स्थानीय मजदूर दुगनी मजदूरी मांग रहे हैं मगर मूल सवाल उन सम्बन्धों का है जो पंजाबी जमींदार और बिहारी श्रमिक के बीच बन चुके हैं, ये सम्बन्ध आर्थिक हितों से ऊपर के हैं जिसका सम्मान दोनों ही पक्ष करते प्रतीत होते हैं।
मजदूरों की मुसीबत का संज्ञान यदि किसानों ने न लिया होता तो वे अपने खर्चे पर उन्हें पंजाब न बुलाते और अपनी खुद्दारी का ख्याल यदि बिहारी मजदूरों को न होता को वे पंजाब इतनी जल्दी न लौटते। वैसे पंजाबियों के बारे में बकौल महान पत्रकार स्व. खुशवन्त सिंह के -बेशक यह कहा जाता हो कि जब पंजाबी का दिमाग (माइंड) चलना बन्द हो जाता है तो वह हाथ (माइट) अर्थात ताकत चलाना शुरू कर देता है लेकिन पंजाब की महान संस्कृति कहती है कि
सूरा सो पहचानिये जो लरै दीन के हेत
पुर्जा-पुर्जा कट मरै कबहुं न छाड़े खेत
इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि महान सिख गुरुओं ने सबसे पहले अन्यायी और अत्याचारी का मुकाबला करने की शिक्षा दी और इसे पंजाब की संस्कृति की परमाणु शक्ति बना दिया। सिखों के दसवें गुरु गोविन्द सिंह जी महाराज ने जिन गुरु ग्रन्थ साहिब को गुरु मानने का फरमान जारी किया उन्होंने इसमें कबीर, रैदास व नामदेव जैसे सन्तों की वाणी को मुक्त भाव से समाहित किया जो सभी पिछड़ी या दलित जाति से ताल्लुक रखते थे। लगभग सवा तीन सौ साल पहले यह एक क्रान्ति थी जो आज 21वीं सदी के भारत में भी कुछ लोग करने की हिम्मत नहीं रखते हैं। हालांकि महात्मा गांधी ने पिछली सदी में ही भारत का संविधान एक दलित डा. अम्बेडकर से लिखवा कर स्वयं को गुरु गोविन्द सिंह जी का अनुयायी ही सिद्ध किया था।
–आदित्य नारायण चोपड़ा