मध्य प्रदेश के श्योपुर जिले में स्थित कूनो नैशनल पार्क में लगभग दो माह में 6 चीतों की मौत हो चुकी है। इनमें तीन शावक भी शामिल हैं। 70 साल के लम्बे अंतराल के बाद कूनो में जन्मे 4 शावकों में से तीन की मौत काफी दुखद है। कूनो में विदेश से लाए गए 20 चीतों में से केवल 17 और यहां जन्म लिए चार शावकों में से केवल एक शावक ही जीवित बचा है। भारत में चीतों को बसाने के लिए मोदी सरकार महत्वाकांक्षी योजना चला रही है। जब नामीबिया और दक्षिण अफ्रीका से चीते लाए गए थे तो उनका भव्य स्वागत किया गया था। वन्य प्राणियों और मानव तथा प्रकृति का आपस में गहरा संबंध है। ज्यों-ज्यों सभ्यता का विकास होता गया, मनुष्य ने जंगल काट-काट कर कंकरीट की इमारतें खड़ी कर दीं, तब से ही पर्यावरण का संतुलन बिगड़ गया। वन्य प्राणियों के लिए सुरक्षित स्थल बचे ही नहीं। तभी वन्य प्राणी आजकल शहरों की सड़कों पर भी दिखाई देने लगे हैं। मनुष्य ने वन्य प्राणियों के अस्तित्व को ही खतरे में डाल दिया है।
इसके बाद सरकार ने विदेश से चीते लाने की कवायद शुरू की थी। एक के बाद एक चीतों के मारे जाने से पूरे चीते प्रोजैक्ट पर ही प्रश्नचिन्ह लग गए हैं। हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने भी चीतों की मौत पर चिंता जताते हुए तीखे सवाल किए हैं। हालांकि मैडिकल विशेषज्ञों का कहना है कि भीषण गर्मी की वजह से इन चीतों की मौत हुई है। क्योंकि श्योपुर में कई दिन से पारा 47 डिग्री तक पहुंच चुका था। लेकिन विशेषज्ञ कुछ और ही कह रहे हैं। सवाल उठाया जा रहा है कि क्या सरकार ने चीतों को लाने में जल्दबाजी कर दी? क्या उन्हें लाने से पहले उनके लिए अनुकूल वातावरण नहीं बनाया गया? क्या उनकी देखरेख में लापरवाही बरती जा रही है? विशेषज्ञ कह रहे हैं कि कूनो नैशनल पार्क इतनी संख्या में चीतों को रखने के लिए पर्याप्त नहीं है।
चीता इकलौता ऐसा बड़ा नरभक्षी प्राणी बताया जाता है, जो भारत से पूरी तरह विलुप्त हो गया था। इससे पहले सैकड़ों वर्षों तक चीते भारत में शाही शानोशौकत का हिस्सा रहे थे। चीतों को पालतू बनाना आसान होता है। ये टाइगर की तरह खतरनाक भी नहीं होते। इसलिए राजे-रजवाड़े अपनी शान बखारने और शिकार के िलए इनका इस्तेमाल किया करते थे। भारत में चीतों के शिकार का आखिरी रिकार्ड 1948 में मध्य प्रदेश में दर्ज हुआ था। माना जाता है कि कोरिया रियासत के महाराजा रामानुज प्रताप सिंह देव ने जिन तीन चीतों का शिकार िकया था, वो आखिरी थे। उसके बाद साल 1952 में भारत सरकार ने चीतों को विलुप्त घोषित कर दिया था। इसकी मुख्य वजह अत्यधिक शिकार और उनके रिहाइश में कमी बताई जाती है।
चीतों को धरती पर सबसे तेज रफ्तार जानवर माना जाता है। महज 3 सैकंड के अन्दर ये जीरो से 100 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार पकड़ सकते हैं। चीते विशाल इलाके में रहना पसंद करते हैं। एक चीते की औसत रेंज लगभग 100 किलोमीटर होती है। उन्हें बाड़े से छोड़ने पर वे दूर तक निकल जाते हैं। यही वजह है कि मार्च में जब नामीबिया से लाए गए दो चीते आशा और पवन को जंगल में छोड़ा गया था, तब वो नैशनल पार्क से बाहर चले गए थे। बाद में आशा को कूनो के विजयपुर रेंज से पकड़ा गया था। पवन यूपी बार्डर पर शिवपुरी और झांसी के बीच मिला था।
विशेषज्ञों ने चेतावनी दी है कि अगर ऐसा ही चलता रहा तो और चीते मारे जाने की आशंका है। चीते निश्चित रूप से अपने क्षेत्र स्थापित करने का प्रयास करते हैं और अपने क्षेत्रों एवं मादा चीतों के लिए एक-दूसरे से लड़ते हैं। इस लड़ाई में चीते मारे जाते हैं। नर चीते मादा से संबंध बनाते हैं। हिंसक हो जाते हैं जिससे जैसा कि मादा चीता दक्षा की मौत हो चुकी है। विशेषज्ञों का यह भी कहना है कि अभी तक के इतिहास में बिना बाड़ वाले किसी भी अभयारण्य में चीतों को पुनः बसाए जाने की परियोजना सफल नहीं हुई। बेहतर होगा कि भारत के सभी अभयारण्य के चारों ओर बाड़ लगाई जाए और सिंक रिजर्व भरने के लिए सोर्स रिजर्व बनाए जाएं। सोर्स रिजर्व ऐसे स्थल होते हैं जो किसी विशेष प्रजाति की संख्या वृद्धि और प्रजनन के लिए अनुकूल पर्यावरणीय परिस्थितियां उपलब्ध कराते हैं। चीतों को रखने के लिए तापमान को भी नियंत्रण में रखना जरूरी है। बेहतर यही होगा कि चीतों को किसी और जगह शिफ्ट किया जाए। चीतों की मौत के लिए प्रबंधन में कमी और तालमेल का अभाव जिम्मेदार है।
दरअसल चीतों को जहां से लाया गया है वहां के और भारत के क्लाईमेट में बहुत अंतर है। चीतों को भारत के माहौल में ढलने में कई वर्ष लग सकते हैं। चीता प्रोजैक्ट की सफलता के लिए सरकार को अपने एक्शन प्लान पर नए सिरे से विचार करना होगा और चीतों के अनुकूल परिस्थितियां स्थापित करनी होंगी।
आदित्य नारायण चोपड़ा