“किसी भी देश की अर्थव्यवस्था का सबसे बड़ा पैमाना यह होता है कि उस देश में खेती में कितने प्रतिशत लोग लगे होते हैं। वह मुल्क मालदार होता है जिसमें खेती में कम लोग लगे होंगे और अन्य उद्योग-धन्धों में ज्यादा लोगों को ज्यादा रोजगार मिलेगा।’’ यह मैं नहीं कह रहा हूं बल्कि भारत में अभी तक के हुए सबसे बड़े किसान नेता स्व. चौधरी चरण सिंह कहा करते थे। भारत में आज भी 58 प्रतिशत लोग खेती पर ही निर्भर हैं और जब 1984 के लोकसभा चुनावों के दौरान चौधरी साहब लोगों को यह बात अपनी जनसभाओं में समझा रहे थे तो तब लगभग 66 प्रतिशत लोग खेती में लगे हुए थे।
1980 के शुरू में प्रधानमन्त्री पद से अलग होने पर उन्होंने इसी विषय को लेकर एक पुस्तक लिखी ‘नाइटमेयर आफ इंडियन इकोनामी’। इस पुस्तक में चौधरी साहब ने भारत की अर्थव्यवस्था की विवेचना केवल देशी सिद्धान्तों के आधार पर ही नहीं कि बल्कि पश्चिम के विद्वान अर्थशास्त्रियों के उद्गारों की भी समीक्षा की और नतीजा निकाला कि कृषि प्रधान देश की अर्थव्यवस्था में शहरों के पूंजीकरण से बदलाव नहीं आयेगा बल्कि पूंजी के ग्रामोन्मुखी होने से ही बदलाव आयेगा और सहायक उद्योगों के विस्तार से ही बेरोजगारी का सामना करते हुए अधिक से अधिक जनसंख्या की खेती पर निर्भरता समाप्त की जा सकेगी।
इस मामले में वह प्रथम प्रधानमन्त्री पं. जवाहर लाल नेहरू की उद्योग नीति के कटु आलोचक भी थे और मानते थे कि महात्मा गांधी के कुटीर उद्योग दर्शन से ही भारत के गांवों को समृद्ध बनाया जा सकता है और कृषि मूलक लघु उद्योगों के जरिये किसानों की आय में बढ़ोत्तरी करके उन्हें समाज के अन्य संभ्रान्त वर्गों के समकक्ष बेहतर शिक्षा व स्वास्थ्य सेवाएं पाने में सक्षम बनाया जा सकता है मगर इसके लिए सबसे पहले कृषि पैदावार बढ़ाने हेतु किसानों को आधुनिकतम खेती तकनीकों से लैस किया जाना जरूरी होगा। पैदावार बढ़ाये बिना कृषि पर निर्भरता कम नहीं की जा सकती। चौधरी साहब ने 1977 में बनी जनता पार्टी की सरकार में वित्त मन्त्री के तौर पर भी काम किया और वर्ष 1979-80 का संसद में बजट भी पेश किया।
चौधरी चरण सिंह द्वारा रखे गये इस बजट की आलोचना इस वजह से हुई थी कि उन्होंनेे गैर कृषि क्षेत्र के बजाय कृषि क्षेत्र में उत्पादन बढ़ाने और इसमें विकास की गतिविधियों को बढ़ावा देने के लिए विशेष जोर दिया था और बजट के वित्तीय प्रबन्धन में यह क्षेत्र सर्वोच्च स्थान पर था। उदाहरण के लिए उन्होंने भारत के कुटीर उद्योग व लघु उद्योगों में बनी माचिस से लेकर बिस्कुट, टाफी आदि पर नाम का शुल्क रखा था और इन्हीं वस्तुओं को बनाने वाली बड़ी कम्पनियों पर भारी कर लगाया था। जाहिर है चौधरी साहब ने उस समय की आर्थिक जरूरतों को ध्यान में रखते हुए यह नीति अपनाई थी परन्तु वह दौर ‘आर्थिक संरक्षणवाद’ का दौर था जिसमें घरेलू स्तर पर मांग की आपूर्ति के औजारों के माध्यम से सरकारें अपने खजाने में राजस्व की उगाही इस प्रकार करती थीं कि कमजोर वर्गों की बाजार मांग को सस्ते से सस्ते उत्पादों से पूरा किया जा सके।
उस समय तक उपभोक्ता संरक्षण हेतु सरकारों का बाजार में हस्तक्षेप सीधा, सरल और जरूरी रास्ता समझा जाता था परन्तु 1991 से भारत की आर्थिक व्यवस्था में जो मूलभूत परिवर्तन आया उसने समूची आर्थिक प्रणाली को ही न केवल बदला बल्कि सामाजिक-आर्थिक समीकरणों को भी बदलने में निर्णायक भूमिका निभाई जिसमें बाजार का महत्व केन्द्र मंे आता चला गया जिसके असर से ‘उपभोक्तावाद’ इस व्यवस्था का नया विमर्श बन गया। बाजार इन उपभोक्ताओं की मांग की आपूर्ति करने का सत्वाधिकारी बन गया जिसमें सरकार की भूमिका सुविधाकारक (फैसिलिटेटर) की बनती चली गई, लेकिन इस क्रम में कहीं न कहीं कृषि क्षेत्र पीछे छूट गया और इसमें निवेश नहीं बढ़ सका परन्तु बाजार मूलक अर्थव्यवस्था सरकार को उस मूलभूत जिम्मेदारी से मुक्त नहीं करती है जो प्रजातन्त्र में नागरिकों के हितों के संरक्षण से बन्धी होती है।
यही वजह है कि ताजा आर्थिक सर्वेक्षण में नये युवा आर्थिक सलाहकार श्री कृष्णस्वामी सुब्रह्मण्यन ने निचले स्तर के न्यायिक सुधारों पर जोर दिया है। पूंजी मूलक विकास पद्धति का सीधा सम्बन्ध बाजार के विकास से ही जुड़ा होता है जिसका लक्ष्य सकल उत्पाद वृद्धि दर में बढ़ोत्तरी करना इस प्रकार होता है कि रोजगार और सकल उत्पाद विकास दर में वृद्धि के साथ कृषि निर्भरता कम होती चली जाये। यह कार्य निजी क्षेत्र में पूंजी निवेश को बढ़ाये बिना नहीं हो सकता जिसके लिए मजबूत बैंकिंग तन्त्र का होना बहुत जरूरी होता है। बैंकिंग व वित्तीय तन्त्र बाजार मूलक अर्थव्यवस्था की रीढ़ होता है जिसके स्वस्थ हुए बिना विकास की कल्पना नहीं की जा सकती और इसमें रक्त का संचार ‘घरेलू बचत’ की दर करती है।
भारत में यह दर गिरकर 36 से 20 प्रतिशत के करीब आ गई है जिसे बढ़ाने की चिन्ता आर्थिक सर्वेक्षण में प्रकट की गई है परन्तु निचले स्तर पर न्यायिक सुधारों का आर्थिक विकास से क्या लेना-देना हो सकता है? इस पर साधारण पाठक चकरा सकते हैं। ये सुधार इसलिए जरूरी हैं कि किसी भी विकास योजना को अदालतों और कचहरियों के जरिये ही वर्षों तक लटकाये रखने का ऐसा उद्योग भारत में चल रहा है कि इसकी वजह से किसी भी परियोजना का लागत मूल्य बड़ी आसानी के साथ बढ़ता चला जाता है। बेशक जहां नागरिकों के मूलभूत अधिकारों का सवाल है वहां किसी प्रकार का समझौता नहीं किया जा सकता किन्तु केवल स्वार्थ साधने के लिए परियोजना परिमार्ग पर रातोंरात मन्दिर या मजार अथवा कोई अन्य धर्म स्थान खड़ा करना कुछ तत्वों का व्यवसाय बन चुका है, लेकिन यह भी कैसा संयोग है कि निचले स्तर पर अदालती सुधारों की तरफ भी आजाद भारत में सबसे पहले ध्यान चौधरी चरण सिंह ने ही तब दिया था जब 1969 में उन्होंने अपनी अलग पार्टी ‘भारतीय क्रांति दल’ बनाई थी।
अपनी पार्टी के पहले घोषणापत्र में ही उन्होंने इन सुधारों के लिए अपनी प्रतिबद्धता जताई थी। वस्तुतः इनका सम्बन्ध ग्रामीण अर्थव्यवस्था के साथ बहुत गहरा है। गांवों में जिस तरह मुकद्दमेबाजी होती है उसमें सबसे ज्यादा आर्थिक हानि किसानों और उनसे जुड़े लोगों की ही होती है। इसी वजह से गांवों में आज भी कहावत है कि दीवानी (सिविल मुकद्दमा) ‘दीवाना’ बना देती है। आर्थिक सर्वेक्षण में 2025 तक भारत की अर्थव्यवस्था का सकल उत्पाद मूल्य आकार ‘पांच हजार अरब डालर’ (पांच ट्रिलियन डालर) करने का लक्ष्य रखा गया है जिसके लिए प्रतिवर्ष 8 प्रतिशत की दर से सकल विकास वृद्धि करनी पड़ेगी। यह लक्ष्य कैसे पूरा होगा इसका पता आगामी वर्षों में ही चलेगा मगर फिलहाल तो यह दर सात से भी नीचे है।