फ्रांस से खरीदे जाने वाले लड़ाकू विमान राफेल की खरीदारी के मुद्दे पर सर्वोच्च न्यायालय ने मोदी सरकार को क्लीन चिट देते हुए कहा है कि इस सौदे की जांच कराने की उसकी राय में कोई जरूरत नहीं है। इस रक्षा सामग्री के सौदे को लेकर कांग्रेस अध्यक्ष श्री राहुल गांधी समेत उनकी पार्टी के वरिष्ठ नेता आरोप लगाते रहे हैं कि इसमें भ्रष्टाचार हुआ है। सर्वोच्च न्यायालय ने इस बाबत एक नागरिक की दायर याचिका पर फैसला देते हुए कहा है कि उसने खरीद सम्बन्धी प्रक्रिया में किसी प्रकार का घपला नहीं देखा और रक्षा खरीद नियमों के तहत भारत में निजी औद्योगिक सहयोगी के चयन को राफेल विमानों का उत्पादन करने वाली कम्पनी दासोल्ट का विशेषाधिकार माना जबकि विमानों की कीमत तय करने के मुद्दे को उसने लेखा महानियन्त्रक की रिपोर्ट पर छोड़ दिया है। अतः सत्ताधारी भाजपा नेताओं ने इस फैसले को हाथों-हाथ लेते हुए श्री राहुल गांधी से माफी मांगने की मांग कर दी और संसद में वित्त मन्त्री श्री अरुण जेटली ने कांग्रेस व विपक्ष को चुनौती दे दी कि वह इस मुद्दे पर जब चाहे बहस कर ले।
प्रथम दृष्ट्या राफेल खरीद के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने सत्तारूढ़ सरकार के पाक-साफ होने का प्रमाण दे दिया है लेकिन कांग्रेस पार्टी हथियार डालने के लिए तैयार नहीं है। साधारणतः जब सर्वोच्च न्यायालय किसी भी मामले में फैसला दे देता है तो उसे अन्तिम समझा जाता है परन्तु आजाद भारत में आधी सदी से भी ज्यादा सत्ता में रही कांग्रेस पार्टी यह मानने को तैयर नहीं है और उसका तर्क है कि राफेल के मुद्दे पर वह न्यायालय की शरण में नहीं गई थी क्योंकि यह मामला न्यायालय की उस संवैधानिक परिधि में नहीं आता है जिसके तहत वह किसी रक्षा सम्बन्धी सौदे की पेचीदगियों का कानूनी नुक्ता-ए-नजर से मुआयना कर सके। इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने पिछली सुनवाई के समय स्वयं कहा था कि उसे विमान के मूल्य से नहीं बल्कि खरीद प्रक्रिया से लेना-देना है कि इसका पालन किया गया है अथवा नहीं।
न्यायमूर्ति रंजन गोगोई के अध्यक्षता वाली तीन सदस्यीय पीठ ने इसमें कोई खामी नहीं पाई। इस मुकदमें की सुनवाई के दौरान न्यायालय में वायुसेना के वरिष्ठ अधिकारी भी तलब किये गये थे और उनसे विमानों की गुणवत्ता के बारे में कुछ सवाल भी पूछे गये थे। राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए इन विमानों का वायुसेना के पास होना बेहतर बताया गया था। मगर कांग्रेस के नेता श्री आनन्द शर्मा का कहना है कि वायुसेना को कुल 126 विमानों की जरूरत थी जिसके लिए वैश्विक निविदाएं दी गई थीं और राफेल का चुनाव किया गया था और भारतीय औद्योगिक सहयोगी के तौर पर सार्वजनिक क्षेत्र की कम्पनी हिन्दुस्तान एयरोनाटिक्स लि. का चयन भी कर लिया गया था जिससे भारत की इस कम्पनी को राफेल विमानों के उत्पादन की टैक्नोलोजी का हस्तांतरण होता और भारत भविष्य में स्वयं ही उच्च आयुध क्षमता के लड़ाकू विमान बनाने में सक्षम होता मगर अचानक ही फ्रांस से केवल 36 लड़ाकू विमान खरीदने का सौदा कर लिया गया और भारत में एेसी निजी सहयोगी कम्पनी का चयन कर लिया गया जिसे विमान तो क्या खिलौने नुमा हवाई जहाज बनाने का भी अनुभव नहीं था और टैक्नोलोजी हस्तांतरण की शर्त को हटा दिया गया किन्तु सर्वोच्च न्यायालय के फैसले में कहा गया है कि भारत में अपना सहयोगी चुनने का अधिकार विदेशी कम्पनी दासोल्ट को था इसमें भारत की सरकार की कोई भूमिका नहीं थी जबकि टैक्नोलोजी हस्तांतरण के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने कुछ नहीं कहा है।
विमानों के मूल्य के बारे में भी सत्ता और विपक्ष की तलवारें फैसला आने के बावजूद एक-दूसरे पर जम कर चल रही हैं और कांग्रेस मांग कर रही है कि पूरे मामले की संयुक्त संसदीय समिति से जांच कराई जानी चाहिए क्योंकि उसी से पता चल सकेगा कि 126 की जगह केवल 36 विमानों की अचानक खरीद के लिए पहले से निर्धारित नियमों में पूर्ववर्ती समय से लागू होने वाले संशोधन किस प्रकार किये गये। श्री राहुल गांधी ने विमानों के खरीद मूल्य के बारे में लेखा महानियन्त्रक की रिपोर्ट का उच्चतम न्यायालय में हवाला दिये जाने पर जिस तरह आक्रामक रुख अपनाया और पूछा कि जब लेखा महानियन्त्रक ने संसद की लोकलेखा समिति को अभी तक राफेल विमानों के मूल्य के बारे मंे नहीं बताया है तो उसका हवाला सर्वोच्च न्यायालय में किस प्रकार दे दिया गया क्योंकि रिपोर्ट सबसे पहले लोकलेखा समिति के पास आती है और वह उसे संसद में रखती है जिसके बाद वह सार्वजनिक होती है।
लोकलेखा समिति के अध्यक्ष कांग्रेस के लोकसभा में नेता श्री मल्लिकार्जुन खड़गे हैं और उन्होंने स्पष्ट कहा कि लेखा महानियन्त्रक संविधानतः केवल लेखा समिति के समक्ष ही अपनी जांच का खुलासा कर सकते हैं। जाहिर तौर पर सर्वोच्च न्यायालय मंे किसी भी सरकार की नीतियों को चुनौती नहीं दी जा सकती। रक्षा खरीद नीति संवैधानिक समीक्षा के दायरे में नहीं आ सकती और किसी भी आयुध सामग्री के मूल्य निर्धारण का फैसला भी न्यायालय नहीं कर सकता क्योंकि यह कार्य विशेषज्ञों का होता है जिसकी जांच का कार्य केवल लेखा महानियन्त्रक ही करते हैं। इसी वजह से 2004 से 2006 तक रक्षामन्त्री रहते हुए पूर्व राष्ट्रपति श्री प्रणव मुखर्जी ने नई ‘आफसेट रक्षा खरीद नीति’ देश को देते हुए विदेशी आयुध सामग्री के टैक्नोलोजी हस्तांतरण के नियम को आवश्यक बना दिया था और खुली निविदाएं रक्षा मन्त्रालय की वेबसाइट पर ही जारी करने का नियम बना दिया था।
मगर इस नीति का अनुसरण उनके बाद बने रक्षामन्त्री श्री ए.के. एंटनी ने इस तरह किया कि वह कोई रक्षा खरीद ही नहीं कर पाये क्योंकि उन्होंने जिस सौदे को भी अन्तिम रूप देना चाहा उसी पर उस समय विपक्ष में बैठी भाजपा के नेताओं ने भ्रष्टाचार होने की आशंका जाहिर कर दी जिसका सबसे बड़ा उदाहरण ‘अगस्ता वेस्ट लैंड हैलीकाफ्टर’ खरीद सौदा था। इटली से खरीदे जाने वाले इन 12 हैलीकाप्टरों के सौदों को उन्होंने आरोपों के चलते ही रद्द कर दिया था और सीबीआई की जांच बैठा दी थी। तब आरोप यह लगा था कि इन हैलीकाप्टरों की कीमत तीन गुनी कर दी गई थी और इस सौदे मंे बिचौलियों की भूमिका थी। मगर इटली के सर्वोच्च न्यायालय ने ही कह दिया कि भारत से इन हैलीकाप्टरों का सौदा करते समय किसी प्रकार का भ्रष्टाचार नहीं किया गया।
अब भारत का सर्वोच्च न्यायालय कह रहा है कि उसकी नजर में 36 विमानों की खरीद में नियमों का पालन किया गया और मूल्य के बारे में लेखा महानियन्त्रक ने राय व्यक्त कर दी। परन्तु नया पेंच खड़ा हो गया कि महानियन्त्रक ने अभी तक अपनी रिपोर्ट लोक लेखा समिति को दी ही नहीं तो वह सर्वोच्च न्यायालय के पास कैसे पहुंच गई? कांग्रेस भी कह रही है कि विमान की कीमत तीन गुनी करके खरीद की गई। इसलिए बहुत साफ है कि आगामी लोकसभा चुनावों तक राफेल टेस्ट में सत्तारूढ़ पार्टी जहां अपने ‘पास’ होने के प्रमाणपत्र को जनता को दिखाती रहेगी वहीं विपक्षी कांग्रेस पार्टी उसके ‘फेल’ होने के सबूतों को उछालती रहेगी मगर इतना निश्चित है कि अब इस मुद्दे की फजीहत हर चौराहे पर होगी।