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सरयू किनारे प्यासे रघुवर!

इनमें से जद (यू) व लोक जनशक्ति पार्टी का खाता भी नहीं खुला है जबकि विकास मोर्चा व स्टूडेंट्स यूनियन को मिलाकर सात सीटें मिली हैं।

झारखंड विधानसभा के पांच खंडों में हुए चुनाव का नतीजा एकमुश्त रूप से गठबन्धन के पूर्ण बहुमत के रूप में आया है जिससे राज्य में कांग्रेस, झारखंड मुक्ति मोर्चा व राष्ट्रीय जनता दल की सांझा सरकार बनने का रास्ता बन गया है। चुनाव पूर्व हुए इस गठबन्धन ने सामूहिक रूप से एक इकाई के रूप में चुनाव लड़ा था जिसके मुकाबले पर सत्ताधारी भाजपा अकेली थी तथा क्षेत्रीय पार्टियों आल झारखंड स्टूडेंट्स यूनियन व पूर्व मुख्यमन्त्री श्री बाबू लाल मरांडी की झारखंड विकास मोर्चा  के अलावा जनता दल (यू) व लोकजनशक्ति पार्टी ने स्वतन्त्र रूप से अपने उम्मीदवार उतारे थे। 
इनमें से जद (यू) व लोक जनशक्ति पार्टी का खाता भी नहीं खुला है जबकि विकास मोर्चा व स्टूडेंट्स यूनियन को मिलाकर सात सीटें मिली हैं। इससे स्पष्ट है कि  राज्य की रघुवर दास भाजपा सरकार के खिलाफ पैदा हुए रोष का बंटवारा इस प्रकार नहीं हो सका कि उससे भाजपा को ही अन्त में लाभ हो पाता। यह इस तथ्य का भी प्रमाण है कि राज्य की जनता में रघुवर सरकार के खिलाफ गुस्सा काफी अधिक था। 
यह गुस्सा मूल रूप से पिछले पांच वर्षों के दौरान रघुवर सरकार के कामों के प्रति ही हो सकता है। झारखंड एक आदिवासी बहुल राज्य होने के बावजूद जिस तरह आदिवासी मुख्यमन्त्री से वंचित रहा उसका खामियाजा भी भाजपा को भुगतना पड़ा है। इसके साथ ही आदिवासियों के भूमि विशेषकर जंगल-जमीन और जल के अधिकार को हल्का करने के लिए रघुवर सरकार ने जो भूमि अधिग्रहण कानून बनाया उसने भी आदिवासियों में रोष का संचार करने में विशेष भूमिका निभाई। 
यह स्वयं में विस्मयकारी है कि 2000 में झारखंड के बिहार से अलग होने के बाद श्रीमान रघुवर दास अकेले एेसे मुख्यमन्त्री रहे जो पूरे पांच साल तक इस कुर्सी पर बैठे रहे इसके बावजूद वह अपनी पार्टी को पुनः सत्ता में लाने में असमर्थ रहे लेकिन सितम तो यह हुआ कि वह खुद भी जमशेदपुर (पूर्व) विधानसभा सीट से चुनाव हार गये चुनाव भी  हारे अपनी ही पार्टी के बागी उम्मीदवार श्रीमान सरयू राय से, सरयू राय ने उन्हें जनता की अदालत में हरा कर अपना इकबाल निश्चित रूप से बुलन्द किया है क्योंकि भाजपा में रहते हुए वह लगातार राज्य सरकार की कमजोरियों की तरफ भाजपा आला कमान का ध्यान दिलाते रहे थे। 
कहने को कहा जा सकता है कि झारखंड भाजपा में अन्तर्कलह बहुत ज्यादा हो गई थी जिसका परिणाम पार्टी को भुगतना पड़ा परन्तु यह सब क्षेत्रीय स्तर पर नेतृत्व की कमजोरी को ही दर्शाता है। हालांकि भाजपा की तरफ से चुनाव प्रचार में कहीं कोई कमी नहीं रखी गई थी और प्रधानमन्त्री से लेकर गृहमन्त्री व इसके कार्यकारी अध्यक्ष ने चुनाव प्रचार में हिस्सा लिया था, इसके बावजूद पार्टी चुनावी वैतरणी पार नहीं कर सकी और हालत एेसी हो गई कि रघुवर दास सरयू किनारे पर ही प्यासे रह गये। 
दरअसल राज्य विधानसभा के चुनाव सामान्य परिस्थितियों में राज्य के मुद्दे पर ही लड़े जाते हैं और क्षेत्रीय नेतृत्व की इसमें अहम भूमिका होती है रघुवर सरकार अपने पांच साल के कार्यकाल का लेखा-जोखा प्रस्तुत कर आम मतदाताओं को रिझाने में असफल रही जिसका लाभ संगठित हुए विरोधी पक्ष को मिला। राजनीति में गुरु जी के नाम से जाने जाने वाले श्री शिबू सोरेन के सुपुत्र हेमन्त सोरेन ने पहली बार अपनी नेतृत्व क्षमता की छाप भी छोड़ने में सफलता प्राप्त की उनकी यह सफलता राज्य के मुद्दों को चुनावी एजेंडा बनाने में छिपी हुई थी। झारखंड  ‘धनवान’ जमीन के ‘निर्धन’ लोगों का राज्य है। 
इस राज्य की खनिज प्रचुरता का लाभ यदि यहीं के लोगों को नहीं मिल पा रहा है तो इसके पृथक राज्य बनने का कोई मतलब नहीं रह जाता है बिहार से अलग करके इस राज्य का निर्माण लम्बी लड़ाई के बाद हुआ था। पृथक झारखंड की लड़ाई आजादी की लड़ाई के जमाने से ही चली आ रही थी और मूलतः ‘झारखंड पार्टी’ यह झंडा उठाये हुए थी। कालान्तर में झारखंड मुक्ति मोर्चा पार्टी के गठन से इस मांग का आन्दोलन उग्र होता रहा। वस्तुतः भाजपा ने ही अपने अटल बिहारी वाजपेयी के शासनकाल में इस राज्य का निर्माण किया था परन्तु पार्टी आदिवासी जनता में अपनी वह पैठ बनाने मे सफल नहीं हो सकी जिसकी अपेक्षा की जाती थी। 
हालांकि इसके कई मुख्यमन्त्री भी रहे मगर किसी का भी कार्यकाल पूरा नहीं हो सका। इसकी धनवान धरती ही इस राज्य की दुश्मन बनी रही और लोकप्रिय चुनी गई सरकारें कार्पोरेट जगत का अखाड़ा भी बनती रहीं। अतः आने वाली सरकार के लिए भी सबसे बड़ी यही चुनौती होगी दूसरे नक्सली समस्या के खात्मे के लिए किसी भी सरकार को पूरे यत्न से जुड़ना होगा और भटके हुए आदिवासी युवा वर्ग को रचनात्मक कार्यों में लगाना होगा। भाजपा को अपनी पराजय से सबसे बड़ा सबक यह सीखना होगा कि वह केवल प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी की लोकप्रियता के बूते पर अपनी क्षेत्रगत कमियों को नहीं ढक सकती है। 
साथ ही यह भी समझना होगा कि इस देश के किसी भी राज्य का गरीब या अनपढ़ मतदाता राजनैतिक रूप से बहुत चतुर होता है। राष्ट्रीय मुद्दों और राज्यों के मुद्दों में भेद करना उसे आता है, विशेषकर आर्थिक व सामाजिक विषयों की उसे जानकारी रहती है अतः राष्ट्रहित में वह अपनी वरीयता बदलने में भी किसी प्रकार का संकोच नहीं करता है। लोकतन्त्र का पहला प्रहरी यही मतदाता होता है जो वक्त के अनुसार अपनी रणनीति बिना किसी राजनैतिक बहकावे में आये करता है। 
भारत का अभी तक का चुनावी इतिहास इसका गवाह है। इसी वर्ष मई महीने में हुए लोकसभा चुनावों में इन्हीं झारखंड के मतदाताओं ने दोनों हाथों से भाजपा को वोट दिये थे मगर राज्य के चुनाव में उन्होंने अपना हाथ खींच लिया। इसका कारण सिर्फ प्रादेशिक स्तर पर भाजपा सरकार का कामकाज ही जिम्मेदार कहा जा सकता है। अतः हर चुनाव राजनैतिक प्रशिक्षण कार्यक्रम की पाठशाला कहा जाता है। फर्क सिर्फ यह होता है कि इसमें शिक्षक मतदाता होता है और राजनीतिज्ञ उसके छात्र।

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