कांग्रेस अध्यक्ष श्री राहुल गांधी की न्यूनतम आय स्कीम का लक्ष्य देश के गरीब लोगों की मासिक आमदनी 12 हजार रुपये प्रति माह करने की है। ऐसे परिवारों की संख्या भारत में चार करोड़ से ज्यादा बताई जाती है जिनकी अधिकतम मासिक आमदनी छह हजार रुपये है। राहुल स्कीम के तहत केन्द्र में कांग्रेस पार्टी की सरकार आने के बाद हर उस आदमी की माहवर आमदनी 12 हजार रुपये करने की सरकार गारंटी देगी जिसकी इस रकम से कम आय होती है। इसमें हर सम्प्रदाय, वर्ग, धर्म व पेशे का व्यक्ति शामिल होगा। सरकार यह रकम उसके खाते में सीधे जमा करेगी। इस स्कीम को माननीय राहुल गांधी गरीबी के खिलाफ ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ बता रहे हैं। निश्चित रूप से 12 हजार रुपये की न्यूनतम मासिक आय की गारंटी गरीबों के दुख-दर्द फौरी तौर पर दूर करेगी, इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती मगर इस पर शंका बनी रहेगी क्या ऐसी स्कीमों से गरीबों का सशक्तीकरण स्थायी रूप में हो सकेगा ? ठीक यही सवाल मौजूदा भाजपा सरकार द्वारा किसानों को दी जाने वाली पांच सौ रुपये महीने की मदद की स्कीम पर तो और भी गहरा है।
इसके साथ ही जो अन्य मदद योजनाएं भी चल रही हैं वे हमें वर्तमान बाजार मूलक अर्थ व्यवस्था से उपजे निजी क्षेत्र के भारी मुनाफे की ‘झूठन’ ही परोस कर गरीबों को खैरात बांटने का उपकार करती सी लगती रही हैं। इसका सबसे बड़ा उदाहरण यह है कि प्रधानमन्त्री कृषि बीमा योजना के तहत जहां विभिन्न राज्यों में किसानों को मुआवजे की रकम पांच रुपये से लेकर 100 रुपये तक बांटी गई वहीं बीमा कम्पनी को एक साल में दस हजार करोड़ रुपये का लाभ हुआ। बीमा प्रीमियम की धनराशि का अधिसंख्य हिस्सा सरकार ही जमा कराती है अतः बीमा कम्पनियों ने बड़ी सरलता के साथ जनता के पैसे को ही अपने खाते में डाल लिया जबकि साल भर में 1200 किसानों ने कर्जें की वजह से ही आत्महत्या कर डाली।
इसी प्रकार स्वास्थ्य बीमा योजना का भी हश्र होगा क्योंकि निजी क्षेत्र के अस्पतालों में गरीब के दाखिल होने पर उसकी बीमारी के खर्चे पर इन्हीं अस्पतालों का लिखा सच माना जायेगा और वे सरकार से पैसा वसूल करेंगे क्योंकि प्रीमियम की धनराशि सरकार ही देगी। इस प्रकार यह भी जनता का पैसा ही होगा जो बीमा कम्पनियों को लाभ पहुंचायेगा। यह सीधे-सीधे जनता के धन पर निजी क्षेत्र की लूट के अलावा और कुछ नहीं है और स्वयं सरकार नीतियां बना कर इस कार्य को वैधता प्रदान कर रही है। यह गौर करने वाली बात है कि भारत में एक उद्योग घराने का प्रतिदिन का लाभ साढ़े तीन सौ करोड़ रुपये है जबकि एक गरीब आदमी की आमदनी साढे़ तीन सौ रुपये प्रतिदिन के भी लाले पड़े हुए हैं ? यह कोई साम्यवादी फलसफा नहीं है बल्कि राष्ट्रवादी समतामूलक विचार है जिसकी पैरवी गांधी से लेकर लोहिया ने की थी और लिखा था गरीबों की शिक्षा, स्वास्थ्य व दैनिक आवश्यकताओं की आपूर्ति की जिम्मेदारी लोकतन्त्र में सरकार की ही होती है।
मगर राहुल गांधी कह रहे हैं कि जब मोदी सरकार चन्द उद्योगपतियों का साढे़ तीन लाख करोड़ कर्जा माफ कर सकती है तो कुल बीस करोड़ लोगों को इतनी ही धनराशि की मदद ‘न्यूनतम आय स्कीम’ के तहत उनकी आने वाली सरकार क्यों नहीं दे सकती? बात पूरी तरह दुरुस्त है और गरीबों के हक की भी लगती है। मगर मूल और मुद्दे की बात यह है कि क्या मोदी सरकार और संभावित राहुल सरकार की आर्थिक नीतियों में किसी प्रकार का अंतर रहेगा? दोनों में कोई आधारभूत अन्तर नहीं है, सिवाय इसके कि एक दो रुपये दे रहा है और दूसरा दस रुपये दे रहा है। दोनों की नीति एक ही है कि गरीबों को बाजार की शक्तियों पर ही छोड़ा जायेगा। शिक्षा से लेकर स्वास्थ्य तक की गरीबों की जरूरतें बाजार की ताकतें ही पूरा करेंगी बस सरकार इतना भर कर देगी कि पांच सदस्यों के गरीब परिवार को 12 हजार रुपए मासिक आय देने की गांरटी दे।
विकास के काम निजी कम्पनियों के हवाले करने की शुरूआत भी कांग्रेस ने ही की थी। क्या गजब की अर्थ व्यवस्था है कि जिस सरकारी कम्पनी को निजी हाथों में बेचने का फैसला किया जाता है उसी कम्पनी के शेयर पूंजी बाजार में कुलांचे मारने लगते हैं। सरकारी शिक्षण संस्थानों और स्वास्थ्य केन्द्रों को आर्थिक व प्रबन्धन के स्तर पर जर्जर बना कर निजी क्षेत्रों के शिक्षण संस्थानों और अस्पतालों में जनता को ऊंची कीमत पर सेवाएं पाने के लिए उकसाया जाता है। हम भूल रहे हैं कि यह गांधी का देश है जिनके दर्शन के आधार पर कांग्रेस पार्टी ने इस देश की बागडोर संभाल कर उन्हीं की नीतियों पर चलते हुए इसे चौतरफा सम्पन्न बनाया और यहां के 60 प्रतिशत लोगों को मध्यम वर्ग में लाकर खड़ा किया। इतना ही नहीं यहां के किसानों ने भारत को दुनिया के अनाज व दूध उत्पादन करने वाले देशों की पहली पंक्ति में लाकर खड़ा किया और राष्ट्रीय सुरक्षा के मोर्चे पर हमसे दुश्मनी दिखाने की जुर्रत दिखाने वाले मुल्क पाकिस्तान को भी बीच से चीर कर दो टुकड़ों में बांट डाला।
यह सारा काम हमने उस सार्वजनिक शिक्षा प्रणाली को मजबूत बनाते हुए किया जिसमें आज भी केन्द्रीय विश्वविद्यालयों में उच्च से उच्च शिक्षा की फीस अधिकतम डेढ़ सौ रुपये मासिक है। भारत के प्रथम शिक्षा मन्त्री मौलाना अब्दुल कलाम आजाद द्वारा स्थापित आईआईटी व राजकुमारी अमृत कौर द्वारा स्थापित मेडिकल कालेज आज भी विश्व स्तर की शिक्षा देने के लिए जाने जाते हैं जिनमें गरीब वर्ग के मेधावी छात्र प्रवेश पाकर अपना जीवन सफल बनाते हैं। मगर क्या गजब की ‘पुरवार्ई’ चली है 1991 से यह कहा जाने लगा कि स्कूल, कालेज, विश्वविद्यालय और अस्पताल चलाना सरकार का काम नहीं है जबकि शिक्षा पाना हर भारतीय का संवैधानिक बुनियादी अधिकार है लेकिन आज शिक्षा को ही गैर जरूरी बनाने की साजिश चल रही है और शिक्षकों के भी अपने बच्चों को अच्छे स्कूलो में भर्ती कराने के लिए लाखों रुपये ‘डोनेशन’ या ऊंची फीस में देनी पड़ती है।
बेशक अपर मिडल तक की शिक्षा को मूलभूत अधिकार बना कर अनिवार्य कर दिया गया मगर जिन स्कूलों में गरीबों के बच्चे जाते हैं उनकी हालत क्या है? ऐसी शिक्षा पद्धति चपरासी के बेटे को चपरासी और अफसर के बेटे को अफसर बना रही है मगर किसी भी राजनैतिक दल में यह हिम्मत नहीं है कि वह देश की शिक्षा नीति के बारे में अपने चुनावी घोषणापत्र में बेबाकी से लिख सके। गरीबों की आय बढ़ाने के विचार से कोई विरोध नहीं रख सकता। मगर जब तक रोजगार में वृद्धि का मार्ग नहीं खुलेगा और उत्पादन समेत अन्य क्षेत्रों में वास्तविक विकास नहीं होगा तब तक हमें ऐसी योजनाएं बार-बार लानी पड़ती रहेंगी। अतः बहुत जरूरी है कि हम सार्वजनिक क्षेत्र की मजबूती के लिए फिर से विचार करें जिसके दो लाभ रोजगार बढ़ना व गरीबों को न्याय मिलना होंगे।