अयोध्या के बाबरी ढांचे को ढहाये जाने के मामले में सीबीआई अदालत ने राम मन्दिर निर्माण आन्दोलन के मुख्य सूत्रधार लालकृष्ण आडवाणी समेत अन्य 11 नेताओं पर भारतीय दंड संहिता की धारा 120 (बी) लगाकर आरोप तय कर दिये हैं। इससे इन नेताओं की मुसीबत बढ़ सकती है। विशेष रूप से केन्द्रीय जल संसाधन मन्त्री सुश्री उमा भारती की जो इस मुकदमे में श्री आडवाणी की साथी हैं। यह मुकद्दमा पिछले 25 साल से 1992 दिसम्बर में विवादास्पद ढांचे के ढहाये जाने के बाद से चल रहा है और इससे पहले भी श्री आडवाणी के साथ वरिष्ठ नेता डा. मुरली मनोहर जोशी व उमा भारती के खिलाफ सीबीआई चार्जशीट दायर कर चुकी थी, इसके बावजूद ये तीनों लोग श्री वाजपेयी की एनडीए सरकार में कैबिनेट मन्त्री बने हुए थे।
सर्वोच्च न्यायालय के आदेश पर यह मुकदमा पुन: खुला है और सीबीआई ने पुन: चार्जशीट पेश की है। विपक्षी दल सीबीआई की भूमिका में अब भी राजनीति देख रहे हैं। ऐसी ही राजनीति अब से लगभग 15 साल पहले भी देखी गई थी जब गृहमन्त्री के पद पर आसीन श्री आडवाणी के विरुद्ध अयोध्या मामले में दायर चार्जशीट को बदलवाने का आरोप तत्कालीन वाजपेयी सरकार पर लोकसभा में विपक्षी कांग्रेस पार्टी के नेता मुख्य सचेतक प्रियरंजन दासमुंशी ने लगाया था। तब खुद प्रधानमन्त्री की हैसियत से खड़े होकर श्री अटल बिहारी वाजपेयी ने आश्वासन दिया था कि वह पूरे देश को विश्वास दिलाना चाहते हैं कि सीबीआई पर कोई दबाव नहीं आने दिया जायेगा और प्रधानमन्त्री कार्यालय सीबीआई की स्वतन्त्रता सुनिश्चित करेगा। उन्होंने कहा था कि आप हमारी नीयत पर शक मत करिये। बाद में इलाहाबाद उच्च न्यायालय से इस मुकदमे में शामिल लोगों को राहत मिली और मामला सर्वोच्च न्यायालय में चला गया। बात घूम फिर कर वहीं आ गई जहां 15 साल पहले थी।
सीबीआई को तब लगा था कि धारा 120(बी) लगाने के पर्याप्त कारण उसके पास नहीं हैं और उसने रायबरेली की सीबीआई अदालत में तदनुसार चार्जशीट दायर कर दी थी। अत: यह साफ होना चाहिए कि चार्जशीट लगे नेता केन्द्रीय मन्त्रिमंडल में पुरानी एनडीए सरकार में भी शान से शामिल थे। यह पूरी तरह नैतिक प्रश्न है और सामाजिक होने के साथ कानूनी भी क्योंकि बाबरी ढांचा ढहाये जाने के लिए किसी प्रकार की साजिश करने की संभवत: किसी को कोई जरूरत नहीं थी क्योंकि 1992 में देश का बच्चा-बच्चा चिल्ला रहा था कि ‘मन्दिर वहीं बनायेंगे जहां राम का जन्म हुआ था।’ स्वतन्त्र भारत में जे.पी. आन्दोलन के बाद यह सबसे बड़ा आन्दोलन था जिसका आधार राष्ट्रीय हो गया था मगर बाबरी ढांचे के विध्वंस के बाद अदालत में इस विवाद को एक जमीन-जायदाद के मुकदमे के तौर पर पेश किया गया। श्रीराम जन्म स्थान का मुकदमा किसी जमीन-जायदाद के झगड़े का मुकदमा नहीं हो सकता क्योंकि किसी देश में जब भी कोई धर्म या मजहब बाहर से आता है तो वह अपने साथ जमीन-जायदाद लेकर नहीं आता है।
इस्लाम के मामले में ऐतिहासिक तथ्य यह है कि इस धर्म का भारत में प्रचार और प्रसार आक्रमणकारी शासकों ने अपनी हुकूमत का रौब गालिब करने के लिए किया और यहां की प्रजा के पूजा-पद्धति के स्थलों को इसके लिए अपना निशाना बनाया। इसके पीछे एक बड़ा कारण यह भी था कि मध्यकाल में भारत के मन्दिरों में अपार सम्पत्ति का संग्रह भी रहता था और मुस्लिम आक्रान्ताओं का मुख्य उद्देश्य भारत की सम्पत्ति को लूटने का रहता था। यही वजह थी सोमनाथ के मन्दिर को महमूद गजनवी ने बार-बार लूटा मगर बाबर जब भारत की सम्पत्ति और धन्य-धान्य के लालच में दोबारा आया और यहां के हिन्दू राजाओं के आपसी झगड़ों के चलते उसने यहीं पर अपना डेरा जमाने की कोशिश की तो उसने हिन्दू जनता पर हुकूमत का जब्र दिखाने के लिए हिन्दू मन्दिरों और बौद्ध मठों को मस्जिदों में तब्दील करने की मुहिम छेड़ी जिससे भारत के मूल निवासियों में उसका खौफ कायम हो और वे समझने लगें कि उनका राजा बदल गया है। अयोध्या ऐसी ही कहानी की जीती-जागती तस्वीर थी जहां उसने श्रीराम मन्दिर को एक इस्लामी ढांचे में तब्दील कर दिया और उसे बाबरी मस्जिद का नाम दे डाला। दरअसल बाबरी ढांचे का ढहाया जाना आजाद भारत में मुस्लिम विरोध नहीं था बल्कि भारत का सांस्कृतिक पुनरुत्थान था। पूरे मामले को देखने का एक सामाजिक नजरिया यह भी है जो सांस्कृतिक न्याय की गुहार लगाता है।