अयोध्या में श्रीराम जन्मभूमि विवाद के मुकदमे की सुनवाई अब सर्वोच्च न्यायालय प्रतिदिन करेगा। यह कोई साधारण मुकदमा नहीं है। बेशक मामला उसी स्थान या भूमि के मालिकाना हक का है जिस पर 6 दिसम्बर 1992 तक मुस्लिम सम्प्रदाय की ऐसी इमारत खड़ी हुई थी जिसे बाबरी मस्जिद कहा जाता था परन्तु इसी इमारत के एक हिस्से में 1949 से हिन्दुओं के ईष्ट देव भगवान राम व सीता की मूर्तियां भी रखी हुई थीं और तभी से यह इमारत विवादास्पद ढांचा कहलाने लगी थी। अतः यह मुकदमा किन्हीं दो व्यक्तियों के बीच का न होकर भारत के दो विशाल समुदायों के बीच का प्रतीकात्मक रूप से बनता चला गया और 6 दिसम्बर 1992 को जब इस ढांचे को ध्वस्त कर दिया गया तो तस्वीर ने दूसरा रंग ले लिया।
क्योंकि हिन्दू समुदाय के लोग इस पर भगवान राम का भव्य मन्दिर बनाना चाहते हैं। इस मामले में भूमि पर मालिकाना हक के दावे भी दोनों सम्प्रदायों की चुनिन्दा संस्थाएं करती आ रही हैं जिसके बारे में सितम्बर 2010 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने फैसला दिया था कि दावेदार पक्षाें के बीच इसका बंटवारा कर दिया जाये। यह फैसला इस तरह हुआ था कि दो भाग हिन्दुओं की संस्थाओं को और एक भाग मुस्लिम संस्था को दिया गया किन्तु इसमें एक मुख्य तथ्य यह था कि उच्च न्यायालय ने इमारत में विराजमान भगवान रामचन्द्र की मूर्ति को भी एक पक्ष मानकर उनके हक में भूमि का एक तिहाई हिस्सा दिया था।
इससे यह तो सिद्ध हो ही जाता है कि न्यायालय ने इस विवादित स्थान को हिन्दुओं के इष्टदेव भगवान राम का जन्म स्थान माना। भारत की धर्मनिरपेक्ष परंपराओं को देखते हुए यह स्वाभाविक था कि इस विवादित स्थान से मुस्लिम सम्प्रदाय के लोग अपना दावा इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले के बाद छोड़ देते और पूरी भूमि हिन्दू संस्थाओं को देकर भारतीयता की पहचान को ऊंचाई देते परन्तु ऐसा न करके उच्च न्यायालय के फैसले को सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दे दी गई और अब उसी के लिए रोजाना सुनवाई का निर्णय स्वयं संविधान पीठ के मुखिया मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति रंजन गोगोई ने किया है परन्तु सबसे दुःखद यह है कि धर्मनिरपेक्षता की दुहाई देने वाले कुछ लोग इस मामले पर पूरी तरह साम्प्रदायिक दृष्टिकोण अपना रहे हैं और मुसलमान नागरिकों में धार्मिक संकीर्णता का भाव जगा रहे हैं।
जाहिर है इस्लाम का प्रसार-प्रचार भारत में नफरत के आधार पर नहीं बल्कि प्रेम व भाईचारे के आधार पर सूफी सन्तों ने किया और इंसानियत के भाव व सामाजिक बराबरी को केन्द्र बनाकर ही उन्होंने अपने लक्ष्य की प्राप्ति की। इसके बावजूद 1947 में मजहबी नफरत फैलाकर ही भारत को धर्म के आधार पर बांटा गया और पाकिस्तान का निर्माण कराया गया। जिस सहिष्णुता की दुहाई स्वयं को प्रगतिशील व उदारमना होने का दावा करने वाले कुछ कथित बुद्धिजीवी देते फिरते हैं उनकी सारी बुद्धि अयोध्या में आते ही साम्प्रदायिक हो जाती है और वे उस इमारत के हक में मुस्लिम सम्प्रदाय की भावनाओं को हवा देने लगते हैं जिसे बाबरी मस्जिद कहा जाता था।
बेशक इसका ढहाया जाना नाजायज था मगर अब इसके ढहाने के बाद और उस स्थान पर भगवान राम को स्थापित स्वीकार किये जाने के बाद मस्जिद तामीर करने की जिद भी पूरी तरह नाजायज कही जायेगी। जिन लोगों ने इस कथित मस्जिद को ढहाया उनके खिलाफ कानून अपना रास्ता तय करेगा मगर मन्दिर निर्माण करने से रोकने के प्रयासों को हम किस रूप में लेंगे ? जाहिर है यह भारत के भाईचारे को खंडित करने का प्रयास ही कहा जायेगा क्योंकि फैजाबाद जिले में स्थित अयोध्या का संज्ञान अवध के नवाबों तक ने लिया था और भगवान राम को अपनी रियाया का श्रद्धा केन्द्र मानकर ही उनके धनुषबाण को अपने राजचिन्ह में समेकित किया था।
फैजाबाद लखनऊ से पहले अवध की राजधानी हुआ करती थी। अतः अयोध्या की प्रतिष्ठा सदियों पहले से अंग्रेजी शासनकाल तक में रही है और उत्तर प्रदेश का पुराना नाम ‘युनाइटेड प्राविंस एंड अयोध्या’ ही था। अवध स्वयं मंे अयोध्या का ही अपभ्रंश है। अतः श्रीराम जन्मभूमि स्थान पर भगवान राम मन्दिर का निर्माण किसी भी प्रकार से न तो किसी की विजय का या पराजय का प्रश्न है बल्कि अवध की अस्मिता का प्रश्न है। यह अस्मिता हिन्दू और मुसलमान दोनों से ही जुड़ी हुई है। दोनों ही समुदायों के लोगों ने भारत की स्वतन्त्रता के लिए कन्धे से कन्धा मिलाकर संघर्ष किया है। मैं इतिहास के घटनाक्रम में नहीं जाता हूं क्योंकि उस समय की परिस्थितियों की तुलना वर्तमान समय से करना निरा मूर्खतापूर्ण कार्य है परन्तु वर्तमान में आगे बढ़ना हर हिन्दू-मुसलमान का कर्त्तव्य और धर्म है।
मुस्लिम वक्फ बोर्ड की जायदादों पर जिस तरह कब्जे करके वाणिज्यिक प्रतिष्ठान खड़े किये गये हैं क्या उन्होंने कोई मुल्ला या मौलवी जायज ठहरा सकता है? आखिर सारी जमीन तो हिन्दोस्तान की ही है। जिस जमीन पर पाकिस्तान तामीर किया गया है क्या वह 1947 तक हिन्दोस्तान की नहीं थी? कभी मजहब जमीन-जायदाद लेकर नहीं आता है, वह केवल आदमी को इंसान बनने की नसीहत लेकर ही आता है और इंसानियत कहती है कि अपने साथी के अकीदे की परवाह करो और उसके दिल को चोट मत पहुंचाओ।
नफरत का जवाब नफरत नहीं है यह इस्लाम धर्म की पहली नसीहत है और सभी के विचारों का सम्मान करना हिन्दू धर्म का पहला नियम है। अतः दिक्कत कहां है? क्यों इतना बवंडर खड़ा किया जा रहा है। अगर हिन्दू मानते हैं कि उनके राम का जन्म अयोध्या में वहीं हुआ था जहां विवादास्पद इमारत खड़ी हुई थी तो उसे उनको सौंपने से मुसलमानों का दर्जा कैसे कम हो जायेगा? इस मुद्दे पर सबसे पहले वे ही सोचें जो सहिष्णुता के नाम पर छाती पीटते रहते हैं।