कोरोना के कहर को नियन्त्रित करने के बाद गृह मन्त्रालय ने अब इसकी अकड़ ढीली करने के उपाय खोजने शुरू कर दिये हैं। इसी क्रम में ग्रामीण क्षेत्रों में आर्थिक गतिविधियों को चालू करने का फैसला महत्वपूर्ण है। हालांकि इस मोर्चे पर विगत 15 अप्रैल को भी लाॅकडाऊन का पहला चरण पूरा होने पर कुछ ढील दी गई थी मगर उसका असर जमीन पर दिखाई नहीं पड़ा। इसकी एक वजह तो यह है कि कोरोना के नये मामले अभी भी आ रहे हैं और दूसरी वजह यह है कि राज्य सरकारें कोई जोखिम लेना नहीं चाहती हैं। आपदा प्रबन्धन कानून के तहत राज्य सरकारें महामारी रोकने के लिए केन्द्र द्वारा जारी सख्त नियमावली में किसी प्रकार का संशोधन नहीं कर सकती हैं मगर इसमें छूट दिये गये कायदों में अपनी जरूरत के मुताबिक अदल-बदल कर सकती हैं।
अगर गौर से देखा जाये तो केन्द्र ने लाॅकडाऊन से बाहर आने की रणनीति की परतें खोलनी शुरू कर दी हैं। उत्तर प्रदेश के मुख्यमन्त्री योगी आदित्यनाथ ने जिस तरह दूसरे राज्यों में फंसे मजदूरों को अपने राज्य में लाने के लिए परिवहन व्यवस्था के इन्तजाम करने की घोषणा की है, उससे भी यही लगता है कि सरकार की मंशा जनता को जहानी कारोबार की फिक्रमन्दी से निजात दिलाना है मगर आहिस्ता-आहिस्ता। यह भी कम खुश गंवार नहीं है कि पवित्र रमजान का महीना शुरू होने के साथ ही गृह मन्त्रालय ने ग्रामीण क्षेत्रों में लाॅकडाऊन की शर्तों को ढीला करने का फैसला किया। अब यह रोजेदारों पर निर्भर करता है कि वे कोरोना रोकने के लिए जिस्मानी दूरी की पाबन्दियों पर अमल करें। यह महीना अपने से कमजोर और गरीब लोगों को जकात करने का महीना होता है।
पैगम्बर हजरत मुहम्मद ‘सल्ले अल्लाहु अलैही वसल्लम’ ने इंसानियत को बुलन्दी देने के लिए ही इस्लाम धर्म को चलाया था। इसी वजह से इस्लाम मजलूमों का मजहब कहलाया मगर कालान्तर में कुछ कट्टरपंथियों ने इसे ऐसा बना दिया कि आम मुस्लिमों को ही शर्मिंदा होना पड़ा। अफसोस कि कोरोना के मसले पर तबलीगी जमात के लोगों ने इसी तर्ज का परिचय दिया। इसके बावजूद भारत के मुस्लिम सम्प्रदाय के लोग किसी हिन्दू से कमतर राष्ट्रभक्त नहीं हैं और भारत के संविधान को अपना ईमान मानने में किसी से पीछे भी नहीं हैं। इसलिए गृहमन्त्री अमित शाह का रमजान का तोहफा लोगों को कबूल फरमाना चाहिए और खुदा से दुआ करनी चाहिए कि कोरोना से भारत को जल्दी से जल्दी मुक्त करा दे। हकीकत यह है कि पिछले एक महीने से भी ज्यादा वक्त से आम हिन्दोस्तानी घर में बन्द रह कर अब खिसियाहट सी महसूस कर रहा है और सोच रहा है कि उसकी जान तो बच गई मगर जहान का क्या होगा ? लोकतन्त्र में हमें एेसी महामारी के वक्त में निजी स्वतन्त्रता व मुक्ति के अधिकार के बारे में सोचने की जरूरत इसलिए नहीं है क्योंकि प्रतिबन्ध इंसानों को जिन्दगी देने के लिए ही लगाये जाते हैं इसलिए जो कुछ स्वनामधन्य इंसानी हकूकों के सिपहसालार इस मुद्दे को उठाने की कोशिश कर रहे वे इंसानियत के खिलाफ ही काम कर रहे हैं।
खैर मसला यह है कि लाॅकडाऊन से बाहर आने की तजवीज की रूपरेखा क्या हो? इसकी पहली झलक गृह मन्त्रालय ने दिखा दी है जिसके तहत गांवों में शराब की दुकान को छोड़ कर बाकी सारी दुकानें खोली जा सकती हैं। फैक्टरियों को खोलने का आदेश पहले ही दे दिया गया था। शहरों में भी मुहल्ले व कालोनियों को समर्पित दुकानें खोलने की हिदायत दे दी गई है, नगर पालिका सीमा से बाहर बड़ी-बड़ी फैक्टरियों को भी खोलने के निर्देश दिये जा चुके हैं। इन सभी उपायों से जिन्दगी में हरकत पैदा होनी तय है जिसका असर जहान की रवानगी पर पड़ना लाजिमी है। सवाल बस इतना सा है कि इसके चलते लापरवाही पैदा न हो। इस बेपरवाही से बचने के लिए आम लोगों को अपने ऊपर संयम रखते हुए अनुशासन का पालन करना होगा। रमजान का महीना आत्मानुशासन का ही ठोस प्रमाण होता है जिसमें रोजेदार पानी तक नहीं पीता और ठीक वक्त पर रोजा अफ्तियार करता है। उसे पाबन्द रहने पर ही सबाब मिलता है।
इसी तरह हमें कोरोना को भगाने के लिए भी पाबन्द होना पड़ेगा। खुदा ने चाहा तो पूरा हिन्दोस्तान ईद का त्यौहार कोरोना को भगा कर मनायेगा। फिलहाल इतना जरूरी है कि हम लाॅकडाऊन की उन बुनियादी शर्तों पर अमल जारी रखें जिनका ताल्लुक इसे खत्म करने से है मगर इसके साथ ही अपने उस हर पड़ोसी का भी ध्यान रखें जो मुफलिसी में रहने को मजबूर है। यह कर्त्तव्य सरकार का भी है कि वह रोज कमा कर खाने वाले लोगों की परवाह करे। उत्तर प्रदेश के मुख्यमन्त्री योगी आदित्यनाथ को इसकी परवाह है और एक साधू होते हुए भी वे जानते हैं कि परिवार की पीड़ा क्या होती है और मुश्किल समय में परिवार ही किसी भी सांसारिक व्यक्ति का सबसे बड़ा आश्रय स्थल होता है। इसी प्रकार असम की सरकार ने भी तीन दिनों के लिए सैकड़ों बसें चला कर प्रवासी मजदूरों को उनके घरों तक भेजने की व्यवस्था की है। यही है लाॅकडाऊन का इंसानी चेहरा।