राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की 150वीं जयन्ती के अवसर पर स्वच्छ भारत की सौगात को किसी भी मायने में कम करके नहीं आंका जाना चाहिए क्योंकि यह ऐसा कार्य है जिसे स्वतन्त्र भारत में गांवों के विकास और आमजन के आत्मविश्वास के साथ जोड़कर देखा जाना चाहिए था। यह स्वच्छता आन्दोलन स्वतन्त्रता आन्दोलन के समानान्तर ही बापू ने चलाया था और उम्मीद की थी कि भारत के लोगों की अपनी सरकार बन जाने के बाद इस ओर जनप्रतिनिधि जागरूकता पैदा करेंगे किन्तु किन्हीं कारणों से हमने इस कार्य को सतह पर नहीं आने दिया और इसके लिए प्रयास हम शर्मिन्दगी के भय से खुलकर नहीं कर सके।
हकीकत में हकीकत से मुंह चुराकर आजाद भारत नहीं भाग सकता था और उसके सामने सबसे बड़ी समस्या केवल आर्थिक प्रगति की ही नहीं थी बल्कि सामुदायिक स्वच्छता के लिए जन चेतना जागृत करने की भी थी जिसकी शुरूआत बिना शक घर से ही हो सकती थी। अतः जब प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी ने स्वतन्त्रता दिवस 15 अगस्त के दिन लाल किले से खड़े होकर यह घोषणा की थी कि उनका सपना हर घर में शौचालय का है तो कुछ लोगों ने इसे स्तर से नीचे का कथन तक कहा था, किन्तु प्रधानमन्त्री ने इसकी परवाह किये बगैर शौचालय निर्माण को एक आंदोलन के रूप में लिया और गरीब घरों को स्वच्छता में रहने का प्राथमिक पाठ पढ़ाया।
अतः अब जब श्री मोदी ने राष्ट्रसंघ जैसे अंतर्राष्ट्रीय मंच से अपने वक्तव्य में पिछले पांच सालों में 11 करोड़ शौचालयों के निर्माण का जिक्र किया तो विकासशील देशों खासकर गरीब कहे जाने वाले देशों को प्रेरणा मिली और उन्होंने भी भारत के इस विकास माडल का गहराई से अध्ययन करने का मन बनाया। नाइजीरिया जैसे अफ्रीकी देश के लिए भारत की यह उपलब्धि एक चमत्कार से कम नहीं हो सकती क्योंकि उस देश में भी स्वच्छता का स्तर भारत के आसपास रहता आया है मगर भारत के सन्दर्भ में सबसे महत्वपूर्ण यह है कि स्वच्छता के बारे में फैली रूढि़वादी परंपराओं को तोड़ना कोई मामूली काम नहीं था क्योंकि उत्तर से लेकर दक्षिण के ग्रामीणों में यह भावना कूट-कूट कर भरी हुई थी कि घर में देव विराजते हैं।
अतः शौचालय घर से बहुत दूर होना चाहिए और इसका होना भी कोई जरूरी नहीं है। प्रकृति ने जिन खेतों को बनाया है उनसे इसकी कमी पूरी हो सकती है, किन्तु प्रधानमन्त्री ने जिस तरह शौचालय और स्वच्छता की जरूरत पर जोर देते हुए संसद से लेकर सड़क तक बार-बार इस बात पर जोर दिया कि साफ-सफाई से किसी धर्म या मान्यता का कोई लेना-देना नहीं है और प्रत्येक परिवार के हर सदस्य विशेषकर महिलाओं को अपने निजी सम्मान की रक्षा करने का हक है। महिलाओं की शौचालय न होने की पीड़ा को प्रधानमन्त्री ने वह जुबान दी जिसे वे कभी कह भी नहीं सकती थीं। इसी वजह से गांवों के घरों में बने शौचालयों को ‘इज्जत घर’ का नाम देकर नारी के सम्मान की रक्षा से शौचालय स्वयं जुड़ गया।
अब गांवों के लोग शौचालयों को इज्जत घर कहने तक से नहीं सकुचाते हैं। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के विचारों की गहराई में उतरने का प्रायः राजनीतिज्ञ प्रयास करते रहते हैं और तरह-तरह से उनकी बताई बातों का पालन करने का आग्रह भी करते हैं परन्तु गांधी बाबा की सबसे बड़ी सीख यह थी कि कथनी और करनी में अंतर नहीं होना चाहिए। जरूरी नहीं है कि हम गांधी के सिद्धान्तों की विवेचना में ज्ञान का भंडार खोलने का उपक्रम करें बल्कि जरूरी यह है कि हम गांधी की बताई छोटी सीख को ही सबसे पहले अपने जीवन में उतारें।
स्वच्छता ऐसी ही सीख थी जिसे गांधी प्रत्येक भारतीय में देखना चाहते थे। दीगर सवाल यह भी है कि क्या स्वच्छता जैसे मामले में किसी प्रकार की राजनीति की गुंजाइश है? बल्कि इसके उलट यह हकीकत है कि राजनीतिज्ञ इस मुद्दे से किनारा काटना बेहतर समझते हैं क्योंकि इसका सम्बन्ध अन्ततः लोगों की आर्थिक स्थिति से ही जाकर जुड़ता है। इस समस्या का समाधान श्री नरेन्द्र मोदी ने प्रत्येक कमजोर व्यक्ति को शौचालय निर्माण के लिए आर्थिक मदद देकर निकाला और इसका क्रियान्वयन पंचायत स्तर पर किया।
इससे स्वच्छता के प्रति जागृति आना लाजिमी था क्योंकि इससे मानवीय स्वभाव के अनुसार प्रतियोगिता का वातावरण भी बना और घर में शौचालय होने को एक हैसियत के रूप में देखा जाने लगा। सामाजिक विकास के जितने भी कार्यक्रम सरकार द्वारा किये जाते हैं उनमें हजार किस्म की कमियां क्रियान्वयन के स्तर पर होती आयी हैं मगर शौचालय निर्माण में यह कमी इसलिए नहीं आ पाई क्योंकि आमजन स्वयं जागरूक होते गये। अतः संकल्प से सिद्धि का जो सिद्धान्त मोदी ने बनाया था वह स्वतः ही पूरा होता चला गया लेकिन हमें एक सबक लेने की भी जरूरत है कि स्वच्छता अभियान से लोगों का जुड़ना बताता है कि नीति और नीयत दोनों ही साबुत होनी चाहिएं। अतः सरकार की प्रत्येक योजना का यही आधार होना चाहिए।