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गुजरात में ‘रिकार्ड’ पर ‘रिकार्ड’

गुजरात चुनावों में भारतीय जनता पार्टी को मिली भीषण विजय को केवल ‘जीत’ नहीं कहा जा सकता बल्कि इसके गूढ़ व गंभीर निहातार्थ भी हैं।

गुजरात चुनावों में भारतीय जनता पार्टी को मिली भीषण विजय को केवल ‘जीत’ नहीं कहा जा सकता बल्कि इसके गूढ़ व गंभीर निहातार्थ भी हैं। राज्य में भाजपा को 53 प्रतिशत से अधिक मत मिले हैं जिनका सर्वाधिक वोट पाने वाले प्रत्याशी के विजय नियम में विशिष्ट महत्व हो जाता है। इसका मतलब यह हुआ कि यदि कुल 182 सीटों पर भाजपा के प्रत्येक प्रत्याशी को 53 प्रतिशत मत मिलते तो किसी भी अन्य पार्टी का एक भी प्रत्याशी विजयी नहीं हो पाता। परन्तु 53 प्रतिशत कुल 182 सीटों पर भाजपा प्रत्याशियों को पड़े वोटों का औसत है जिसका मतलब यह हुआ कि कुछ सीटों पर भाजपा को 70 से लेकर 80 या 85 प्रतिशत तक वोट पड़े और कुछ स्थानों पर कम वोट पड़े जिसकी वजह से वहां विपक्षी दलों के प्रत्याशी विजयी हुए। मसलन जिस घटलोडिया सीट पर मुख्यमन्त्री श्री भूपेन्द्र पटेल विजयी हुए वहां कमल के निशान पर  83 प्रतिशत मत पड़े। उनके विरुद्ध कांग्रेस पार्टी की अमी याज्ञिक को मात्र 8.26 प्रतिशत मत और आम आदमी पार्टी के प्रत्याशी को केवल 6.28 प्रतिशत मत ही मिल पाये। इस प्रकार दोनों की जमानत जब्त हो गई। अमी याज्ञिक तो राज्यसभा की सदस्य भी हैं। यदि कांग्रेस व आम आदमी पार्टी के प्रत्याशी के मतों को जोड़ भी दिया जाये तो कुल वोटों का प्रतिशत केवल 14.44 ही रहा जबकि जमानत बचाने के लिए कुल पड़े मतों का 16.67 प्रतिशत प्राप्त करना आवश्यक होता है। अतः इस सीट पर दोनों ही विपक्षी प्रत्याशियों की जमानत जब्त हो गई। चुनाव नियमों के अनुसार जमानत राशि बचाने के लिए प्रत्याशी को कम से कम इतना वजनदार होना चाहिए कि वह मतों का सम्मानजनक हिस्सा प्राप्त कर सके। मगर आश्चर्यजनक रूप से गुजरात के चुनावों में इस बार 74 प्रतिशत प्रत्याशियों की जमानतें जब्त हो गईं। 
राजनैतिक दलों में सर्वाधिक 128 आम आदमी पार्टी के उम्मीदवार अपनी जमानत बचाने में असफल रहे जबकि 42 कांग्रेसी प्रत्याशियों का भी यही अंजाम रहा। इसका निष्कर्ष मोटे अर्थों में चुनावी भाषा में यह निकाला जा सकता है कि इस बार भाजपा की आंधी नहीं बल्कि तूफान चल रहा था। यह रिकार्ड पर रिकार्ड बनाकर जीती। राज्य की कुल 182 विधानसभा सीटों पर सभी दलों के निर्दलीयों समेत कुल 1621 प्रत्याशी खड़े हुए थे, इनमें से 1200 की जमानतें जब्त हो गईं। 27 सीटों पर भाजपा हारी भी मगर इसकी हार का अन्तर भी इन सीटों पर बहुत कम रहा। कांग्रेस को 17 व आम आदमी पार्टी को पांच सीटें मिली। इस प्रकार विधानसभा में अधिकृत विपक्षी दल होने का अवसर भी किसी पार्टी को नहीं मिल सकेगा। कांग्रेस केवल एक स्थान से यह अवसर चूक गई क्योंकि विपक्षी दल के रूप में मान्यता उसी पार्टी को मिलती है जिसके कुल सदस्य शक्ति से कम से कम दस प्रतिशत विधायक हों।
 गुजरात विधानसभा की सदस्य संख्या को देखते हुए कांग्रेस के यदि 18 विधायक जीत कर आते तो उसके विधानमंडल दल के नेता को यह अवसर मिल सकता था। अब इस पार्टी के नेता को विपक्षी दल के नेता की हैसियत बख्शना सत्तारूढ़ दल भाजपा की सदस्यता पर निर्भर करता है। भारत की लोकसभा में भी कांग्रेस की हालत एेसी ही है जहां 545 सदस्यीय इस सदन में कांग्रेस के कुल 53 सांसद हैं। परन्तु लोकतन्त्र में विपक्ष विहीन विधानसभा या संसद होना लोकतन्त्र के लिए की खतरे घंटी होती है। संसदीय व्यवस्था में विपक्ष की भूमिका को जो लोग केवल अड़चन डालने वाली शक्ति या अवरोध पैदा करने वाली ताकतों के रूप में देखते हैं वे मूलतः गलती पर होते हैं क्योंकि विपक्षी विधायकों या सांसदों को भी आम जनता ही अपने एक वोट के अधिकार से चुनकर भेजती है। उनके अल्पमत में होने का अर्थ उनके जन प्रतिनिधि होने के अधिकार को नहीं समाप्त कर सकता। इस प्रणाली में मुख्यमन्त्री व किसी विपक्षी विधायक की जनता का प्रतिनिधि होने के मामले एक समान ही होते हैं। मुख्यमन्त्री का चुनाव उसके दल के बहुमत में आने पर जनता के चुने हुए प्रतिनिधि ही करते हैं। विधानसभा में पहुंचने पर प्रत्येक विधायक के अधिकार बराबर होते हैं। परन्तु असली सवाल यह है कि जब लोकतन्त्र में इकतरफा हवा बहने लगती है तो चुने हुए सदनों में भी इकतरफा फैसले लेने को बल मिलने लगता है। 
लोकतन्त्र के लिए यही सबसे घातक होता है क्योंकि गुजरात में ही जो 47 प्रतिशत मत भाजपा के विरोध में पड़े हैं उनका प्रतिनिधित्व सदन के भीतर किस रूप में हो पायेगा? ऐसे में सत्ता पर आरूढ़ दल और उसकी सरकार की जिम्मेदारी और बढ़ जाती है कि वह लोकतन्त्र की उस आत्मा को जीवित रखे जो इस प्रणाली की प्राणवायु मानी जाती हैं अर्थात मत भिन्नता या मत विविधता। इसमें असहमति की भी एक मुख्य भूमिका होती है। इन हालात में स्वस्थ लोकतन्त्र में सत्तारूढ़ दल स्वयं ही अपने भीतर ऐसे वैचारिक समूह पैदा करता है जो किसी भी फैसले के हर पक्ष की विवेचना बेबाकी से कर सकें। क्योंकि कोई भी लोकतन्त्र विपक्ष मुक्त नहीं हो सकता। बहुदलीय राजनैतिक प्रणाली में राजनैतिक दलों का उत्थान-पतन चलता रहता है, मगर विचारों और सिद्धान्तों का अनवरत द्वन्द कभी समाप्त नहीं होता। इसी वजह से समाजवादी चिन्तक व नेता डा. राम मनोहर लोहिया ने कहा था कि सिद्धांतों और विचारों की समानता का रिश्ता खून के रिश्तों से भी गाढ़ा होता है।

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