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राजनीतिक विरोधियों का सम्मान

मोदी सरकार ने अपने राजनीतिक विरोधियों को भी जिस तरह पद्म सम्मानों से पुरस्कृत किया है उसका लोकतन्त्र में स्वागत किया जाना चाहिए और स्वतन्त्र भारत की राजनीतिक प्रतिस्पर्धा को लोक कल्याण में की जाने वाली प्रतियोगिता के रूप में लिया जाना चाहिए।

मोदी सरकार ने अपने राजनीतिक विरोधियों को भी जिस तरह पद्म सम्मानों से पुरस्कृत किया है उसका लोकतन्त्र में स्वागत किया जाना चाहिए और स्वतन्त्र भारत की राजनीतिक प्रतिस्पर्धा को लोक कल्याण में की जाने वाली प्रतियोगिता के रूप में लिया जाना चाहिए। भारत में आजादी के बाद से ही विभिन्न विचारधाराओं में विश्वास करने वाले नेताओं के बीच आगे निकलने की होड़ रही है मगर दुश्मनी नहीं रही है। राजनीतिक स्पर्धा कभी व्यक्तिगत रंजिश या दुश्मनी में न बदले इसका ध्यान बहुत ही संजीदगी के साथ हमारे पुराने नेता रखते थे और एक दूसरे की प्रतिभा व ज्ञान और राजनीतिक समझ का आदर भी करते थे। इसका सबसे बड़ा उदाहरण भारत के प्रथम प्रधानमन्त्री पं. जवाहर लाल नेहरू थे जो अपने कटु विरोधी डा. राम मनोहर लोहिया के वचनों को हमेशा राष्ट्रीय विकास में उनकी चिन्ता के प्रति सहानुभूति रखते थे। इसका सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि जब 1963 में पहली बार डा. लोहिया उत्तर प्रदेश से एक उपचुनाव जीत कर लोकसभा में पहुंचे तो उन्होंने पं. नेहरू की व्यक्तिगत जीवन शैली को अपनी तीखी आलोचना का शिकार बनाया और एक पर्चा छापा जिसमें पं. नेहरू के रोज के खर्चे को गरीब भारत में एक आम आदमी के रोज के खर्चे से हजारों गुना अधिक बताते हुए मत व्यक्त किया कि पं. नेहरू को इससे बचना चाहिए जबकि पं. नेहरू प्रधानमन्त्री के रूप में सरकारी खजाने से मात्र एक रुपया प्रतिमाह तनख्वाह लेते थे। मगर पं. नेहरू ने उनके इस कथन को निजी तौर पर न लेते हुए भारत के आम आदमी की आमदनी में इजाफा करने के सकारात्मक उपाय किये और योजना आयोग में भारी फेरबदल किया। यह सब डा. लोहिया द्वारा तीन आना बनाम 15 आना औसत भारतीय आय पर लोकसभा में चली एतिहासिक बहस के बाद हो रहा था।
 भारत की यह परंपरा शुरू से ही रही कि इसमें राजनीतिक विरोधी को कभी दुश्मन नहीं माना गया बल्कि यहां तक हुआ कि दो राजनीतिक विरोधी एक ही घर में पिता-पुत्र और पति-पत्नी तक रहे। आजादी वाले वर्ष 1947 में कांग्रेस के अध्यक्ष रहे स्व. आचार्य कृपलानी  बाद में कांग्रेस छोड़ कर समाजवादी आन्दोलन में जुड़ गये वहीं उनकी पत्नी स्व. सुचेता कृपलानी कांग्रेस में रहीं। 1963 में जब आचार्य जी ने उत्तर प्रदेश की अमरोहा लोकसभा सीट से कांग्रेस प्रत्याशी हाफिज मुहम्मद इब्राहीम के खिलाफ विपक्षी साझा प्रत्याशी के रूप में चुनाव लड़ा तो स्वयं सुचेता जी आचार्य जी के खिलाफ चुनाव प्रचार करने भी गईं और बाद में उत्तर प्रदेश की मुख्यमन्त्री भी बनीं। मगर प. बंगाल में तो गजब हो गया जब आजादी के बाद हिन्दू महासभा के अध्यक्ष बने प्रोफे. पी.सी. चटर्जी के पुत्र श्री सोमनाथ चटर्जी ने धुर विरोधी कम्युनिस्ट पार्टी की सदस्यता ग्रहण की और बाद में वह मार्क्सवादी पार्टी में रहते हुए लोकसभा के अध्यक्ष भी बने। 
दरअसल यह वैचारिक टकराव की लड़ाई थी जो एक ही परिवार में रहते हुए भी विशुद्ध सिद्धान्तवादी आधार पर लड़ी जा सकती थी। अतः मोदी सरकार ने कांग्रेस नेता श्री गुलाम नबी आजाद की राजनीतिक निष्ठाओं को दरकिनार करते हुए उनकी लोकनिष्ठाओं को संज्ञान में लेते हुए उन्हें पद्म विभूषण से सम्मानित किया। कांग्रेस पार्टी को इसे अन्यथा न लेते हुए अपने एक नेता को मिले सम्मान को सिर आंखों पर लेना चाहिए और लोकतन्त्र की भावना के अनुरूप व्यवहार करना चाहिए। सम्मान मिलने के बावजूद श्री आजाद कांग्रेसी ही रहेंगे और उनकी कांग्रेस की नीतियों से निष्ठा नहीं डिगेगी। मोदी सरकार ने इससे पूर्व कांग्रेस के दिग्गज स्व. प्रणव मुखर्जी को भी ‘भारत रत्न’ अलंकरण से विभूषित किया था। इसके बाद प्रणव दा की राजनीतिक सोच में तो कोई परिवर्तन नहीं आया जबकि सत्ता पर आसीन भाजपा नेताओं के लिए वह प्रेरणा स्रोत ही बने रहे।  इसी प्रकार नरसिम्हाराव सरकार ने स्व. मोरारजी देसाई को भारत रत्न दिया था। 
मोदी सरकार ने इस वर्ष  प. बंगाल के पूर्व मुख्यमन्त्री श्री बुद्ध देव भट्टाचार्य को भी पद्म सम्मन दिया जिसे उन्होंने अस्वीकार कर दिया।  राजनीतिक कारणों से उनका सम्मान न ग्रहण करना भारत के आम आदमी को नहीं भाया है क्योंकि सम्मान राजनीति को ताक पर रखते हुए दिया गया है। लोकतन्त्र की सबसे बड़ी ताकत भी यही होती है कि इस व्यवस्था में राजनीतिक विरोधी को उसकी योग्यता के आधार पर सम्मान दिया जाता है। 

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