भारत को साधू-सन्तों की भूमि इसलिए कहा जाता है क्योंकि इसका सम्पूर्ण भौगोलिक आकार ऋषि-मुनियों की तपोस्थली के तीर्थों से परस्पर बंधा हुआ है। उत्तर से लेकर दक्षिण और पूर्व से लेकर पश्चिम तक जो हिन्दू तीर्थ स्थान फैले हुए हैं उन्हें आपस में निबद्ध करने का कार्य आदि शंकराचार्य महाराज ने आठवीं सदी में तब किया था जब भारत में बौद्ध धर्म अपने उत्कर्ष के चरम पर पहुंच कर पतन की तरफ बढ़ने लगा था। यह संयोग नहीं था कि आदि शंकराचार्य महाराज द्वारा भारत में सनातन संस्कृति के पुनः उद्भव का बिगुल बजाने के बाद ही उत्तर में श्री बदरीनाथ और केदारनाथ जैसे पवित्र तीर्थ धामों का जीर्णोद्धार होकर पुनः स्थापना हुई और यह भी संयोग नहीं कहा जा सकता कि उसके बाद ही दक्षिण एशिया के अन्य देशों में भी सनातन संस्कृति को पुनः जागृत करने के प्रयासों को बल मिला। इसका प्रमाण कम्बोडिया का अंगकोर मन्दिर है जिसे इस देश के सनातनी ‘राजा सूर्य वर्मन’ ने सन् 1115 के करीब बनवाया था और यह भगवान विष्णु के विभिन्न रूपों को समर्पित था। उस समय से लेकर आज तक अंगकोर का मन्दिर दुनिया का सबसे विशाल धार्मिक स्थल है जो 162 एकड़ से ज्यादा भूमि पर फैला हुआ है। हालांकि 12वीं सदी के अन्त तक इस मन्दिर को बौद्ध स्वरूप में रूपान्तरित कर दिया गया परन्तु भारत में आदि शंकराचार्य महाराज के प्रयासों से सनातन संस्कृति उसके बाद लगातार उत्थान की तरफ अग्रसर होती रही। हालांकि 12वीं सदी तक पहुंचते-पहुंचते भारत में बौद्ध धर्म के प्रादुर्भाव को मुस्लिम आक्रान्ताओं ने आसानी से समाप्त करने में सफलता प्राप्त की परन्तु सनातन धर्म के उपासकों ने इसमें जबर्दस्त अवरोध का कार्य किया और हिन्दू संस्कृति को अजेय बनाए रखा। ‘साधू’ शब्द इसी सनातन धर्म और हिन्दू संस्कृति का सर्वोच्च बोध है जो सांसारिक गतिविधियों को अनुशासित और मर्यादित रखने का पाठ पढ़ाता है।
यह अक्सर कहा जाता है कि ‘साधू का स्वाद से क्या काम?’ इसका मतलब यही है कि साधू के लिए अपना, पराया, मीठा और कड़वा सब बराबर हैं। वह गुण देख कर ग्रहण करता है अर्थात साधू के लिए कोई मुसलमान या ईसाई भी प्रिय होता है बशर्ते वह सद्गुणी हो। उसका भगवा वस्त्र केवल त्याग का ही प्रतीक नहीं होता बल्कि वह ‘भोर’ का प्रतीक भी होता है जो प्रत्येक मनुष्य को शिक्षा देता है कि उसके लिए अपना जीवन सुधारने हेतु हर ‘नया दिन’ एक शुरूआत हो सकता है लेकिन साधू बनना सहज कार्य नहीं होता। सन्त रविदास और सन्त कबीर 15वीं सदी में ऐसे साधू हुए जिन्होंने ‘राम’ शब्द को निराकार बना कर साकार ब्रह्म के उपासकों को अपनी ओर आकर्षित किया और महान गुरु नानक देव जी महाराज ने उनकी वाणी को मानवता की उपासना के रूप में देखा। साधू का कर्त्तव्य यही होता है कि वह समूची मानवता के लिए जीता है।
सनातन धर्म में पूजा-अर्चना का महत्व है परन्तु वह साकार ब्रह्म में स्वयं को विलीन करने के लिए। उसे आडम्बर या पाखंड में पालने की कोशिश जो भी करता है वह सनातन धर्म की व्यवस्था खराब करता है। इसलिए यह कम महत्वपूर्ण नहीं है कि देश के सर्वोच्च न्यायालय ने उस जन हित याचिका को दर्ज कर लिया है जो महाराष्ट्र के पालघर में विगत 16 अप्रैल को ‘जूना अखाड़े’ के दो साधुओं की बर्बर हत्या के बारे में दायर की गई है।
भारत की न्यायिक व्यवस्था भी इस हकीकत से वाकिफ लगती है कि साधू हत्या के क्या मायने होते हैं? इससे पहले बम्बई उच्च न्यायालय ने भी एक जनहित याचिका स्वीकार करते हुए महाराष्ट्र सरकार से जवाब तलब किया था कि वह इस कांड के बारे में की गई आगे की कार्रवाई का हिसाब-किताब 15 दिनों के भीतर दे। जिस जूना अखाड़े के दो साधुओं स्वामी कल्पवृक्ष गिरी जी महाराज व सुशील गिरी जी महाराज की ‘माॅब लिंचिंग’ में हत्या पुलिस की मौजूदगी में की गई है, उस अखाड़े की स्थापना भी आदि शंकराचार्य महाराज ने की थी। उन्होंने कुल सात अखाड़ों की स्थापना की थी और उनके लिए नियम बनाये थे कि सनातन धर्म की रक्षा हेतु उनके क्या नियम होंगे। 12वीं सदी से मुस्लिम आक्रमण के दौरान इन अखाड़ों के साधुओं ने हिन्दू संस्कृति की रक्षार्थ बलिदानों का इतिहास लिख रखा है। उनका बलिदान देश-धर्म के लिए था। आदि शंकराचार्य का भी यही सन्देश था कि यह देश सनातन देश है जिसमें राम, कृष्ण समेत ईश्वर के विभिन्न अवतार धर्म व राष्ट्र की रक्षा और मानवता की सेवा के लिए हुए हैं। अखाड़े का कर्त्तव्य होगा कि वे इस सनातन परम्परा के संरक्षक भी बनें और रक्षक भी। अतः साधू की सार्वजनिक रूप से चोर कह कर हत्या किया जाना कई प्रकार के सन्देहों को जन्म देता है। भारत की धरती पर जब भी ईश्वर ने मानव रूप में अवतार लिया है तो उसका एक लक्ष्य सन्तों या साधुओं की रक्षा करना और उन्हें अभय देना भी रहा है। इसका वर्णन गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज ने श्रीराम चरित मानस में राम जन्म के समय ही बखूबी किया है…
विप्र,धेनु,सुर,सन्त हित लीन्ह मनुज अवतार
निज इच्छा निर्मित तनु माया गुन गोपाल।
कहने का मतलब इतना सा है कि सर्वोच्च न्यायालय ने साधुओं की हत्याओं का संज्ञान लेकर भारत की माटी की उस तासीर को नमन किया है जिसमें स्वामी विवेकानन्द जैसे संन्यासी व साधू पैदा होते रहे हैं और स्वामी श्रद्धानंद जैसे साधू पैदा हुए हैं जिन्होंने जनसेवा में लगे हुए ‘मोहनदास करम चन्द गांधी’ को ‘महात्मा’ की उपाधि देकर ‘महात्मा गांधी’ बनाया था। सर्वोच्च न्यायालय ने सरकार को नोटिस जारी करके पालघर जांच का हिसाब-किताब तलब किया है।
आदित्य नारायण चोपड़ा
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