अन्तरिक्ष विज्ञान में भारत को दुनिया का चौथा अग्रणी राष्ट्र बनाने के लिए देश के वैज्ञानिकों को बधाई दी जानी चाहिए और इसका श्रेय भी उन्हीं को दिया जाना चाहिए। विज्ञान में प्रगति और विकास किसी भी दृष्टि से राजनैतिक विषय नहीं है। अतः जासूसी उपग्रह को मार गिराने की क्षमता हासिल करने की वैज्ञानिकों की उपलब्धि का किसी भी पार्टी की सरकार से दूर-दूर तक कोई लेना-देना नहीं है। विज्ञान शोध व विकास एक अनवरत प्रक्रिया है जिसका प्रत्यक्ष रूप से राष्ट्रीय विकास से सम्बन्ध होता है और राष्ट्रीय विकास का भरोसा देकर ही विभिन्न राजनैतिक दलों की सरकारें भारत के लोकतन्त्र में गठित होती हैं। अतः प्रथम प्रधानमन्त्री पं. जवाहर लाल नेहरू की यह दूरदृष्टि थी कि उन्होंने आजादी के बाद देश की कमान संभालते हुए भारत के चौमुखी विकास का आधारभूत कार्य शुरू किया और अंग्रेजों द्वारा लूटे गये मुफलिस भारत को अपने पैरों पर खड़ा करने की पहल की जिनमें परमाणु ऊर्जा से लेकर अन्तरिक्ष विज्ञान तक शामिल थे।
इसके लिए पं. नेहरू ने भारत की वैज्ञानिक क्षमता को स्वतन्त्र माहौल देकर सीमित साधनों के बीच ही आर्थिक स्रोतों की व्यवस्था की और बाद में स्व. इंदिरा गांधी ने इस कार्य को तेजी से आगे बढ़ाकर एक तरफ 1974 में प्रथम परमाणु परीक्षण किया और दूसरी तरफ भारत का पहला उपग्रह आर्य भट्ट अन्तरिक्ष में छोड़ा परन्तु इन नेताओं ने जो मिशन शुरू किया था और उसे आगे बढ़ाने के लिए जो पुख्ता व्यवस्थाएं की थीं उसी की वजह से यह देश लगातार विज्ञान के क्षेत्र में प्रगति करता रहा और आज हम इस मुकाम पर पहुंच चुके हैं कि हमने परमाणु क्षेत्र में चरम स्थिति प्राप्त की और अन्तरिक्ष विज्ञान में किसी भी अन्य देश के जासूसी उपग्रह को मार गिराने की मिसाइल तैयार कर ली। यह सब उपलब्धि न तो किसी एक राजनैतिक पार्टी के चुनाव घोषणापत्र के आधार पर प्राप्त की गई है और न ही किसी सरकार की शेखियां बघारने की बुनियाद पर। यह उपलब्धि भारत को एक विकसित व आत्मनिर्भर प्रभुता सम्पन्न राष्ट्र बनाने के लक्ष्य को निर्धारित करके की गई है।
यह लक्ष्य पं. नेहरू ने 15 अगस्त 1947 को प्रधानमन्त्री की गद्दी पर बैठते ही तय कर दिया था जब उन्होंने घोषणा की थी कि भारत के लोग किसी भी दृष्टि से किसी दूसरे देश के लोगों से कम बुद्धिमान नहीं हैं। अतः उनकी मजबूती ही इस देश को एक मजबूत देश के रूप मंे आने वाले वक्त में बनायेगी। यह अनायास ही नहीं हो गया था कि स्वतन्त्र भारत में पं. नेहरू ने परमाणु शक्ति क्षेत्र के वैज्ञानिक स्व. डा. होमी जहांगीर भाभा व अन्तरिक्ष क्षेत्र में डा. विक्रम साराभाई का चयन किया था। अतः परमाणु व अन्तरिक्ष के क्षेत्र में जो भी प्रगति आज भारत ने की है उसके लिए इन दोनों वैज्ञानिकों को सबसे पहले श्रद्धासुमन अर्पित किये जाने चाहिएं। इतना ही नहीं स्वतन्त्र भारत में पं. नेहरू ने प्रक्षेपास्त्र (मिसाइल) प्रोद्योगिकी को भी अपनी वरीयता पर रखते हुए तत्कालीन वैज्ञानिक सलाहकार डा. डी.एस. कोठारी के निर्देशन में विशिष्ट वैज्ञानिकों का एक दल बनाया जिसे ‘स्पेशल वेपंस डेवलेपमेंट टीम’ नाम दिया और इसका सीधा तार सेना से जोड़ा गया और इस प्रखंड को रक्षा मन्त्रालय के अन्तर्गत ‘रक्षा विज्ञान प्रयोगशाला’ ( डिफेंस साइंस लेबोरेटरी) कहा गया। बाद मंे इंदिरा जी ने इसी का विस्तार करके इसे डिफेंस रिसर्च डेवलेपमेंट आर्गनाइजेशन (डीआरडीओ) का नाम दिया जिसने एक से बढ़कर एक मिसाइल बनाईं।
डा. एपीजे अब्दुल कलाम भी इसी के मुखिया थे जिन्हें मिसाइल मैन भी कहा गया। अतः वैज्ञानिक विकास एक सतत प्रक्रिया है जिसका अंतिम श्रेय वैज्ञानिकों को ही दिया जा सकता है मगर लोकतन्त्र में राजनैतिक दूरदर्शिता के बिना विज्ञान का विकास संभव नहीं है क्योंकि राजनैतिक नेतृत्व ही तय करता है कि देश के वरीयता क्रम में विकास के क्षेत्र क्या होंगे। अतः आज पूरे देश को प्रथम प्रधानमन्त्री पं. जवाहर लाल नेहरू को भी याद करना चाहिए और उनकी दूरदर्शिता के लिए स्वयं को धन्य समझना चाहिए।
यदि पं. नेहरू भी राष्ट्र के विकास वरीयता क्रम में मन्दिर और मस्जिद के निर्माण को रख लेते तो क्या आज भारत परमाणु, अन्तरिक्ष और मिसाइल क्षेत्र में प्रगति कर पाता? अतः पं. नेहरू की बात-बात पर आलोचना करने वाले और उन्हें हर समस्या के लिए जिम्मेदार बताने वाले लोग अपने दिल पर हाथ रखकर सोचें और जवाब दें कि वे कहां खड़े हुए हैं? लेकिन दूसरा सवाल इन लोगों से यह है कि जो काम परमाणु क्षेत्र में अधूरे पड़े हुए हैं उनका क्या हिसाब-किताब है? रेल पटरियों पर दौड़ती रेलगाड़ी की रफ्तार बढ़ाकर उसका श्रेय तो आसानी से लिया जा सकता है और अधूरे पड़े कामों को पूरा करके भी शेखी बघारी जा सकती है मगर उन कामों का क्या होगा जिनका सम्बन्ध सीधे तौर पर राजनैतिक इच्छा शक्ति से है। इनमें नेहरू काल में ही थोरियम पद्धति से विकसित होने वाली परमाणु ऊर्जा उत्पादन का काम अधूरा सा है।
इस बारे में क्या प्रगति हो रही है, किसी को कुछ नहीं मालूम। अमेरिका से परमाणु करार के दौरान इसकी जमकर चर्चा हुई थी मगर बाद मंे सभी राजनीतिक दलों के मुंह पर ताले लग गये। यह भी पता नहीं है कि भारत को न्यूक्लियर सप्लायर्स ग्रुप (एनएसजी) देशों की सदस्यता मिलने के मुद्दे का क्या हुआ? हम छत पर खड़े होकर अपनी विदेश नीति का ढिंढोरा पीट कर खुद ही अपनी पीठ खूब थपथपाते रहते हैं मगर चीन को आज तक इस मुद्दे पर राजी नहीं कर सके हैं? जबकि चीन सीना तान कर पाक द्वारा कब्जाये हुए हमारे ही कश्मीर के इलाके में शान से अरबों रुपये की ‘सी पैक’ परियोजना पूरी करके पूरे एशिया में अपना आर्थिक दबदबा बनाने की तरफ आगे बढ़ रहा है। ये मुद्दे एेसे हैं जो राजनैतिक दूरदर्शिता से हल होने वाले हैं और राष्ट्रवाद में ही इनका आधार है।