प्रख्यात समाजवादी नेता व चिन्तक स्व. डा. राम मनोहर लोहिया की एक बहुत प्रसिद्ध उक्ति है कि ‘राजनीति में जब वैचारिक तर्कों का अकाल हो जाता है तो व्यक्तिगत आलोचना शुरू हो जाती है’। खासतौर पर चुनाव प्रचार के दौरान जब विरोधी पक्ष की आलोचना सैद्धांतिक आधार पर न करके व्यक्तिगत आधार पर की जाती है तो आलोचना करने वाले व्यक्ति की दिमागी हालत का पता लगाया जा सकता है और यह कहा जा सकता है कि यह दिमागी दिवालियेपन की निशानी है। पूर्व में ऐसा कई बार कांग्रेस के नेताओं ने भाजपा नेता व प्रधानमंत्री के बारे में किया और उनकी तुलना में विनाशक चरित्राें को खड़ा करने की कोशिश की अथवा उनके कद को बहुत छोटा करके दिखाने का प्रयास किया जिसका परिणाम कांग्रेस को ही भयंकर रूप से भुगतना पड़ा। उन नेताओं की जनता में छवि अधकचरे व्यक्ति की पेश हुई या नासमझ नेता के रूप में पेश हुई। परन्तु हाल ही में असम के मुख्यमंत्री व भाजपा नेता श्री हेमन्त बिस्व सरमा ने कांग्रेस नेता के दाढ़ी बढ़े चेहरे की तुलना इराक के राष्ट्रपति रहे स्व. सद्दाम हुसैन के चेहरे से करके राजनीति में शालीनता की हदों को इस तरह पार किया कि खुद ‘दाढ़ी’ भी शऱमा जाये।
भारत की राजनीति में सद्दाम हुसैन की क्या प्रासंगिकता हो सकती है? इस बारे में श्री सरमा ही बेहतर जानते होंगे, मगर इतना निश्चित है कि उनकी इस तुलना ने पूरी भाजपा को ही रक्षात्मक पाले में खड़ा कर दिया। श्री सरमा को संभवतः यह मालूम ही होगा कि श्री मोदी की व्यक्तिगत आलोचना करने का खामियाजा पूरी कांग्रेस को किस तरह भुगतना पड़ा था। सर्वप्रथम एक तो ऐसी तुलना करना श्री सरमा के पद के अनुरूप नहीं है, दूसरे उन्हें सद्दाम हुसैन की पूरी जीवनगाथा के बारे में कोई ज्ञान नहीं है, तीसरे उन्हें किसी पुरुष की दाढ़ी की महत्ता के बारे में जरा भी गुमान नहीं है। हिन्दू संस्कृति में दाढ़ी की विशेष महत्ता रही है। दाढ़ी ऋषि-मुनियों का गहना समझा जाता था। यह संन्यासी का भी अलंकार होता था। मगर गृहस्थ पुरुष के लिए दाढ़ी रखना उसके निःस्वार्थी स्वभाव की पहचान होती थी। दाढ़ी रखने से किसी पुरुष की आकृति किस प्रकार की उभरेगी इस पर उसका क्या वश हो सकता है? यदि श्री सरमा स्वयं अपनी दाढ़ी बढ़ा लें तो उनकी आकृति किस प्रकार की होगी और किससे जाकर मिलेगी इसका अन्दाजा तो केवल कोई चित्रकार ही कर सकता है। फिर क्या श्री सरमा दाढ़ी में अपना चित्रकार द्वारा कल्पित चेहरा देख कर दाढ़ी बढ़ायेंगे?
ईश्वर या प्रकृति प्रदत्त रूप पर भी किसी का वश नहीं होता है। इसीलिए भारत के गांवों में यह कहावत आज तक प्रचलित है कि ‘रूप और लक्ष्मी पर कभी घमंड नहीं करना चाहिए।’ सद्दाम हुसैन बेशक अपने देश के एक लोकप्रिय नेता थे मगर तानाशाह थे। अमेरिका ने जब इराक पर 2001 में हमला किया था तो भारत ने भी इसका विरोध किया था, क्योंकि भारत के साथ सद्दाम हुसैन के ऐतिहासिक रूप से अच्छे संबंध रहे थे। उन्होंने न केवल राहुल गांधी का अपमान किया, बल्कि समूची भाजपा समेत भारत के महान लोकतंत्र का भी घनघोर अपमान किया और राहुल गांधी का मजाक उड़ाया। बेशक राहुल गांधी की आलोचना करने का भाजपा या इसके किसी भी नेता को पूरा अधिकार है और उनकी भारत जोड़ो यात्रा के बारे में भी राजनीतिक टिप्पणियां की जा सकती हैं मगर अपने मिशन पर निकले ‘दाढ़ी बढ़ाये’ राहुल गांधी पर व्यक्तिगत अपमानजनक टिप्पणी करने का किसी को अधिकार नहीं दिया जा सकता क्योंकि ऐसा करना ‘मानव मात्र’ का अपमान है।
साठ के दशक में कांग्रेस अध्यक्ष रहे स्व. कामराज नाडार का चेहरा-मोहरा कैसा था? मगर इस पांचवीं पास नेता ने इंग्लैंड से पढ़े प्रधानमंत्री पं. जवाहर लाल नेहरू को अपनी विद्वता और राजनीतिक दूरदर्शिता का लोहा मनवा दिया था जिसकी वजह से पं. नेहरू ने उन्हें कांग्रेस अध्यक्ष बनाकर अपनी पार्टी की डूबती साख को बचाया था। हम आज भी ‘कामराज प्लान’ को क्यों याद करते हैं? राजनीति में सूरत को नहीं बल्कि ‘सीरत’ को याद किया जाता है। सियासत में अगर लफ्जों की अहमियत न होती तो लोकतांत्रिक व्यवस्था की भी कोई महत्ता न होती। लोकतंत्र में सिर्फ अलफाज ही तो होते हैं जिन पर मतदाता यकीन करके सरकारें बनाते और बिगाड़ते हैं। इनके महत्व को जो नेता नहीं पहचानते उन्हें हम सियासत दां किस मुंह से कह सकते हैं। क्या सितम है कि अभी तक राहुल गांधी पर ही भाजपा नेता आरोप लगाया करते थे कि वे शब्दों का महत्व नहीं समझते हैं और कुछ भी बोल जाते हैं मगर जनाब सरमा साहब ने ऐसी उल्टी गंगा बहाई कि पूरी भाजपा ही उनके बयान से कन्नी काटती नजर आ रही है? खुदा खैर करे कि सरमा साहब ने अपने राज्य असम और पड़ोसी सूबे मेघालय में चल रहे सरहदों के झगड़े के बारे में कुछ नहीं बोला वरना एक नया बखेड़ा और शुरू हो जाता ।
हरेक बात पे कहते हो तुम कि तू क्या है
तुम्ही कहो कि ये अन्दाजे गुफ्तगू क्या है