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राजनीति में व्यंग्य-विनोद

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जिस भारत की संसद में रिपब्लिकन पार्टी के नेता श्री रामदास अठावले मौजूद हों वहां गंभीर राजनीतिक बहस के बीच हास्य-विनोद की चुटीली भाषा में गंभीर से गंभीर विषय पर टिप्पणी न की जा सके तो यह भारत की राजनीति के जनाभिमुखी पक्ष का सही और सटीक अवलोकन नहीं होगा। श्री अठावले वर्तमान मोदी सरकार में मन्त्री पद पर काबिज हैं और सत्ता में रहने के बावजूद वह विपक्ष की सराहना भी अपनी व्यंग्यात्मक शैली के लिए प्राप्त करते रहते हैं। राजनीति मूलतः दुरूह विषय है मगर लोकतन्त्र में इसका जनपक्ष लोकरंजक स्वरूप किस तरह ले सकता है इसे यदि किसी ने सफलतापूर्वक बरत कर दिखाया है तो पूर्व प्रधानमन्त्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी ने दिखाया है। उनकी पूरी राजनीति इसी पक्ष की शालीनता का प्रदर्शन रही। वस्तुतः यदि श्री वाजपेयी का सबसे बड़ा योगदान राजनीति में कुछ कहा जा सकता है तो वह यही लोकरंजक पक्ष है।

वर्तमान दौर के राजनीतिज्ञों में से बहुत कम ने बाबू गोविन्द सहाय का नाम सुना होगा। वह उत्तर प्रदेश कांग्रेस के कद्दावर नेता थे और राज्य के लौह पुरुष कहे जाने वाले स्व. चन्द्र भानु गुप्ता का दायां हाथ माने जाते थे। चुनावों के अवसर उनकी जनसभाओं में अटल बिहारी वाजपेयी से भी ज्यादा ठहाके लगा करते थे। कांग्रेस पार्टी के प्रत्याशियों में उन्हें अपने चुनाव क्षेत्र में बुलाने की होड़ लगा करती थी। जब 1967 के चुनावों में उत्तर प्रदेश में जनसंघ का दबदबा बढ़ने लगा और इस पार्टी ने राष्ट्रवाद और गोहत्या निषेध को अपना मुख्य चुनावी मुद्दा बनाकर लोगों को भरमाना शुरू किया तो बाबू गोविन्द सहाय ने जनसंघ का विरोध राज्य में करने की कमान संभाली। वह अपनी जनसभाओं में जनसंघ पर कभी सीधा हमला नहीं करते थे। जनसंघ के नेता तब हिन्दू राष्ट्र की बात भी खुलकर किया करते थे। बाबू गोविन्द सहाय अपने अंदाज में कहते थे कि ‘‘ये जनसंघी केवल भारत में ही नहीं हैं बल्कि पाकिस्तान में भी हैं। वहां के जनसंघियों ने अपनी पार्टी का नाम पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी रखा हुआ है। पाकिस्तान के जनसंघी कहते हैं कि यह कैसा पाकिस्तान है जिसमें ताजमहल नहीं है। दिल्ली की जामा मस्जिद नहीं है और लाल किला नहीं है। यहां के जनसंघी कहते हैं कि यह कैसा हिन्दोस्तान है जिसका राष्ट्रीय ध्वज भगवा नहीं है और लाहौर का महाराजा रणजीत सिंह का किला नहीं है !’’

उनके एेसे बयानों पर जनता अनायास ही हंसने लगती थी। अपने व्यंग्यात्मक लहजे में बाबू गोविन्द सहाय राजनीति की उलझी हुई गुत्थी को बहुत सहजता के साथ इस प्रकार खोल देते थे कि सुनने वाला ठहाका लगाने के बाद गंभीर चिन्तन में खो जाये। इसी प्रकार श्री अटल बिहारी वाजपेयी भी कांग्रेस सरकारों की कमियां बहुत व्यंग्यात्मक तरीके से लोगों तक पहुंचाने में माहिर थे। पाकिस्तान द्वारा जब साठ व सत्तर के दशक के शुरू में सीमा रेखा का उल्लंघन किया जाता था तो वह सरकार की आलोचना सीधे न करके बहुत चुटीले अन्दाज में करते थे। वह कहते थे कि ‘‘केन्द्र की सरकार का रवैया बहुत नरम है। पाकिस्तान ने हमारी सीमा स्थित चौकियों पर हमला बोलकर हमारे एक जवान को शहीद कर डाला। भारत सरकार ने ‘कड़ा विरोध’ पत्र लिखा है !’’ जब 1969 में सऊदी अरब के रब्बात शहर में हुए मुस्लिम देशों के सम्मेलन में भारत का प्रतिनिधित्व करने के लिए भेजे गये तत्कालीन केन्द्रीय मन्त्री स्व. फखरुद्दीन अली अहमद को उसमें शिरकत करने की इजाजत नहीं दी गई तो श्री वाजपेयी ने चुटकी ली कि अब ‘किक इंडिया’ की नौबत आ गई है किन्तु संसद के भीतर हास्य-व्यंग्य की लहर सबसे ज्यादा स्वतन्त्र पार्टी के नेता स्व. पीलू मोदी पैदा किया करते थे। जब केन्द्रीय मन्त्री रहते हुए स्व. बाबू जगजीवन राम ने अपना एक साल का आयकर रिटर्न नहीं भरा था और प्रधानमन्त्री इन्दिरा गांधी ने यह कहते हुए उनका बचाव किया था कि ‘‘बाबू जी रिटर्न भरना भूल गये थे तो स्व. मोदी ने भरी संसद में ही चुटकी ली थी कि बाबू जी को भूलने की बीमारी कब से लगी। तब जगजीवन राम रक्षामन्त्री थे। उन्होंने व्यंग्य किया था कि ‘‘बाबू जी को भारत की सीमाओं की तो अच्छी तरह याद है।’’

दरअसल हास्य-व्यंग्य को संसद के भीतर जीवित रखकर हम संसदीय प्रणाली की व्यवस्था में सरसता का वह संचार करते हैं जिसकी आश्यकता प्रत्येक कार्य क्षेत्र में जरूरी होती है और जो नई ऊर्जा का संचार भी करती है। इस मामले में राजद नेता श्री लालू प्रसाद का भी जवाब नहीं रहा। उनका अन्दाज थोड़ा अलग रहा। वह जब राज्यसभा में वाजपेयी शासन के दौरान सदस्य रूप में आये तो उन्होंने भाजपा के सहयोगी दल जनता दल के सांसद ललन बाबू को बिहार के हितों की रक्षा न करने के लिए जिस तरह निशाने पर लिया उससे सदन में ठहाकों की गूंज उठ पड़ी थी। उन्होंने कहा कि ‘‘ललन बाबू बहुत मटकी मार लिये हो। अब हम आ गये हैं। देखेंगे कि बिहार का नुक्सान कोई कैसे करता है।’’

कहने का आशय सिर्फ इतना सा है कि व्यंग्य में ‘अपमान’ का भाव कहीं नहीं होता है और जिसमें यह भाव होता है वह ‘व्यंग्य’ नहीं होता है किन्तु राज्यसभा में कांग्रेसी सांसद श्रीमती रेणुका चौधरी की हंसी पर प्रधानमन्त्री द्वारा रामायण टीवी सीरियल का सन्दर्भ देकर की गई टिप्पणी पर जो विवाद खड़ा हुआ है उसे भाजपा के आईटी सेल प्रमुख अमित मालवीय द्वारा अपमानजनक तरीके से सोशल मीडिया में पेश करने से यह प्रश्न खड़ा होता है कि महिला के सम्मान को हम किस तराजू पर रखकर तोल सकते हैं। रामायण का जिक्र करके प्रधानमन्त्री ने उसके किसी पात्र का नाम नहीं लिया था परन्तु भाजपा के अति उत्साही कार्यकर्ताआें ने उसे नाम दे डाला। व्यंग्य-विनोद से उपजे किसी भी प्रकार के भ्रम को तुरन्त दूर किया जा सकता था। इसका भी एक किस्सा बहुत मजेदार है। लालू यादव ने ही एक बार स्वयं यूपीए सरकार में मन्त्री रहते हुए लोकसभा में दूसरे मन्त्री के बारे में तीखे शब्द बोल दिये थे। इस पर जब प्रतिक्रिया हुई तो उन्होंने कहा कि ‘‘आप परेशान न हों, हम अपने शब्द वापस ले लेते हैं।’’ बस सदन ठहाके लगाने लगा।

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