दिल्ली, महाराष्ट्र और गुजरात में कोरोना वायरस के संक्रमण का दायरा बहुत अधिक बढ़ने से स्थितियां भयानक होती जा रही हैं। बड़े शहरों में स्वास्थ्य सुविधाएं चरमराने लगी हैं। सरकारी अस्पतालों पर बोझ बढ़ गया है। प्राइवेट अस्पताल कोरोना मरीजों को दाखिल करने से इंकार कर रहे हैं या फिर उनसे दो लाख से 5 लाख तक अग्रिम मांग रहे हैं। मरीजों को शवों के संग रहना पड़ रहा है। इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने संज्ञान भी लिया है और राज्य सरकारों को अस्पतालों की व्यवस्था में सुधार करने का निर्देश भी दिया है। मरीजों से जानवरों से भी बदतर सलूक हो रहा है। श्मशान घाटों पर भी कोरोना वायरस से मरने वालों के अंतिम संस्कार के लिए भी परिजनों को आठ-आठ घंटे तक इंतजार करना पड़ता है। न अर्थी नसीब होती है और न ही परिवार का कंधा। लॉकडाउन के चलते लोग पहले ही हताशा में जी रहे थे, डरावने दृश्यों ने उन्हें अवसाद की ओर धकेलना शुरू कर दिया है। लोग सोचने को विवश हैं कि क्या कोरोना से उन्हें कभी मुक्ति मिलेगी भी या नहीं।
वैसे तो दुनिया ने कभी ऐसी कल्पना भी नहीं की होगी कि उन्हें कोरोना वायरस की महामारी से जूझना पड़ेगा। जो देश कोरोना की जंग में जीत रहे हैं उनकी आबादी बहुत कम है। सीमित जनसंख्या वाले देशों में कोरोना से बचाव के उपाय लागू कराना आसान होता है। भारत जैसी विशाल आबादी वाले देश की अपनी समस्याएं हैं। आप इतनी बड़ी आबादी से नियमों का सख्ती से पालन कराने के संबंध में सोच भी नहीं सकते। एक कड़वा सच यह भी है कि कोरोना के चलते ज्यादातर बदलाव नकारात्मक हो सकते हैं और भारत भी इनसे अछूता नहीं रहने वाला लेकिन इन तमाम बड़े-बड़े दावों और आशंकाओं के बीच कुछ छोटे और बड़े सकारात्मक बदलाव भी हैं। सवा अरब से ज्यादा आबादी वाला हमारा देश कई बार सही व्यवहार करने के मामले में बड़े ढीठ स्वभाव का दिखता है, फिर भी लोग बचाव के उपाय अपनाने लगे हैं लेकिन कोरोना से बचाव के उपाय ही एकमात्र समाधान नहीं है।
लोगों की तेजी से टैस्टिंग और उनके उपचार की व्यवस्था भी बहुत जरूरी है। यह भारत के लिए दुर्भाग्यपूर्ण है कि हमारा देश वैश्विक बीमारियों के सम्पूर्ण बोझ का लगभग 30 फीसदी हिस्सा वहन करता है और सार्वजनिक स्वास्थ्य पर हमारी सरकारें खर्च के मामले में निचले पायदान पर हैं तो यह जाहिर करता है कि हमारी रहनुमा अवाम के स्वास्थ्य के प्रति कितना सचेत हैं। स्वास्थ्य सुविधाओं के नाम पर अगर दिल्ली, मुम्बई और अहमदाबाद जैसे शहर बदरंग और सरकारी नीतियों की उपेक्षा के शिकार हैं तो फिर दूरदराज के अवाम के प्रति नियत साफ दृष्टिगोचर होती है। दिल्ली में कोरोना मरीजों का सबसे ज्यादा बोझ दस बड़े सरकारी अस्पतालों पर है। दिल्ली सरकार ने स्वास्थ्य क्षेत्र में काम तो किया लेिकन वह महामारी से निपटने में सक्षम नहीं। स्वास्थ्य सेवा सुलभ होने के मामले में भारत 195 देशों में 154वें पायदान पर है। यहां तक कि यह बंगलादेश, नेपाल, घाना, लाइबेरिया से भी बदतर हालत में है। स्वास्थ्य सेवाओं पर भारत सरकार का खर्च जीडीपी का 1.15 फीसदी है, जो दुनिया में सबसे कम है। भारत में 1995 में यह 4.06 फीसदी था, 2013 में घट कर 3.97 फीसदी हुआ और 2017 में और भी घटता हुआ 1.15 फीसदी ही रह गया। देश की अर्थव्यवस्था की गुलाबी तस्वीर, बड़े-बड़े दावे बहुत अच्छे लगते हैं, बड़ी-बड़ी योजनाएं लोगों को आकर्षित करती हैं लेकिन स्वास्थ्य सेवाओं की जमीनी हकीकत देख देश के चमकदार होने के अनुमान में विरोधाभास नजर आता है। देश में हर वर्ष हाइपरटेंशन, टीबी, डायरिया और डेंगू के मरीजों की संख्या बढ़ रही है। महानगरों की आबादी बहुत बढ़ चुकी है। आबादी का घनत्व इतना ज्यादा है कि दो गज की दूरी बनाए रखना भी मुश्किल है। 25-25 गज के मकानों में दो गज की दूरी कैसे बनाए रखी जा सकती है। सरकारी और निगम अस्पतालों में मेडिकल और पैरामेडिकल स्टाफ की कमी है। कोरोना काल में महामारी से लड़ने वाले योद्धाओं को तीन माह से वेतन नहीं मिलना अपने आप में शर्मनाक है। भारत की अधिकांश आबादी अभी भी बुनियादी स्वास्थ्य सेवाएं हासिल करने के लिए जूझ रही है।
देश में 80 फीसदी शहरी और 90 फीसदी ग्रामीण नागरिक अपने सालाना खर्च का काफी हिस्सा स्वास्थ्य सुविधाओं पर खर्च कर रहे हैं, जिससे हर साल चार फीसदी आबादी गरीबी रेखा से नीचे आ जाती है। देश भर में 14 लाख डाक्टरों की कमी है। कमी होने के बावजूद प्रतिवर्ष 5500 डाक्टर ही तैयार होते हैं। कोरोना काल में जिस हर्ड इम्युनिटी की बात की जा रही है वह सम्भव तभी होगी जब देश की आबादी कुपोषण का शिकार नहीं हो। वित्त मंत्री ने स्वास्थ्य सेवाओं के बजट में दस फीसदी इजाफा करने की घोषणा की थी लेकिन कोरोना ने सब गड़बड़ कर रख दिया। कोरोना काल का संदेश यही है कि अब भविष्य में हैल्थ सैक्टर पर ज्यादा फंड खर्च किया जाए ताकि लोगों को किसी भी बीमारी में असहाय होकर अस्पतालों की चौखट पर दस्तक देते दम न तोड़ना पड़े। सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं को मजबूत करना ही देश का मिशन होना चाहिए।
आदित्य नारायण चोपड़ा
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