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सत्र न्यायाधीशों की सुरक्षा ?

देश की सबसे बड़ी अदालत सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति एन.वी. रमण ने जिस तरह पुलिस, गुप्तचर विभाग व सीबीआई को न्यायपालिका की सुरक्षा का संज्ञान न लेने और जिला स्तर पर सत्र न्यायाधीशों की शिकायतों पर ध्यान न देने के लिए लताड़ा है,

देश की सबसे बड़ी अदालत सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति एन.वी. रमण ने जिस तरह पुलिस, गुप्तचर विभाग व सीबीआई को न्यायपालिका की सुरक्षा का संज्ञान न लेने और जिला स्तर पर सत्र न्यायाधीशों की शिकायतों पर ध्यान न देने के लिए लताड़ा है, उससे स्पष्ट है कि भारत में कानून का राज स्थापित करने की जिम्मेदार न्यायपालिका को अपना कार्य करने में भारी दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है और अपराधी व असामाजिक तत्व कानून को ही सीनाजोरी दिखाने की हिमाकत कर रहे हैं।
 पिछले दिनों झारखंड के धनबाद जिले के अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश श्री उत्तम आनन्द की खुली सड़क पर जिस तरह हत्या की गई उससे साफ है कि भारतीय फौजदारी कानून में सबसे अहम भूमिका निभाने वाले सत्र न्यायाधीशों को किस तरह अपनी कलम से न्याय को जिन्दाबाद रखने के लिए दुश्वारियों से गुजरना पड़ता है। भारत की जो फौजदारी कानून व्यवस्था है उसमें सत्र न्यायाधीश की अदालत का फैसला किसी भी मुकदमे की वह अहम कड़ी होती है जिसमें दिखाये गये सबूत व तथ्य सर्वोच्च न्यायालय तक चलते हैं। मगर इन सत्र न्यायाधीशों को  मुकदमे में संलग्न बड़ी-बड़ी हस्तियों और माफिया गिरोहों व गुंडातत्वों की परवाह न करते हुए निडरता के साथ फैसला करना होता है। ये अराजक व गुंडा तत्व मुकदमे के फैसले को प्रभावित करने के लिए विभिन्न दबावकारी तकनीकें तक अपनाने की कोशिशें करते हैं और सत्र न्यायाधीशों को ‘व्हाट्स एप’ सन्देश या सोशल मीडिया की मार्फत डराने या धमकाने तक की हरकतें करते हैं। कुछ मुकदमों में तो नामी-गिरामी हस्तियां तक शामिल होती हैं। अतः पुलिस का कर्त्तव्य बनता है कि वह सत्र न्यायाधीशों को सुरक्षा का एेसा घेरा प्रदान करे जिससे बदमाशों को ‘पर’ मारने की भी हिम्मत न हो सके। परन्तु न्यायमूर्ति रमण ने इस बारे में हो रही लापरवाही का संज्ञान बहुत ही सख्त तरीके से लेते हुए कहा है कि इस सन्दर्भ में सीबीआई को जांच करने के निर्देश देने के बाद भी कोई नतीजा नहीं निकला और गुप्तचर विभाग भी अनमना सा बना रहा। सबसे पहले यह समझा जाना जरूरी है कि भारत की न्यायिक व्यवस्था में सत्र न्यायाधीश की भूमिका फौजदारी मामलों में सबसे महत्वपूर्ण इसलिए रखी गई है क्योंकि किसी भी मुकदमे के सन्दर्भ मे चश्मदीद गवाहों से लेकर साक्ष्य व तथ्यों व गवाहियों का सत्र न्यायालय ही प्रथम व प्रमुख स्तर का न्याय का मन्दिर होता है। किसी भी मुकदमे के वादी और प्रतिवादी पक्ष अपने-अपने हक में ‘बोलते’ हुए साक्ष्य जुटाते हैं तब  न्यायाधीश किसी फैसले पर पहुंचते हैं। इस अर्थ में सत्र न्यायालय भारत की फौजदारी कानून व्यवस्था का एेसा ‘देवालय’ होता है जिसमें पेश किये गये साक्ष्यों को सर्वोच्च न्यायालय तक में नहीं बदला जा सकता। अतः सत्र न्यायाधीश की भूमिका एेसे बेबाक और निरपेक्ष मुंसिफ की होती है जो अपने सामने पेश किया गये गवाहों और साक्ष्यों की तसदीक बेलाग तरीके से करके किसी फैसले पर पहुंचता है और इस तरह पहुंचता है कि यदि उसके फैसले को उच्च न्यायालय में भी चुनौती दी जाये तो साक्ष्यों और गवाहों की जांच-पड़ताल में उसकी कोई कमी न निकल पाये क्योंकि सत्र न्यायाधीश ही तरक्की पाकर उच्च न्यायालयों के न्यायाधीश नियुक्त होते हैं। अतः सत्र न्यायाधीश की जिम्मेदारी बहुत बड़ी होती है जिसे सर्वोच्च न्यायालय भी नजर अन्दाज  नहीं कर सकता। मगर हम देख रहे हैं कि पिछले कुछ सालों से न्यायालयों के फैसले की आलोचना करने का नया चलन निकल पड़ा है। इस तरफ न्यायमूर्ति रमण ने भी अपनी टिप्पणी करके देश का ध्यान खींचा है।
 न्यायालय को इससे कोई मतलब नहीं होता कि उसके फैसले से कौन सा पक्ष प्रभावित होगा और कौन सा लाभान्वित होगा। उसे आंखों पर पट्टी बांध कर दूध का दूध और पानी का पानी करना होता है। मगर कुछ लोगों ने आजकल यह धंधा बना लिया है कि वे न्यायालयों के फैसलों में भी हानि-लाभ देखने लगे हैं और अपने मन मुताबिक फैसला न आने पर तीखी आलोचना करने लगते हैं। बेशक न्यायिक फैसलों की समालोचना की जा सकती है मगर वह केवल तथ्यों की वस्तुगत परख तक ही सीमित होनी चाहिए। इससे ऊपर जाने पर वह आलोचना नहीं रहती बल्कि न्यायपालिका पर दोष मढ़ने की प्रक्रिया हो जाती है।  इस प्रवृत्ति पर लोकतन्त्र में अंकुश लगाना इसलिए जरूरी है क्योंकि न्यायिक प्रक्रिया बहुमत व अल्पमत के दायरे से बहुत ऊपर ‘समदृष्टा’ की भूमिका में रहती है। उसके समक्ष बहुमत का विचार भी तथ्यहीन हो सकता है और अल्पमत का विचार भी। वह भीड़ की मानसिकता और अकेले व्यक्ति के विचार तक के बीच से सत्य खोज कर लाती है और फिर फैसला देती है। उसके समक्ष न कोई सत्ता होती है और न कोई विपक्ष। वह केवल ‘सत्यपक्ष’ की पैरोकार होती है। संविधान की सत्ता ही न्यायपालिका का धर्म होता है। अतः बहुत जरूरी है कि देश में कानून का राज स्थापित करने वाली स्वतन्त्र न्यायपालिका के प्रथम मजबूत स्तम्भ सत्र न्यायाधीश (सेशंस जज) को देश की सीबीआई से लेकर गुप्तचर विभाग व राज्यों की पुलिस पूरी सुरक्षा देते हुए संविधान के प्रति उठाई गई अपनी कसम को पूरा करे और अपने राजनीतिक आकाओं को इस मार्ग में आड़े न आने दें। इसके साथ यह भी जरूरी है कि न्यायालय के फैसले का विरोध करने वालों के लिए वाजिब कानूनी इन्तजाम हो।

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