पुराना गीत याद आते ही कि ‘‘देख तेरे संसार की हालत क्या हो गई भगवान, कितना बदल गया इंसान…’’ पहले तो यह लग रहा था कि इंसान फास्ट लाइफ में इतना बदल गया है कि उसे न अपने-पराये की समझ है, न रिश्ते नाते, न भारतीय संस्कृति। बस सब भागते नजर आ रहे हैं। आज की तारीख में सारे विश्व में कोरोना का प्रभाव इतना है कि बहुत ही अजीब किस्म का फर्क चारों ओर नजर आ रहा है।
जन्म से लेकर मौत तक सब कुछ इतनी जल्दी बदल जाएगा इसकी किसी ने कल्पना नहीं की थी । पूरी दुनिया सारे नियम बदल चुकी है। शिक्षा जगत में कभी किसी ने यह कल्पना नहीं की थी कि बच्चों को घरों में ही बैठ कर पढ़ना पड़ेगा और आज के इस दौर में आफिस या कारखाने सब बंद होकर लाॅकडाउन की भेंट चढ़ जाएगा और इंसान एक-दूसरे से दूरियां बढ़ाने को मजबूर हो जाएगा। यह कल्पना एक आम आदमी ताे क्या वैज्ञानिकों ने भी नहीं की होगी, परन्तु जब सब कुछ हर धर्म में बदल गया हो तो इस परिवर्तन को भी हमें स्वीकार कर लेना ही चाहिए और साथ ही अपना कर्म भी करते रहना चाहिए।
पिछले दिनों नार्थ एमसीडी की ओर से एक आदेश जारी किया गया कि अंतिम संस्कार सीएनजी के अलावा लकड़ी से भी किया जाएगा। आप जानते ही हैं कि पहले हमारे यहां अंत्येष्टि के वक्त हमेशा गंगाजल मिश्रित स्वच्छ जल से मृतक को पवित्र स्नान कराया जाता है। यह व्यवस्था निगमबोध घाट तक में है। इसके बाद लकड़ी की आग से अंत्येष्टि कर दी जाती है। कर्मकांड की यह अनंत परम्परा हमारे यहां सदियों चली आ रही है लेकिन इस खतरनाक कोरोना के प्रभाव को देखकर दिल्ली के अनेक श्मशान घाटों में लकड़ी से अंत्येष्टि करने वाले सेवकों ने कहा कि लकड़ी से जब अंत्येष्टि की जाती है तो अग्नि का ताप और धुआं कोरोना का वायरस फैलाता है इसलिए हम यह काम नहीं करेंगे। अनेक घाटों पर इस काम के लिए अंतिम कर्मकांड कराने वाले ब्राह्मण और आचार्यों के अलावा कर्मचारी भी नियुक्त रहते हैं। दिल्ली के कुछ जाने -माने श्मशान घाटों पर कई कर्मचारी अंतिम संस्कार के लिए लकड़ी के प्रयोग का विरोध करते हुए अब सीएनजी से शव को जलाने की वकालत कर रहे हैं। उन्होंने बाकायदा ऐलान भी किया है कि हम लकड़ी से शवों को नहीं जलाएंगे। कइयों ने काम भी छोड़ दिया है। यह सचमुच बहुत ही चौंकाने वाली स्थिति है। मेरा तो सभी से अनुरोध है कि आज संकट की इस घड़ी में जब सारा देश एकजुट होकर मुकाबला कर रहा है तो कम से कम अंतिम यात्रा में कोई विवाद नहीं होना चाहिए।
बेशक मंत्र पढ़ने वाले विद्वान लोग हों या अन्य ब्राह्मण आचार्य या अन्य पंडित लोग हों, वे समझदार हैं। संकट की इस घड़ी में कम से कम उन लोगों का सम्मान करना चाहिए जिनके घरों से अंतिम विदाई होती है। हमारे देश की संस्कृति यही है कि मृतक की अर्थी जब श्मशान पहंुचे तो उसे पवित्र अग्नि के माध्यम से उसकी आत्मा को मुक्त किया जाए। अब आगे कैसे चलना है। मैं तो सब-कुछ उनके विवेक पर छोड़ती हूं। कोरोना ने हमारे खान-पान के लिए नियम बदले, परीक्षा के नियम बदले, जीवनशैली बदल डाली, मुंह पर मास्क लगाने को अनिवार्य बना दिया गया परंतु फिर भी परंपराएं चल रही हैं। जश्न से लेकर मातम तक हर तरफ नियम बदल गए हैं। इस मौके पर प्रधानमंत्री मोदी जी के नेतृत्व में भारत ने विभिन्न उपायों से देशवासियों को कोरोना से बचाने की जो मुहिम छेड़ी है हम उनका स्वागत करते हैं लेकिन अब इस घड़ी में जो काम कर्मकांड करने वाले विद्वान आचार्यों का है वे इस मामले में कोई ऐसी स्थिति पैदा न करें कि जिससे विवाद पैदा हो क्योंकि आज के समय में बहुत कुछ सोशल मीडिया पर वायरल हो जाता है। आज के दौर में जब डॉक्टर लोग और पुलिस कर्मचारी अन्य हेल्थ कर्मियों के साथ-साथ मीडिया के लोग दिन-रात दफ्तरों, अस्पतालों और सड़कों पर ड्यूटियां कर रहे हैं तो फिर हमें किसी के जीवन के समाप्त होने पर पारंपरिक कर्मकांड का भी धार्मिक नियमों के तहत सम्मान करना चाहिए। सब लोग विज्ञान के तहत अपना काम कर रहे हैं और जो कुछ सोशल मीडिया पर देखा उसका वैज्ञानिक पहलू भी पढ़ा जिसमें यह कहा गया है कि शव को जलाने से कोई कोरोना वायरस नहीं फैलता।
इस सबके बारे में मैंने जब सोशल मीडिया पर लोगों की भावनाओं से रूबरू किया तो मैं यह स्पष्ट कर रही हूं कि लकड़ियों से शव को जलाने से मना करने वाले एक बात समझ लें कि हर चीज के पीछे एक विज्ञान काम कर रहा होता है। समाचार पत्र कोरोना फैलाते हैं। यह बात बहुत वायरल हुई परंतु जल्द ही स्पष्ट हो गया कि यह खबर फेक थी क्योंकि सच्चाई प्रकाशित करने वाले समाचार पत्र हों या अन्य पत्रिकाएं हों, कागज से कभी कोरोना नहीं फैलता, इस बात को लेकर स्वास्थ्य मंत्रालय ने भी स्पष्टीकरण जारी किया और जल्द ही चीजें स्पष्ट हो गईं। आज हमारे समाचार पत्र के विक्रेता और डिस्ट्रीब्यूटर अखबार घरों में पहले की तरह पंहुचा रहे हैं।
आज यह भी है कि अपनी परम्पराओं के अनुसार लोग अस्थियां हरिद्वार ले जाना चाहते हैं, उन्हें भी मुश्किल। कइयों को तो अनुमति लेकर देनी पड़ रही है। पंजाब केसरी के रिपोर्टर वारियर्स की तरह काम कर लोगों की मदद पुलिस के साथ मिलकर कर रहे हैं। मेरे फोन को सांस लेने की फुर्सत नहीं। कभी मेल, व्हाट्सएप हैल्प के लिए रास्ता ढूंढने के लिए है। परन्तु किस-किस की सुनें। सारा दिन फोन में ही काम होता है। अभी मुझे जो सीधे फोन आते हैं उन्हें रिसीव नहीं करती, पर सारा दिन मेल और व्हाट्सएप पर जवाब देती रहती हूं।
अब इस मामले में जब हिंदू, मुसलमान, सिख, इसाई अंतिम विदाई को लेकर अपने-अपने तरीके से सब कुछ कर रहे हैं तो इससे जुड़े लोगों को यह ध्यान रखना चाहिए कि धार्मिक परंपराएं सम्मान के योग्य हैं और इनका पालन किया जाना चाहिए। समय आ गया है कि हर चीज के व्यावहारिक और वैज्ञानिक पहलू देखकर ही विद्वान लोग निर्णय लें आैर कोरोना को देखकर किसी काम या अपने कर्म का बहिष्कार न करें। यही समय की मांग है। यह सम्मान हर धर्म के ज्ञानवान लोगों ने करना है।