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शिवसेना की ‘न्यायिक गुहार’

उद्धव ठाकरे की शिवसेना का चुनाव आयोग के माध्यम से शिन्दे गुट द्वारा किये गये ‘अपहरण’ के मामले को लेकर सर्वोच्च न्यायालय में जो सुनवाई चल रही है वह राजनैतिक दलों की टूट-फूट के सम्बन्ध में हुए कानूनी विवादों के इतिहास में अभी तक की सबसे महत्वपूर्ण दूरगामी प्रभाव डालने वाली घटना है।

उद्धव ठाकरे की शिवसेना का चुनाव आयोग के माध्यम से शिन्दे गुट द्वारा किये गये ‘अपहरण’ के मामले को लेकर सर्वोच्च न्यायालय में जो सुनवाई चल रही है  राजनैतिक दलों की टूट-फूट के सम्बन्ध में हुए कानूनी विवादों के इतिहास में अभी तक की सबसे महत्वपूर्ण दूरगामी प्रभाव डालने वाली घटना है। स्वतन्त्र भारत के इतिहास में अभी तक ऐसा नहीं हुआ है कि किसी दल की आपसी गुटबाजी की लड़ाई में किसी एक गुट को ही असली दल चुनाव आयोग ने मान कर उसे अपना प्रमाणपत्र दे दिया हो। शिवसेना का मामला इस सन्दर्भ में बहुत विलक्षण माना जा रहा है। सर्वोच्च न्यायालय में महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमन्त्री श्री उद्धव ठाकरे ने चुनाव आयोग के इसी फैसले को चुनौती दी है और अपने पक्ष में सर्वश्री कपिल सिब्बल व अभिषेक मनु सिंघवी जैसे विधि वेत्ता खड़े किये हैं। सर्वोच्च न्यायालय की जो तीन सदस्यीय पीठ इस मामले की सुनवाई कर रही है उसके मुखिया स्वयं मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति डी.वाई. चन्द्रचूड हैं और उनके साथ न्यायमूर्ति पी.सी. नरसिम्हा व जे.बी. परदीवाला हैं। मामले की सुनवाई करते हुए न्यायामूर्ति चन्द्रचूड ने टिप्पणी की कि अदालत बिना दूसरे पक्ष को सुने चुनाव आयोग के फैसले पर स्थगन आदेश नहीं दे सकती है। इसकी संवैधानिक दृष्टि से बहुत महत्ता है क्योंकि चुनाव आयोग स्वयं एक संवैधानिक संस्था होते हुए भारत में राजनैतिक दलों की व्यवस्था की अभिभावक है और उनके सन्दर्भ में उसके पास न्यायिक अधिकार भी हैं। 
मगर सर्वोच्च न्यायालय देश की समूची संवैधानिक व्यवस्था का न केवल संरक्षक है बल्कि उसका व्याख्याकार भी है। अतः यहां से जो भी फैसला आयेगा वह इस विषय में भविष्य का मार्ग दर्शक होगा। अतः देश के कानून विशेषज्ञों की नजर इस मुकदमे में उठने वाले हर बारीक से बारीक नुक्ते पर रहेगी। श्री ठाकरे के वकीलों का यह कहना कि जिस तरह चुनाव आयोग ने शिन्दे गुट को शिवसेना नाम देकर उसे इस पार्टी का चुनाव निशान ‘तीर-कमान’ भी आवंटित कर दिया है उसकी रोशनी में यह गुट शिवसेना के बैंक खातों व सम्पत्ति पर भी कब्जा जमा सकता है, के उत्तर में न्यायामूर्ति चन्द्रचूड का यह सवाल खड़ा करना कि क्या चुनाव आयोग ने इस सम्बन्ध में अपने आदेश में कुछ कहा है ? शिन्दे गुट के हाथ बांध देता है और ताईद भी करता है कि वह जल्दबाजी में कोई ऐसा कदम नहीं उठा सकते जो चुनाव आयोग के फैसले के दायरे से बाहर जाता हुआ दिखे। मगर सर्वोच्च न्यायालय ने उद्धव ठाकरे गुट को राहत देने का काम यह किया है कि उसे शिवसेना (उद्धव बाला साहेब ठाकरे) ही कहा जायेगा और उसका चुनाव निशान ‘मशाल’ ही रहेगा, हालांकि चुनाव आयोग ने भी अपने फैसले में कहा था कि जब तक राज्य के दो उपचुनाव चिचंपोकली एवं कसबपेठ नहीं हो जाते हैं तब तक उद्धव गुट को इसी नाम से जाना जायेगा। इसी फैसले से यह नतीजा निकलता है कि शिवसेना बन जाने के बावजूद शिन्दे गुट पूरी पार्टी के विधायकों के लिए कोई सचेतक या व्हिप जारी नहीं कर सकता, क्योंकि चुनाव आयोग ने फौरी तौर पर खुद उद्धव गुट को अलग चुनाव निशान वाली पार्टी स्वीकार किया हुआ है। 
इस बारे में शिन्दे गुट के वकील राम जेठमलानी ने भी अदालत से कहा कि व्हिप जारी करने की कोई योजना नहीं है। मगर मूल सवाल सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष यह है कि जिस प्रकार चुनाव आयोग ने शिन्दे गुट को पार्टी का मूल नाम शिवसेना व चुनाव निशान तीर-कमान अता किया है क्या वह संवैधानिक दृष्टि से न्यायोचित है? राजनैतिक दलों की व्यापक तन्त्र प्रणाली में विधानमंडल दल व सामान्य संगठन अलग- अलग शाखाएं होती हैं। किसी भी राजनैतिक दल के विधानमंडल दल को विधानसभा या लोकसभा के भीतर उसका अध्यक्ष मान्यता देता है जबकि सर्वसाधारण संगठन को चुनाव आयोग मान्यता देता है। जाहिर है कि चुनाव आयोग से मान्यता लेकर ही राजनैतिक दल अपने प्रत्याशियों के माध्यम से चुनाव में भाग लेकर उन्हें सदनों में चुन कर भेजती हैं परन्तु सदन में पहुंच कर ये विधायक दल अपना राजनैतिक चरित्र भी बदल सकते हैं जो अध्यक्ष की मान्यता पर निर्भर करता है। शिवसेना के विधानमंडल दल में ही चारित्रिक परिवर्तन आया है जबकि इसके सदन से बाहर के सांगठनिक ढांचे में किसी प्रकार का बदलाव देखने में नहीं आ रहा है अतः विधानमंडल दल के बदले हुए चरित्र को ही संज्ञान में लेकर चुनाव आयोग द्वारा इस दल को ही मूल शिवसेना मान लेना कानूनी दृष्टि से कई प्रकार के सन्देहों को जन्म दे रहा है और पूरे राजनैतिक जगत में इसे लेकर हड़कम्प मचा हुआ है।
भारत में ऐसा मामला प्रमुख रूप से 1969 में कांग्रेस पार्टी का विघटन होने के समय आया था जब स्व. इदिरा गांधी ने प्रधानमन्त्री रहते हुए अपनी कांग्रेस पार्टी तोड़ दी थी। उस समय लोकसभा के भीतर कांग्रेस सांसदों का बहुमत उनके पक्ष में था इसके बावजूद चुनाव आयोग ने उन्हें मूल कांग्रेस नाम नहीं दिया था और दोनों गुटों को अलग-अलग कांग्रेस का नाम कांग्रेस (आर) व कांग्रेस (ओ)  देते हुए मूल चुनाव निशान दो बैलों की जोड़ी ‘जाम’ कर दिया था तथा इन्दिरा जी की कांग्रेस (आर) को ‘गाय-बछड़ा’ व मोरारजी देसाई-निजलिगप्पा की कांग्रेस (ओ) को ‘चरखा कातती हुई महिला’ चुनाव चिन्ह दिया था। यह न्यायोचित बंटवारा कहलाया था। उस समय मुख्य चुनाव आयुक्त श्री एस.पी. सेनवर्मा थे और उनका इकबाल पूरे देश में इस फैसले से ही बुलन्दियां छूने लगा था।

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