अयोध्या पर सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक फैसले ने देश के हिन्दुओं में एक नए ऐतिहासिक बोध को फिर से जगा दिया है। इस फैसले ने हमें फिर सोचने का अवसर दिया है कि कथित धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा के जोश में हम अपने अतीत को अनदेखा नहीं करें क्योंकि अतीत के गर्भ से ही वर्तमान जन्म लेता है और यही वर्तमान हमारे भविष्य को दिशा देता है। यदि राष्ट्र की धरती अथवा राजसत्ता छिन जाये तो शौर्य उसे वापस ला सकता है। यदि धन नष्ट हो जाए तो परिश्रम से कमाया जा सकता है, परन्तु यदि राष्ट्र अपनी पहचान ही खो दे तो कोई भी शौर्य या परिश्रम उसे वापस नहीं ला सकता। इसी कारण भारत के वीर सपूतों ने भीषण विषम परिस्थितियों में लाखों अवरोधों के बाद भी राष्ट्र की पहचान को बनाये रखने के लिए बलिदान दिए। इसी राष्ट्रीय चेतना और पहचान को बचाये रखने का प्रतीक रहा श्रीराम जन्म भूमि मंदिर निर्माण का संकल्प। हम सब सन् 2020 में अयोध्या में श्रीराम जन्म भूमि पर मंदिर के शिलान्यास का प्रत्यक्षदर्शी बनेंगे। भारतवासियों के लिए 5 अगस्त का दिन बहुत ही शुभ घड़ी होगी जब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी मंदिर निर्माण के लिए भूमि पूजन कर शिलान्यास करेंगे। हम सब भाग्यशाली हैं जो भव्य राम मंदिर को देखेंगे।
मैं पूजनीय पिताश्री अश्विनी कुमार द्वारा लिखित अत्यन्त चर्चित और लोकप्रिय धारावाहिक सम्पादकीय रोम-रोम में राम का अध्ययन कर रहा था और मुझे भी इस विषय पर लिखने की प्रेरणा मिली। पिताश्री को इस बात की हमेशा पीड़ा रही कि भारत में संकीर्ण मानसिकता, तथाकथित धर्मनिरपेक्षता, घृणा, उन्माद, कट्टरवाद और साम्प्रदायिकता से भी सियासत की जड़ें गहरी न होती तो श्रीराम मंदिर निर्माण कब का हो गया होता। अब क्योंकि श्रीराम मंदिर निर्माण होने जा रहा है तो हमें गर्व भी हो रहा है। भगवान राम के पावन नाम के स्मरण मात्र से प्राणों में सुधा का संचार होता प्रतीत होता है। इस नाम की महिमा कौन नहीं जानता। भारतीय संस्कृति एवं सभ्यता के प्रतीक पुरुष श्रीराम भारतीयों के रोम-रोम में बसे हुए हैं। रामचरित मानस में राम राजा होते हुए भी स्वयं को साधारण व्यक्ति के रूप में दर्शाते हैं। सीता रानी नहीं बल्कि समाज से जुड़ी हुई एक ऐसी महिला के रूप में दिखाई देती है जिसने अथाह पीड़ा सही। भाई, मां, पत्नी, मित्र, सेवक-सखा, राजा-शत्रु सभी अपनी मर्यादाओं में बंधे हुए हैं। तुलसी दास के नायक राम भाग्यवादी या निर्यातवादी नहीं हैं। पुरुषार्थ उनका कर्म है। इस कर्म में एक ओर राक्षसों का वध करना उनका उद्देश्य है तो दूसरी ओर शबरी के बेर खाकर मानव मात्र की समानता को प्रतिष्ठित करना भी उनका लक्ष्य रहा।
श्रीराम का सम्पूर्ण जीवन त्याग, तपस्या, कर्त्तव्य और मर्यादित आचरण का उत्कृष्ट स्वरूप है। मर्यादा निर्माण का यह अभ्यास विश्वास इतिहास में अनूठा है। यही कारण है कि विज्ञान और विकास के दौर में भी श्रीराम जनमानस के देवता हैं। राम शक्ति के ही नहीं विरक्ति के भी प्रतीक हैं। राम भगवान से पहले एक व्यक्ति हैं। उन्होंने अपने जीवन में ऐसे कार्य किए हैं जिन्हें हम दैनिक जीवन में अपना सकते हैं। जनमानस की व्यापक आस्थाओं के इतिहास को देखें तो मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम कण-कण में विद्यमान हैं। श्रीराम इस देश के पहले महानायक हैं। राम का जो विराट व्यक्तित्व भारतीय जनमानस पर अंकित है, उतने विराट व्यक्तित्व का नायक अब तक के इतिहास में कोई दूसरा नहीं हुआ। राम के जैसा दूसरा कोई पुत्र नहीं। उनके जैसा सम्पूर्ण आदर्श वाला पति, राजा, स्वामी कोई भी दूसरा नाम नहीं। राम किसी धर्म का हिस्सा नहीं, बल्कि मानवीय चरित्र के उदात हैं। बचपन की स्मृतियों में झांकता हूं तो मुझे एक कथा याद आती है। मैं बचपन में अक्सर राम कथा मर्मज्ञ को सुनने कार्यक्रमों में चला जाता था।
‘‘सेतु निर्माण का कार्य चल रहा था। नल, नील नामक दो इंजीनियरों के हाथ के स्पर्श के बाद जो भी शिलाएं जल में डाल दी जातीं, वे तैरने लगतीं। राम कार्य जोरों पर था। भगवान राम दूर तक शिला पर बैठे यह सब देख रहे थे और आनंदमग्न हो रहे थे। अचानक न जानें क्यों उनके दिल में एक ख्याल आया। उन्होंने देखा कि वही शिलाएं तैरती हैं जिन पर ‘राम’ का नाम लिखा होता है, अन्य शिलाएं डूब जाती हैं। कुछ देर के बाद उन्होंने इशारे से पवन पुत्र हनुमान को बुलाया और स्वयं दो शिलाएं हिलोरें मारते समुद्र में छोड़ने की इच्छा जाहिर की। महावीर ने शिलाएं दीं। चूंकि भगवान राम स्वयं उन शिलाओं को जल में छोड़ने जा रहे थे, अतः उन्होंने अपना नाम स्वयं कहां लिखना था। जैसे ही वे शिलाएं छोड़ीं, दोनों ही डूब गईं।
भगवान राम ने आश्चर्य में भर कर महावीर हनुमान की ओर देखा। हनुमान मुस्कराने लगे। भगवान राम ने पूछा, ‘‘महावीर, यह क्या रहस्य है?’’ हनुमान बोले- ‘‘स्वामी, कोई आपका प्रिय से प्रिय भक्त भी बुद्धि भ्रष्ट हो जाने के फलस्वरूप आप को छोड़ दे तो भी आप उसे माफ कर देते हैं, उसे बचा लेते हैं, वह एक कदम आपकी तरफ बढ़े तो आप सौ कदम बढ़ते हैं, परन्तु हे प्रभु, हे भगवान, आप उसे डूबने नहीं देते परन्तु जिसे स्वयं आप छोड़ दें, उसको कौन बचाएगा। वह तो डूबेगा ही।’’ भगवान राम मुस्कराने लगे। इस तरह की न जाने कितनी कथाएं बचपन में सुनने को मिलती थीं और अन्दर ही अन्दर पुलकित कर देती थीं। कलांतर में रामचरित मानस और वाल्मीकि रामायण के अतिरिक्त भी कई रामायणों के बारे में सुना और कुछ पढ़ा भी। 1987 में रामानंद सागर ने रामायण सीरियल के द्वारा जन-जन का जितना उपकार किया वह शायद कभी भी भुलाया नहीं जा सकता। मैथिलीशरण गुप्त का ‘साकेत’ सचमुच इस बात की ठीक ही घोषणा करता है : –
‘‘राम तुम्हारा वृत स्वयं ही काव्य है,
कोई कवि हो जाए सहज संभाव्य है।’’
बाकी चर्चा मैं कल के लेख में करूंगा।