भारत के लोकतन्त्र में हमारी सुरक्षा सेनाओं की भूमिका इस प्रकार पूरी व्यवस्था को संरक्षण देने के तार से बांधी गई कि यह राष्ट्रीय सीमाओं की प्रहरी रहते हुए केवल संविधान की सत्ता के प्रति जवाबदेह रहते हुए घरेलू अांतरिक पार्टीगत राजनीति से निरपेक्ष रहकर अपने दायित्व का निर्वाह कर सके। भारतीय लोकतन्त्र की सबसे बड़ी ताकत हमारी फौज का पूरी तरह ‘अराजनैतिक’ चरित्र है जिसे हमारे संविधान निर्माताओं ने इस प्रकार गूंथा कि हमारे सैनिकों के शौर्य का कोई भी राजनीतिक दल सत्ता में या इससे बाहर रहते हुए कभी भी पार्टीगत लाभ लेने की कोशिश न कर सके।
दूसरे अर्थों में इसका आशय यही है कि सेनाओं द्वारा रणक्षेत्र में दिखाया गया शौर्य राजनीतिक हार-जीत से ऊपर प्रत्येक भारतीय का निजी गौरव व सम्पत्ति है जिसका किसी भी राजनैतिक विचारधारा से कोई लेना-देना नहीं है। अतः रणक्षेत्र में जय-पराजय का वर्गीकरण हम राजनीतिक आधार पर नहीं कर सकते हैं क्योंकि भारत की राजनीति में सक्रिय प्रत्येक राजनीतिक दल संविधान के उन प्रावधानों को सर्वोपरि रखकर सत्ता चलाने के दायित्व से बन्धा हुआ है जिसमें भारत की भौगोलिक व क्षेत्रीय एकता और अखंडता अक्षुण्ण रखना उसका प्राथमिक कर्तव्य है। अतः सेना जब भी राष्ट्रीय सुरक्षा को चुनौती विहीन रखने के लिए सत्ता पर काबिज सरकार के अधीनस्थ रहते हुए अपने सैनिक धर्म का निर्वाह करती है तो उसका कार्य राजनीतिक दायरे से पूरी तरह बाहर होता है।
यह बेवजह नहीं है कि भारतीय संविधान के संरक्षक हमारे राष्ट्रपति की सुरक्षा में सेना के तीनों अंगों के जवान नियुक्त रहते हैं। अब गणतन्त्र दिवस 26 जनवरी आने में भी ज्यादा समय शेष नहीं है और हम देखेंगे कि राजपथ पर हमारी सेना के तीनों अंगों के सिपहसालार राष्ट्रपति को सलामी देंगे। भारत में राष्ट्रपति का हर पांच साल बाद चुनाव होता है और यह चुनाव प्रत्यक्ष रूप से जनता द्वारा चुने गए प्रतििनिध सांसदों व विधायकों द्वारा किया जाता है। बेशक यह चुनाव भी राजनीतिक दलगत आधार पर ही होता है परन्तु चुने हए व्यक्ति की दलगत निष्ठा उसी दिन समाप्त हो जाती है जिस दिन वह राष्ट्रपति भवन में प्रवेश करता है।
इसकी वजह यह है कि परोक्ष रूप से देश की जनता द्वारा चुना गया राष्ट्रपति किसी राजनीतिक दल के बहुमत सदस्यों के वोट के आधार पर चुने जाने के बावजूद उसकी सत्ता से भाव शून्य होकर संविधान की सत्ता के प्रति जवाबदेह हो जाता है और अपने कार्यकाल के दौरान किसी भी राजनीतिक दल की आम जनता द्वारा चुनी गई सरकार उसकी ‘अपनी सरकार’ होती है। राष्ट्रपति ही हमारे सुरक्षा बलों के सुप्रीम कमांडर होते हैं। उनका पद ग्रहण करते ही ‘अराजनैतिक’ संवैधानिक संरक्षक का चरित्र हमारी सेनाओं को पूरी तरह राजनीतिक दांव-पेंचों के पचड़े से बाहर रखता है और गणतन्त्र दिवस पर हमारी सेना द्वारा जब राष्ट्रपति को दी जाने वाली सलामी भारत में संविधान की सत्ता की पैरोकार व अलम्बरदार भारतीय जनता को दी गई सलामी मानी जाती है। यह सलामी भारतीय लोकतन्त्र में संविधान की सत्ता को महफूज रखने के दायित्व से बन्धी होती है।
अतः चुनावी माहौल में सेना की शौर्यगाथाओं का श्रेय लेने की कोशिश यदि कोई भी राजनीतिक दल स्वयं करता है तो वह सेना के सम्मान पर ही चोट करता है क्योंकि सेना किसी राजनीतिक दल की सरकार का आदेश नहीं मानती बल्कि वह संवैधानिक सरकार का आदेश मानती है। यह सरकार किसी भी पार्टी की हो सकती है और जो भी सरकार होती है वह सेना के सुप्रीम कमांडर राष्ट्रपति की सरकार होती है। कौन फिदा न हो जाएगा हमारे संविधान निर्माताओं की इस दूरदृष्टि पर जिसके तहत उन्होंने हमें यह लोकतान्त्रिक व्यवस्था सौंपी और सुनिश्चित किया कि भारत की फौज का कोई भी राजनीतिक दल कभी भी ‘राजनीतिकरण’ नहीं कर पाएगा। अतः बहुत जरूरी है कि जब भी हम अपनी फौज के किसी वीरतापूर्ण कारनामे का जिक्र करें तो पूरे ‘होश-हवास’ काबू में रखते हुए करें।
राष्ट्रीय सुरक्षा के मामले पर किसी प्रकार की राजनीति की गुंजाइश नहीं है। यह देश तो उस पं. जावहर लाल नेहरू का है जिन्होंने 1962 में चीन से युद्ध हार जाने पर लोकसभा में अपनी ही सरकार के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव रखे जाने को पूरी तरह विपक्ष का अधिकार बताया था और इसके लिए लोकसभा में जरूरी विपक्षी सांसदों की संख्या न होने के बावजूद तत्कालीन लोकसभा अध्यक्ष से प्रस्ताव मंजूर किए जाने की गुजारिश की थी। यह अविश्वास प्रस्ताव उन आचार्य कृपलानी ने रखा था जो कांग्रेस के अध्यक्ष भी रहे थे। मगर 1971 में जब पाकिस्तान को बीच से चीर कर श्रीमती इंिदरा गांधी ने बांग्लादेश का उदय कराया तो विपक्षी पार्टी जनसंघ के नेता ने उन्हें देवी दुर्गा का रूप तक बता डाला मगर दोनों ही परिस्थितियों में हमारी फौज की भूमिका राजनीति से ऊपर रही। अतः आजकल पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर में सेना की ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ को लेकर जिस प्रकार राजनीतिक बहस हो रही है वह पूरी तरह निरर्थक है क्योंकि तकनीकी रूप से सेना ने उसी क्षेत्र में प्रवेश किया जो संविधानतः भारत की भौगोलिक सीमाओं का हिस्सा है क्योंकि पूरा जम्मू-कश्मीर भारतीय संघ का हिस्सा है।
इस सन्दर्भ में मनमोहन सरकार के दौरान श्रीनगर से मुजफ्फराबाद तक शुरू की गई उस बस का वाकया हमें ध्यान में रखना चाहिए जब इस पर संसद में उस समय भाजपा के नेता श्री यशवन्त सिन्हा ने आपत्ति जताई थी और बस यात्रा के लिए वीजा के स्थान पर परमिट दिए जाने को राष्ट्रविरोधी कदम बताया था तो सत्ता में बैठे लोगों ने पूछा था कि पहले यशवन्त सिन्हा यह बतायें कि वह पूरे जम्मू-कश्मीर को भारत का हिस्सा मानते हैं या नहीं? श्री सिन्हा पिछली वाजपेयी सरकार में विदेश मन्त्री रह चुके थे। इसी प्रकार जब कारगिल युद्ध में हमारी फौज के सैकड़ों युवा वीर अफसरों के बलिदान के बाद विजय प्राप्त हुई तो तत्कालीन वाजपेयी सरकार की इस बात के लिए आलोचना हुई कि खुफिया तन्त्र की विफलता की वजह से ही पाकिस्तानी सैनिक भारतीय सीमा में प्रवेश कर गए जिसका पता काफी बाद में चला। अतः अपनी ही सीमाओं से पाकिस्तानियों को खदेड़ कर हमने कौन सा यश प्राप्त कर लिया परन्तु इस आलोचना के बावजूद सेना की भूमिका राजनीतिक विमर्श से परे रही और जबर्दस्ती लादे हुए कारगिल युद्ध के लिए विपक्ष ने वाजपेयी सरकार को ही जिम्मेदार बताया। बाद में यह सत्य भी निकल कर आया कि खुफिया तन्त्र की चूक हुई थी जिसकी वजह से पाकिस्तानी फौज हमारी सीमाओं में प्रवेश कर गई थी। तब 1999 के लोकसभा चुनाव घोषित हो चुके थे।
भाजपा कह रही थी कि उसने कारगिल में शानदार विजय प्राप्त की है, कांग्रेस कह रही थी कि गफलत में डूबी सरकार की नाकामी की वजह से सेना की वीरता और शौर्य ने हमें यह विजय दिलाई मगर राजनीति तब सेना के शौर्य के सामने बहुत बौनी और छोटी पड़ गई जब भाजपा के नेता श्री लालकृष्ण अडवानी ने अपनी पार्टी के मुख्यालय में आयोजित एक प्रैस कांफ्रैंस में इस सन्दर्भ में पूछे गए सवाल के जवाब में यह कह दिया कि ‘अगर अपनी सीमाओं से पाकिस्तानियों को बाहर निकालना कोई उपलब्धि नहीं है तो गांधी जी ने अंग्रेजों को अपने देश से बाहर निकाल कर क्या कमाल कर दिया था। दरअसल यह कथन राजनीति के बेसिर-पैर का होने का सबूत था और बताता था कि हम लोकतन्त्र की लड़ाइयों की तुलना सैनिक युद्धों से करने की धृष्टता की तरफ बढ़ रहे हैं।