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सपा-बसपा गठबन्धन की गांठ

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उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी, सुश्री मायावती की बहुजन समाज पार्टी और अजीत सिंह की राष्ट्रीय लोकदल पार्टी ने आगामी लोकसभा चुनावों के लिए गठबन्धन करके साफ कर दिया है कि उनकी मंशा देश की राजनीति के तेवर बदलने के बजाय निजी लाभ उठाने की है। जातिगत आधार पर गठित इन दलों विशेष रूप से सपा व बसपा ने लोकसभा चुनावों में वैचारिक विकल्प पेश करने के बजाय जातिगत गठजोड़ का विकल्प आम जनता के सामने रखा है जिससे यह अनुमान आसानी से लगाया जा सकता है कि उत्तर प्रदेश में मतदाता राष्ट्रीय विकल्प की वृहद परिकल्पना के बजाय जाति व साम्प्रदायिक युद्ध में ही उलझा रहे और राज्य के अल्पसंख्यक मतदाता उनके भाजपा के भयंकर विरोध के तीखे बोलों से प्रभावित होकर किसी अन्य विकल्प के बारे में न सोच सकें मगर नादान हैं वे लोग जो सियासत में किसी एक भी सम्प्रदाय या जाति के लोगों को अपना गुलाम समझने की भूल करते हैं।

तीन राज्यों में हुए चुनावों से जो परिणाम मिले हैं वे इस बात का पक्का सबूत हैं कि सपा व बसपा सरीखी जातिगत पार्टियों की राजनीति तभी तक जिन्दा रह सकती है जब तक कि भाजपा मजबूत रहे। भाजपा का मजबूत रहना इन पार्टियों के वजूद की शर्त है। इसलिए यह बेवजह नहीं है कि जब लोकसभा में मुस्लिम औरतों के लिए लाये गये तीन तलाक विरोधी अध्यादेश को विधेयक में बदला जाता है तो समाजवादी पार्टी के आजम खां जैसे नेता फरमाते हैं कि मुसलमान केवल ‘शरीयत’ का कानून ही मानेंगे। यह बयान अपने आप में उन रूढ़ीवादी व पोंगापंथी हिन्दू तत्वों को ताकत देता है जो मतदाताओं की पहचान हिन्दू और मुस्लिम के तौर पर करके ज्वलन्त मुद्दों से आम जनता का ध्यान हटाना चाहते हैं। माफ कीजिये यह राजनीति भारत की नहीं है।

उत्तर प्रदेश का हर हिन्दू-मुसलमान किसान और दस्तकार भलीभांति जानता है कि पिछले 30 सालों से उसका बेवकूफ ऐसे ही मुद्दे उछाल कर बनाया जा रहा है और उसके जायज आर्थिक हकों को बड़ी-बड़ी कम्पनियों और इजारेदारों के पास गिरवी रखा जा रहा है। दरअसल उत्तर प्रदेश की जनता इस जातिगत गठजोड़ और रंजिश की राजनीति से बाहर निकलना चाहती है। राज्य में पिछले दिनों जो भी उपचुनाव हुए वे किसी भी तौर पर जातिगत समीकरणों का परिणाम नहीं थे बल्कि इस बात का सबूत थे कि इस राज्य के लोग अपने जीवन से जुड़े असली मसलों का जवाब चाहते हैं लेकिन सबसे महत्वपूर्ण सवाल यह है कि सपा, बसपा या रालोद जैसे दलों की राष्ट्रीय राजनीति में क्या भूमिका है? इनकी प्रमुख भूमिका अभी तक केवल सत्ता की सौदेबाजी तक सीमित रही है।

इनका प्रयास सत्ता की चाबी अपने पास रखने का इस तरह रहा है कि राष्ट्रीय हितों का उनके सामने कोई मोल नहीं रहा मगर लोकसभा के चुनावों और विधानसभा के चुनावों में फर्क होता है और इस देश के मतदाता को गांधी बाबा इतनी अक्ल देकर चले गये हैं कि जब राष्ट्रीय हितों का सवाल सामने आ जाये तो सारे भेदभाव भूलकर उसी पार्टी के निशान पर ठप्पा लगाओ जिसमें मुल्क की समस्याओं को हल करने का सलीका और जज्बा हो और जिसके पास स्पष्ट नजरिया हो। यही वजह थी कि 1977 में पूरे संयुक्त उत्तर प्रदेश की 85 में से 84 सीटें हारने वाली इन्दिरा गांधी की कांग्रेस पार्टी को लोगों ने 1980 में ही दिल खोलकर समर्थन दिया था और उस दौरान प्रधानमन्त्री रहे चौधरी चरण सिंह की पार्टी लोकदल बामुश्किल चन्द सीटें जीत सकी थी और भाजपा को अंगुलियों पर गिनने वाली सीटें ही मिली थीं।

मतदाता राष्ट्रीय चुनावों में सबसे पहले देखते हैं कि किस पार्टी और नेता में मुल्क को उस भंवर से निकालने की क्षमता है जिसमें वह फंस चुका है। राष्ट्रीय चुनावों में जिस तरह मतदाताओं के तेवर और तौर बदलते हैं इसके एक नहीं कई उदाहरण हैं मगर हर दौर में मतदाता की निराशा और हताशा को बांटने के प्रयास भी हुए हैं। अभी हम गठबन्धन और महागठबन्धन के शासकीय विकल्प की बात कर रहे हैं मगर कोई यह नहीं बता रहा कि तमिलनाडु से कांग्रेस अध्यक्ष श्री राहुल गांधी को अगले प्रधानमन्त्री के रूप मंे देखने की आवाज द्रमुक के नेता श्री एम.के. स्टालिन ने क्यों लगाई? यह बहुत दूर की कौड़ी फेंकी गई है जिसका मतलब समझने में अभी विभिन्न भाजपा विरोधी क्षेत्रीय दल लगे हुए हैं और अपनी-अपनी कैफियत पेश कर रहे हैं मगर हकीकत यह है कि दक्षिण भारत ने उत्तर भारत को सन्देश दे दिया है कि आगामी चुनावों का सम्बन्ध राज्यों से नहीं बल्कि देश से है और उसके तहत ही हमें अपना नजरिया रखना होगा।

तमिलनाडु में द्रमुक से बड़ा कोई भी अन्य क्षेत्रीय दल इस मायने में नहीं है क्योंकि यह द्रविड़ उपराष्ट्रीयता का सबसे बड़ा अलम्बरदार है। इसलिए जितने भी अन्य क्षेत्रीय दल हैं उन्हें अपनी हैसियत का अनुमान अखिल भारतीय फलक पर ही लगाना होगा और जिस भाजपा के खिलाफ वे एकजुट होना चाहते हैं उसके लिए केवल किसी दूसरे राष्ट्रीय दल को ही ध्वजवाहक बनाना होगा मगर दूसरा पहलू भाजपा को मुस्कराने का अवसर दे रहा है और इसके नेता सोच रहे हैं कि कुनबा अभी जुड़ा ही नहीं और हवेली का बंटवारा पहले से ही शुरू हो गया!

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