यदि यह कहा जाये कि भारत का लोकतन्त्र अपने ही वजन को एक बार फिर तोल रहा है तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी क्योंकि राजनीतिक प्रतिद्वंदिता उन बन्धनों को तोड़ती नजर आ रही है जिन्हें हमारे संविधान निर्माताओं ने बहुत ही सलीके से महीन कशीदाकारी के साथ बुना था। इस लोकतन्त्र की बुनियाद संसद पर खड़ी करके हमारे संविधान निर्माताओं ने जो व्यवस्था हमें सौंपी उसमे स्वतन्त्र न्यायपालिका,विधायिका और कार्यपालिका का अस्तित्व इस प्रकार सुनिश्चित किया गया कि एक-दूसरे के क्षेत्र में अनाधिकार प्रवेश किये बिना सभी की संविधान के प्रति जवाबतलबी तय हो और संसद यह कार्य इस प्रकार करे कि उसका किया गया प्रत्येक कार्य व निर्णय संविधान की कसौटी पर खरा उतरे। बेशक संसद को ही यह अधिकार दिया गया कि वह समयानुसार जनापेक्षाओं को देखते हुए इसमें जो भी संशोधन करे वह संविधान के ही मूलभूत सिद्दान्तों के विपरीत न हो।
राजनीतिक दलीय प्रणाली के तहत बहुमत लेकर बनी सरकार के कार्यों पर संविधान की कसौटी पर कसने का अधिकार न्यायपालिका को इस तरह दिया गया कि यह राजनीतिक प्रभावों से मुक्त रह कर अपना काम पूरी तरह निरपेक्षभाव से कर सके। अतः प्रत्येक राजनीतिक दल की यह प्राथमिक जिम्मेदारी बनती है कि वह न्यायपालिका की स्वतन्त्रता को अक्षुण्य रखे और उसे राजनीतिक छींटाकशी के दायरे में न आने दे। यह समझा जा सकता है कि राजनीतिक युद्ध के तर्क-वितर्क के चलते न्यायपालिका को नीर-क्षीर–विवेक के आधार पर बिना किसी पूर्वाग्रह के दूध का दूध और पानी का पानी करना पड़ता है। उसके फैसले किसी राजनीतिक दल के खिलाफ या किसी के विरोध में जा सकते हैं मगर हर सूरत में वे लोकतन्त्र के हक में होते हैं। सबसे महत्वपूर्ण यही है कि लोकतन्त्र की बुनियाद बिना किसी नुकसान के बनी रहनी चाहिए। 2-जी स्पैक्ट्रम मामले और आदर्श घोटाले में अदालतों के जो फैसले आये हैं वे न तो किसी राजनीतिक दल के पक्ष में हैं और न किसी सियासी पार्टी के खिलाफ हैं, बल्कि उस व्यवस्था के हक में हैं जिससे पूरा देश चल रहा है। अतः चाहे कांग्रेस हो या भाजपा दोनों को यह ध्यान रखना होगा कि न्यायपालिका की प्रतिष्ठा पर किसी भी तरह की आंच न आये। हमें राजनीतिक युद्ध तो लड़ना है मगर न्यायपालिका को इसमें घसीटे बिना।
आदर्श आवास घोटाले में मुम्बई उच्च न्यायालय का आज जो फैसला आया है उससे महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमन्त्री व राज्य कांग्रेस अध्यक्ष श्री अशोक चव्हाण को बेशक राहत मिली है मगर आदर्श आवास घोटाले का अस्तित्व समाप्त नहीं हो गया है। इसी प्रकार 2-जी स्पैक्ट्रम घोटाले में सभी अभियुक्तों को सीबीआई अदालत ने बेशक बरी करके कह दिया है कि पूरे मामले में किसी प्रकार का भ्रष्टाचार नहीं हुआ है और पूर्व सूचना टैक्नोलोजी मन्त्री ए. राजा व उनकी पार्टी द्रमुक की नेता श्रीमती कन्नीमोझी पर आर्थिक गड़बड़ी करने का कोई आरोप सच नहीं निकला है मगर यह सवाल अपनी जगह खड़ा हुआ है कि 2012 में श्री राजा के मन्त्रालय द्वारा जारी 122 लाइसेंस सर्वोच्च न्यायालय ने ही आवंटन प्रक्रिया में अनियमितता की वजह से रद्द किये थे? इससे यह प्रश्न भी अपनी जगह मौजूद है कि अनियमितता किस स्तर पर हुई और किस अन्दाज में हुई ? अतः न्यायपालिका पूरी तरह हर मामले को कानून की तराजू पर तोल कर फैसला दे रही है। सीबीआई अदालत के सामने सर्वोच्च न्यायालय ने जो मामला भेजा था वह स्पैक्ट्रम आवंटन प्रक्रिया में आपराधिक षड्यन्त्र का भेजा था, जिसके तहत जानबूझ कर किसी को लाभ पहुंचाने की नीयत भी आती थी।
मगर यह मामला पहला नहीं है जिसमें कोई मन्त्री साफ बरी हुआ है। स्वतन्त्र भारत में एेसा पहला मामला प्रथम प्रधानमन्त्री प. जवाहर लाल नेहरू के सामने भी आया था। सबसे हैरतंगेज यह था कि यह मामला उन्हीं के दामाद स्व. फिरोज गांधी ने उठाया था। यह मामला उद्योगपति हरिदास मूंदड़ा का था जिसमंे उन्होंने अपनी एक कम्पनी के शेयरों को अधिक मूल्य पर भारतीय जीवन बीमा निगम के पास रहन रख कर सवा करोड़ रुपये का कर्ज लिया था। यह कर्ज उन्होंने तत्कालीन वित्तमन्त्री श्री टी.टी. कृष्णामंचारी के निजी सचिव की मार्फत प्रभाव डाल कर लिया था। श्री फिरोज गांधी ने भरी संसद में जब यह मामला 1958 में उठाया तो प. नेहरू ने श्री कृष्णामंचारी का इस्तीफा लेकर स्व. एम.सी. चागला का एक सदस्यीय जांच आयोग बिठा कर उसकी जांच शुरू कर दी, जिन्होंने केवल 23 दिन में ही रिपोर्ट देकर श्री कृष्णामंचारी की भूमिका को पूरे लेन-देन में संदिग्ध पाया तो मामला उच्च न्यायालय में चला गया जिसमें श्री कृष्णामंचारी बेदाग छूटे। इस मामले में श्री फिरोज गांधी के पास हरिदास मूंदड़ा और कृष्णामंचारी के बीच हुई टेलीफोन वार्ता के सबूत भी माैजूद थे जिन्हें उन्होंने तब अपने अखबार इंडियन एक्सप्रेस में भी छापा था। मगर न्यायालय में कानून की तराजू पर श्री कृष्णामंचारी को जब बिठाया गया तो सबूतों का वजन कानून की तराजू के पलड़ों को ऊपर-नीचे नहीं कर सका। मगर हमारे सामने नरसिम्हाराव सरकार के सूचना टैक्नोलोजी मन्त्री पं. सुखराम का भी उदाहरण है जिन्हें विशेष अदालत ने ही 2011 में पांच साल की सजा सुनाई थी। अतः न्यायिक युद्ध केवल न्याय के स्तर पर और राजनीतिक युद्ध राजनीति के स्तर पर ही लड़ा जाना चाहिए और न्यायपालिका को इस पचड़े से दूर रखा जाना चाहिए।