मौत के ‘आवारापन’ के आंकड़े - Latest News In Hindi, Breaking News In Hindi, ताजा ख़बरें, Daily News In Hindi

लोकसभा चुनाव 2024

पहला चरण - 19 अप्रैल

Days
Hours
Minutes
Seconds

102 सीट

दूसरा चरण - 26 अप्रैल

Days
Hours
Minutes
Seconds

89 सीट

तीसरा चरण - 7 मई

Days
Hours
Minutes
Seconds

94 सीट

चौथा चरण - 13 मई

Days
Hours
Minutes
Seconds

96 सीट

पांचवां चरण - 20 मई

Days
Hours
Minutes
Seconds

49 सीट

छठा चरण - 25 मई

Days
Hours
Minutes
Seconds

57 सीट

सातवां चरण - 1 जून

Days
Hours
Minutes
Seconds

57 सीट

दूसरा चरण - 26 अप्रैल

Days
Hours
Minutes
Seconds

89 सीट

मौत के ‘आवारापन’ के आंकड़े

किसी भी महामारी में सबसे बड़ा डर मौत का ही होता है। सरकारों की सारी शक्ति इसी मौत की विभीषिका को कम करने की होती है जिसे वे चिकित्सा तन्त्र को जागृत करके करती हैं।

किसी भी महामारी में सबसे बड़ा डर मौत का ही होता है। सरकारों की सारी शक्ति इसी मौत की विभीषिका को कम करने की होती है जिसे वे चिकित्सा तन्त्र को जागृत करके करती हैं। इन प्रयासों के बावजूद महामारी अपनी ‘चुंगी’ वसूल करके ही छोड़ती है। हमने कोरोना महामारी के दौरान देखा कि इसकी पहली लहर में किस प्रकार अमेरिका जैसे विकसित और अमीर देश में लाखों लोग असमय ही काल के ग्रास बने। मगर इस महामारी की दूसरी लहर ने जिस प्रकार भारत के गांवों में अपने पैर पसारे उससे देश का पूरा चिकित्सा तन्त्र उधड़ सा गया और लोग शहरों में जहां एक तरफ आक्सीजन की कमी से मरने लगे वहीं दूसरी तरफ गांवों में उन्हें आक्सीजन देने की नौबत आने से पहले ही महामारी ने निगलना शुरू कर दिया। इसकी एक वजह साफ थी कि कुछ गिने-चुने राज्यों को छोड़ कर शेष पूरे भारत का चिकित्सा तन्त्र जर्जर ही नहीं बल्कि स्वयं ‘मृत्यु शैया’ पर लेटा हुआ सा था। विशेषकर बिहार व उत्तर प्रदेश, गुजरात व अन्य उत्तरी राज्यों में । अतः कोरोना की दूसरी लहर ने जब अपना कहर बिखेरना शुरू किया तो राज्य सरकारों के हाथ-पैर फूलने लगे और स्वयं को समर्थ दिखाने के उपक्रम में इन सरकारों के कारिन्दों ने महामारी से मरे लोगों की मृत्युओं को अन्य खातों में जमा करना शुरू कर ​िदया। भारतीय मीडिया से लेकर विदेशी मीडिया चिल्लाता रहा कि कोरोना से मौतों का सिलसिला भारत के हर श्मशान घाट से लेकर कब्रिस्तान तक को शवों की लम्बी-लम्बी लाइनों से डरा रहा है और अंतिम संस्कार करने के लिए परिजन तक नहीं आ पा रहे हैं। हार-थक कर लोग शवों को नदियों में बहा रहे हैं या रेत में दबा रहे हैं। मृत्यु संस्कार के लिए श्मशान घाटों की सीमाएं बढ़ाई जा रही हैं और कब्रिस्तान नई जगह खोज रहे हैं। हालत यह है कि हर आदमी अपना टेलीफोन सुनने से घबरा रहा है कि न जाने किस प्रियजन की मृत्यु की खबर सुनने को मिले। हर दरवाजे पर कोरोना की दहशत इस तरह पसरी हुई है कि आदमी अपने पड़ोसी तक से बात करने से डर रहा है। यह माहौल ही हमें इशारा करता था कि “मौत आवारा होकर जश्न मनाने को बेताब हो रही है’’।
 सभ्य समाज में किसी को भी आवारा होने का हक नहीं दिया जा सकता फिर चाहे वह मौत ही क्यों न हो। और लोकतन्त्र में तो लोगों की ही सरकार होती है अतः मौत के अट्टहास को निःशब्द करने की व्यवस्था लोगों द्वारा चुनी हुई सरकारें मजबूत चिकित्सा तन्त्र स्थापित करके करती हैं। मगर राज्य सरकारों की हालत यह हो चुकी है कि ये अपने वोट बैंक के लिए नई-नई जातियों और समूहों को आरक्षण देने के लिए आमादा होकर स्वास्थ्य व शिक्षा जैसे मुद्दों को ताक पर रख रही हैं। यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि किसी भी महामारी के समय स्वास्थ्य या चिकित्सा औऱ शिक्षा ही ऐसे क्षेत्र होते हैं जिनकी पोल खुलती है क्योंकि उपयुक्त चिकित्सा न होने से मौत अपना खेल खेल जाती है और शिक्षा का अभाव होने की वजह से लोग वैज्ञानिक विधियों में व्यतिक्रम या खामियां ढूंढने लगते हैं।
 कोरोना वैक्सीन को लेकर जिस प्रकार की भ्रान्तियां व गलतफहमियां ग्रामीण अंचलों में फैलाई गई हैं उसका एकमात्र कारण अशिक्षा और अंधविश्वासी होने का है। मगर जब राज्य सरकारें मौतों का आंकड़ा छिपाती हैं तो वे अंधविश्वास को ही बल देती हैं। वे हकीकत को छिपाकर ऐसे तथ्य सामने लाना चाहती हैं जिससे लोगों में फैली भ्रान्तियां फलती-फूलती रहें। मौत के मामले में हमें वस्तुपरक होकर चिकित्सा प्रणाली का मूल्यांकन करना चाहिए। यही वजह है कि अमेरिका का प्रतिष्ठित अखबार न्यूयार्क टाइम्स यह रिपोर्ट लिखता है कि भारत में दूसरी लहर में मरने वालों की संख्या आधिकारिक आंकड़ों से कई गुना अधिक है। जब गुजरात में इस साल के मार्च महीने से लेकर मई तक के डेढ़ महीने के भीतर एक लाख 23 हजार लोग मौत के मुंह में समा सकते हैं तो हमें सोचना तो चाहिए कि उन अन्य राज्यों की क्या हालत हुई होगी जहां शव नदियों में तैरते मिले हैं या रेत के नीचे दबे मिले हैं। 
आखिरकार बिहार सरकार ने अपनी गलती मानी है और उच्च न्यायालय के आदेश पर स्वीकार किया है कि 7 जून तक मौतों का आंकड़ा 5458 नहीं बल्कि 9429 है। यह केवल एक नमूना है जो न्यायिक आदेश के बाद उजागर हुआ है। जाहिर तौर पर यह काम न्यायालयों का नहीं है बल्कि राज्य सरकारों का है कि वे सही आंकड़े जनता के सामने पेश करें और लोगों से कहें कि कोरोना महामारी का मुकाबला सिर्फ वैज्ञानिक उपायों से ही किया जा सकता है और जो लोग गलतफहमी का शिकार हैं वे स्वयं को जोखिम में डालने का काम कर रहे हैं। इस माहौल में उन राजनीतिज्ञों पर लानत भेजने का फर्ज बनता है जिन्होंने कोरोना वैक्सीन के बारे में अफवाहों को जन्म देकर कहा था कि यह भाजपा की वैक्सीन है। भला किसी दवाई का भी कोई राजनैतिक दल होता है ?  मगर उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमन्त्री समाजवादी नेता अखिलेश यादव को तो ‘नल की टोटी’ में भी राजनीतिक दल नजर आता है जिसे वह मुख्यमन्त्री आवास खाली करते समय अपने साथ लेकर चले गये थे।  अतः बहुत जरूरी है कि हम कोरोना के सन्दर्भ में किसी भी प्रकार के आंकड़ों को न छिपायें और सत्य जनता के सामने रखें जिससे वह सावधान होकर अपना जीवन व्यतीत कर सके क्योंकि वैज्ञानिक अभी भी तीसरी लहर की बात कह रहे हैं और जब तक प्रत्येक भारतवासी के वैक्सीन नहीं लग जाती है तब तक हम हर भ्रामक प्रचार पर खाक डालें। 

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

4 + 14 =

पंजाब केसरी एक हिंदी भाषा का समाचार पत्र है जो भारत में पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, हिमाचल प्रदेश और दिल्ली के कई केंद्रों से प्रकाशित होता है।