1984 के करीब जब भारत के अभी तक के हुए सबसे बड़े किसान नेता पूर्व प्रधानमन्त्री स्व. चौधरी चरण सिंह ने अपनी पुस्तक ‘नाइट मेयर आफ इंडियन इकोनामी’ (भारतीय अर्थव्यवस्था का दुरास्वप्न) लिखी तो उसमें देश की कृषि व्यवस्था और इसके समूची अर्थव्यवस्था पर पड़ने वाले प्रभावों का पूर्णतः वैज्ञानिक विश्लेषण करते हुए स्पष्ट किया कि भारत का विकास तभी संभव है जब कृषि मूलक समाज की आर्थिक शक्ति में वृद्धि इस प्रकार होगी कि खेतीहर मजदूर की अगली पीढ़ी पढ़-लिख कर कृषि मूलक उद्योग धंधों में लग सके।
चौधरी साहब असंगठित क्षेत्र की अर्थव्यवस्था की मजबूती के इतने जबर्दस्त समर्थक थे कि उन्होंने पं. जवाहर लाल नेहरू की बड़े उद्योग- कल-कारखाने लगाने की नीति का विरोध गांधीवाद की कुटीर उद्योग नीति का उद्धरण देते हुए किया। मूलतः वह पं. नेहरू द्वारा अपनायी गई अर्थव्यवस्था के ढांचे के विरुद्ध नहीं थे परन्तु इसे गांधीवादी चश्मे से देखते थे। उनका यह मोटा सिद्धान्त था कि जिस देश में लोग खेती में ज्यादा लगे होंगे वह देश गरीब होगा और जिसमें लोग खेती में कम लगे होंगे वह अमीर होगा क्योंकि खेती के स्थान पर उद्योग धंधों में लगे हुए लोग आर्थिक सम्पन्नता की ओर ही बढ़ेंगे।
भारत के संविधान निर्माता डा. भीमराव अम्बेडकर भी औद्योगीकरण के प्रबल समर्थक थे और इसके सामाजिक पक्ष के हिमायती इस हद तक थे कि औद्योगीकरण को जातिविहीन समाज की संरचना में उत्प्रेरक मानते थे, परन्तु चरण सिंह का स्पष्ट मत था कि कृषि मूलक उद्योग धंधों के विस्तार से समाज में समरसता की धारा स्वतः बहती जायेगी और आर्थिक सशक्तीकरण से ऊंच-नीच की भावना ग्रामीण समाज से उसी प्रकार विलुप्त होती जायेगी जिस प्रकार किसी भी ‘गुड़’ खाने वाले को इससे मतलब नहीं होता कि उसके उत्पादन में किस वर्ग का हाथ है।
चौधरी साहब नीचे अर्थात आधारभूत स्तर पर आर्थिक सशक्तीकरण की धारा को बहा कर उसे ऊपर ले जाने के पक्के हामी थे और इसी वजह से कृषि क्षेत्र को भारत की सरकार की प्राथमिक जिम्मेदारी बनाना चाहते थे जिससे इस क्षेत्र में अधिकाधिक सार्वजनिक निवेश करके इसे लाभकारी धंधा इस प्रकार बनाया जा सके कि किसान के बेटे भी डाक्टर व इंजीनियर बन सकें। इस सन्दर्भ में हरित क्रान्ति का संज्ञान लेना होगा कि किस तरह उस दौर में कृषि पैदावार को बढ़ा कर अन्न उत्पादन के क्षेत्र में भारत को आत्म निर्भर बनाया गया। यह आत्म निर्भरता बिना सरकारी मदद के संभव नहीं थी क्योंकि जब भारत 1947 में आजाद हुआ तो इसका वार्षिक बजट मात्र 259 करोड़ रुपए का था।
यह धन राशि मूल रूप से कृषि राजस्व की धनराशि ही थी, परन्तु आज भारत का बजट 30 लाख करोड़ रुपए का है। 1947 में 90 प्रतिशत के लगभग आबादी कृषि क्षेत्र पर निर्भर थी जबकि यह कुल मात्र 33 करोड़ थी। आज 60 प्रतिशत आबादी ही कृषि क्षेत्र पर निर्भर है जबकि आबादी 130 करोड़ है। अतः कृषि क्षेत्र से बाहर निकल कर अन्य उद्योग धंधों में लगने वाले लोगों की संख्या में जबर्दस्त वृद्धि होना बताता है कि भारत का यह क्षेत्र लगातार सामर्थ्यवान हुआ है।
किसान की आय को बढ़ाने के लिए जिस न्यूनतम समर्थन मूल्य को आधार बनाया गया उसके परिणाम हमें बेहतर मिले हैं, परन्तु इसके साथ यह भी देखना होगा कि 1991 से शुरू हुए आर्थिक उदारीकरण के दौर में कृषि क्षेत्र में सार्वजनिक निवेश लगातार घटा है, बल्कि आर्थिक उदारीकरण को पुख्ता मंजिल तक पहुंचाने वाले पूर्व प्रधानमन्त्री डा. मनमोहन सिंह पर यह भी आरोप लगाया गया कि अपने वित्त मन्त्रित्वकाल में उन्होंने कृषि क्षेत्र को लावारिस बना कर छोड़ दिया था।
बेशक जब 2004 में वह प्रधानमन्त्री बने तो उन्होंने अपनी नीति में सुधार किया और कृषि में सार्वजनिक निवेश को ग्रामीण आधारभूत गत ढांचा विकास से जोड़ कर कई गुना तक बढ़ा दिया जिसमें छोटे किसानों का 70 हजार करोड़ रुपए का कर्जा माफ करना भी शामिल है। इसका सीधा अर्थ यही निकलता है कि निजीकरण और बाजारमूलक अर्थव्यवस्था के दौर में भी किसान को बाजार की शक्तियों पर नहीं छोड़ा जा सकता है।
इसकी असली वजह किसान की उपज की सप्लाई और मांग में जबर्दस्त अन्तर है क्योंकि फसल कटने पर ही उपज बाजार में थोक के हिसाब से आती है और उस समय उसका मूल्य मांग के फार्मूले पर तय नहीं किया जा सकता, इसी वजह से न्यूनतम समर्थन मूल्य प्रणाली शुरू की गई, जिससे किसान की उपज का लाभप्रद मूल्य तय हो सके। केन्द्र सरकार ने गेहूं समेत रबी की फसल की उपजों का जो समर्थन मूल्य कल संसद में घोषित किया है उसका उद्देश्य किसान की लागत की भरपाई करके उसे लाभ देना है जिसे बाजार की शक्तियां संज्ञान में नहीं ले सकती।
अतः कृषि सम्बन्धी विधेयकों का मूल्यांकन करते समय हमें न्यूनतम समर्थन मूल्य को ऐसा पैमाना मानना होगा जिससे नीचे की कीमत पर बाजार की ताकतें किसान की उपज का मूल्य तय न कर सकें। किसान को अपनी उपज का मूल्य स्वयं तय करने का अधिकारी बनाने के लिए उसकी आर्थिक सुरक्षा की गारंटी करना बहुत जरूरी है।
हमें अब यह विचार करना होगा कि संसद में दो कृषि विधेयकों के पारित हो जाने के बाद किसान की स्वतन्त्रता का सौदा किसी भी कीमत पर निजी व्यापारी न कर सकें। विधेयकों के पारित हो जाने के बाद इनकी नियमावली तय करते समय यह ध्यान रखना होगा कि फसल की बुवाई के समय ही आने वाली फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य सरकार घोषित करे। सरकार ने यह तो ऐलान कर ही दिया है कि वह न्यूनतम समर्थन मूल्य प्रणाली को नहीं छोड़ रही है।
अतः विपक्ष को भी पूरे मामले पर नजर दौड़ानी चाहिए। साथ ही यह भी जरूर ध्यान रखा जाना चाहिए कि अपनी फसल बेचने के बाद किसान स्वयं बाजार में उपभोक्ता बन जाता है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के कथन का भी विपक्ष को संज्ञान लेना चाहिए कि बदले हालात में किसान को अपनी उपज के बारे में स्वतंत्रता देना आवश्यक है।