सुष्मिता देव का एक कांग्रेस से दूसरी कांग्रेस जाना! - Latest News In Hindi, Breaking News In Hindi, ताजा ख़बरें, Daily News In Hindi

लोकसभा चुनाव 2024

पहला चरण - 19 अप्रैल

Days
Hours
Minutes
Seconds

102 सीट

दूसरा चरण - 26 अप्रैल

Days
Hours
Minutes
Seconds

89 सीट

तीसरा चरण - 7 मई

Days
Hours
Minutes
Seconds

94 सीट

चौथा चरण - 13 मई

Days
Hours
Minutes
Seconds

96 सीट

पांचवां चरण - 20 मई

Days
Hours
Minutes
Seconds

49 सीट

छठा चरण - 25 मई

Days
Hours
Minutes
Seconds

57 सीट

सातवां चरण - 1 जून

Days
Hours
Minutes
Seconds

57 सीट

दूसरा चरण - 26 अप्रैल

Days
Hours
Minutes
Seconds

89 सीट

सुष्मिता देव का एक कांग्रेस से दूसरी कांग्रेस जाना!

कांग्रेस की असम राज्य की निर्विवाद नेता सुष्मिता देव ने जिस प्रकार अपनी पार्टी छोड़ कर तृणमूल कांग्रेस में जाने का निर्णय लिया है

कांग्रेस की असम राज्य की निर्विवाद नेता सुष्मिता देव ने जिस प्रकार अपनी पार्टी छोड़ कर तृणमूल कांग्रेस में जाने का निर्णय लिया है उससे देशभर के कांग्रेसियों को धक्का लगना स्वाभाविक है क्योंकि सुष्मिता देव कांग्रेस नेता राहुल गांधी के सिपहसालारों में प्रमुख मानी जाती थीं। उनसे पहले पूर्व राष्ट्रपति स्व. प्रणव मुखर्जी के पुत्र श्री अभिजीत मुखर्जी ने भी कांग्रेस छोड़ कर तृणमूल कांग्रेस का दामन थामना उचित समझा था। इससे यही संकेत जा रहा है कि पूर्वोत्तर भारत में ममता दी की तृणमूल कांग्रेस का प्रभाव बढ़ रहा है और स्वयं यहां के कांग्रेसियों को लग रहा है कि इस पूरे क्षेत्र में ममता दी ही भाजपा का मुकाबला कर सकती हैं। एक मायने में यह वैचारिक स्तर पर पार्टी बदल भी नहीं कहा जा सकता है क्योंकि 1996 तक स्वयं ममता दी कांग्रेस का हिस्सा थीं और उनकी पार्टी की विचारधारा भी कांग्रेस की विचारधारा से अलग नहीं मानी जाती है। खासकर प. बंगाल के विधानसभा में भाजपा को परास्त करने के बाद पूर्वोत्तर के कांग्रसियों को लग रहा है कि उन्हें कांग्रेसी विचारधारा के वोट बैंक को बंटने से रोकना चाहिए और भाजपा का मुकाबला करना चाहिए। 
लोकतन्त्र में इसमें बुराई भी नहीं मानी जाती है क्योंकि राजनीति में अन्तिम तथ्य विचारधारा ही होती है। अतः एक कांग्रेस से दूसरी कांग्रेस में जाने वाले नेताओं को हम उस प्रकार दलबदलू नहीं कह सकते हैं जिस प्रकार किसी अन्य विरोधी विचारधारा वाले दल से दूसरे दल में प्रवेश करने वाले नेता को। मगर इसका मतलब यह नहीं है कि कांग्रेस का आलाकमान सोया रहे। सवाल यह भी पैदा होता है कि कांग्रेस से कथित युवा समझे जाने वाले नेताओं का पलायन ही क्यों हो रहा है?   जाहिर है कि इस पीढ़ी में सब्र का अभाव है और वह जल्दी ही मेहनत का फल चाहती है। राजनीति चूंकि कोई व्यापार या व्यवसाय नहीं होती है अतः इसमें काम करने वालों को धैर्य की अग्नि परीक्षा से इस प्रकार गुजरना पड़ता है कि लम्बी मेहनत के बावजूद उन्हें अपेक्षित फल न मिल सके। इसका उदाहरण कांग्रेस के अध्यक्ष रहे श्री राहुल गांधी स्वयं हैं। राहुल गांधी 2004 से राष्ट्रीय राजनीति में हैं और अभी तक उन्हें कड़ी मेहनत के बावजूद इक्का-दुक्का सफलताएं ही मिली हैं। लेकिन इसका दूसरा पहलू यह भी है कि कांग्रेस राष्ट्रीय स्तर पर एेसा ठोस विकल्प देने में नाकामयाब रही है जो वर्तमान सत्तारूढ़ पार्टी का माकूल जवाब बन सके। अतः नेताओं द्वारा पार्टी छोड़ कर जाने का एक कारण यह भी हो सकता है, खासकर पूर्वोत्तर भारत के कांग्रेसियों को लग रहा है कि इस क्षेत्र में ममता दी द्वारा दिया गया विकल्प ही कारगर होगा।  सुष्मिता देव के पिता स्व. संतोषमोहन देव असम से लेकर त्रिपुरा तक की राजनीति के एक जमाने में केन्द्र बिन्दू माने जाते थे। अतः सुष्मिता देव की विरासत उनकी बहुत बड़ी पूंजी बन कर तृणमूल कांग्रेस की मदद कर सकती है।
 त्रिपुरा में मार्क्सवादी पार्टी के लम्बे शासन के बाद जिस प्रकार पिछले चुनावों में इस राज्य के लिए अनजान सी पार्टी भाजपा सत्तारूढ़ हुई उसके ​लिए कुछ कांग्रेसी अपनी पार्टी कांग्रेस को ही जिम्मेदार मानते हैं क्योंकि संगठनात्मक स्तर पर इस पार्टी द्वारा एेसे कदम उठाये गये कि पिछले विधानसभा चुनावों से पहले ही कांग्रेस हांशिये पर चली गई। खास कर त्रिपुरा के राजघराने के लोगों की कांग्रेस पार्टी ने जिस तरह अवमानना की उससे पार्टी को राज्य में बहुत नुकसान पहुंचा। इस राज्य में तृणमूल कांग्रेस पहले से ही अच्छी-खासी शक्ति बन कर उभर चुकी है। अतः कांग्रेस का सारा वोट बैंक तृणमूल कांग्रेस को परिवर्तित हो चुका है। यहां पिछले कुछ समय से सत्तारूढ़ भाजपा व तृणमूल कांग्रेस में जिस तरह लागडांट की स्थिति बनी हुई है उसे देखते हुए कांग्रेस पार्टी का इस राज्य में अस्तित्व किनारे पर पड़ा हुआ दिखाई पड़ता है। अतः सुष्मिता देव अपने पिता की विरासत को संभालते हुए इस राज्य में ममता दी की पार्टी के लिए एक महत्वपूर्ण ‘धरोहर’ साबित हो सकती हैं। दूसरे हमें इस मुद्दे पर भी विचार करना चाहिए कि त्रिपुरा की 32 साल से ज्यादा समय तक सत्तारूढ़ पार्टी रहने के बावजूद मार्क्सवादी पार्टी अब इस राज्य में दूसरे स्थान पर भी नहीं रही है। यह स्थान तृणमूल कांग्रेस ने ले लिया है। जबकि  मार्क्सवादी पार्टी के नेता श्री सीताराम येचुरी घोषणा कर चुके हैं कि राष्ट्रीय स्तर पर उनकी पार्टी को तृणमूल के साथ जाने में कोई गुरेज नहीं होगा। 
एक प्रकार से यह अखिल भारतीय स्तर पर सत्तारूढ़ पार्टी भाजपा के खिलाफ चारों तरफ से गोलबन्दी होने का ही संकेत है। देखना केवल यह होगा कि इस गोलबन्दी में विपक्ष की तमाम पार्टियां क्षेत्रवार अपने-अपने अस्तित्व को किस प्रकार सुरक्षित रख पायेंगी। इस मामले में कुछ राजनीतिक विश्लेषकों  की राय यह भी है कि इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि भाजपा के विरुद्ध मोर्चे बन्दी में किस विपक्षी दल का नेता किस दूसरे विपक्षी दल में गया क्योंकि अन्ततः वह विरोध में ही रहेगा और अपने क्षेत्र की राजनीतिक परिस्थितियों के अनुसार विपक्ष को ही मजबूत करने का काम करेगा। मगर सुष्मिता देव के तृणमूल कांग्रेस में जाने का अर्थ यही निकलता है कि पूर्वोत्तर में असली मुकाबला भाजपा व तृणमूल कांग्रेस के बीच ही रहने वाला है।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

three + four =

पंजाब केसरी एक हिंदी भाषा का समाचार पत्र है जो भारत में पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, हिमाचल प्रदेश और दिल्ली के कई केंद्रों से प्रकाशित होता है।