कोई समय था जब एमनेस्टी इंटरनेशनल ने म्यांमार की सर्वोच्च नेता और नोबेल पुरस्कार विजेता आंग सान सू की को लोकतंत्र की प्रकाश स्तम्भ बताया था। सैन्य तानाशाही के खिलाफ सू की 15 वर्ष तक नजरबन्द रहीं। लोकतंत्र की रक्षा के लिए उनकी नजरबन्दी अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा का विषय बनी। एमनेस्टी इंटरनेशनल ने उन्हें 1989 में ‘राजनीतिक बन्दी’ घोषित किया था। इसके 20 वर्ष बाद उन्हें संस्था ने अपने सर्वोच्च सम्मान से नवाजा था। उन्हें मानवाधिकारों की रक्षा करने वाली महिला के रूप में जाना गया, अन्ततः उन्हें रिहा किया गया। म्यांमार में चुनाव हुए और वह ‘म्यांमार की राजमाता’ बन गईं। 13 नवम्बर 2018 को उनकी रिहाई के 8 वर्ष पूरे हुए लेकिन इसी दिन एमनेस्टी इंटरनेशनल ने उन्हें दिया गया सर्वोच्च सम्मान वापस लेने का ऐलान कर दिया। अब संस्था को नहीं लगता कि सू की इस सम्मान की पात्र हैं। म्यांमार के रोहिंग्या अल्पसंख्यकों का मुद्दा भारत को भी परेशान कर रहा है। देश के अनेक भागों में शरणार्थी के रूप में आए रोहिंग्या लोगों की पहचान कर उनकी वापसी सुनिश्चित की जा रही है।
म्यांमार में रोहिंग्या मुस्लिमों पर सेना ने अत्याचार किए। इन अत्याचारों से परेेशान रोहिंग्या मुस्लिम भारत आैर अन्य देशों में आ घुसे आैर यहीं बस गए। रोहिंग्या मुस्लिमों पर अत्याचार काफी भयानक थे लेकिन मानवाधिकारों के लिए लम्बा संघर्ष करने वाली सू की ने इस मामले में रहस्यमय चुप्पी धारण कर ली। अन्तर्राष्ट्रीय दबाव के बावजूद सू की के लब खामोश रहे हैं। हैरानी की बात तो यह भी थी कि रोहिंग्या मुस्लिमों की हत्या की जांच-पड़ताल करने वाले रायटर के दो पत्रकारों की गिरफ्तारी का भी उन्हाेंने समर्थन किया। म्यांमार की बहुसंख्यक आबादी बौद्ध है। म्यांमार में अनुमान के मुताबिक रोिहंग्या मुसलमानों की आबादी 10 लाख के करीब थी। पलायन के बाद तो उनकी आबादी कम होने का अनुमान है। इन मुसलमानों के बारे में कहा जाता है कि वे मुख्य रूप से अवैध बंगलादेशी प्रवासी हैं। म्यांमार सरकार ने उन्हें नागरिकता देने से इन्कार कर दिया था। हालांकि ये म्यांमार में पीढ़ियों से रह रहे हैं। इन्हें देश के एक कोने के राज्य रखाइन में रखा गया। रखाइन में 2012 से साम्प्रदायिक हिंसा जारी है। इस हिंसा में बड़ी संख्या में लोग मारे गए आैर एक लाख से अधिक लोग विस्थापित हुए।
लाखों की संख्या में बिना दस्तावेज वाले रोहिंग्या बंगलादेश में रह रहे हैं जिन्होंने दशकों पहले म्यांमार को छोड़ दिया था। पिछले वर्ष भी रखाइन राज्य में काफी हिंसा हुई। पिछले वर्ष अगस्त-सितम्बर में 9 पुलिस अधिकारियों के मारे जाने के बाद रखाइन स्टेट में सुरक्षा बलों ने बड़े पैमाने पर ऑप्रेशन शुरू किया था। सरकार का आरोप था कि पुलिस अधिकारियों की हत्या रोहिंग्या ने की है। इस ऑप्रेशन में 100 से अधिक लोग मारे गए थे जबकि रोहिंग्या समुदाय सैनिकों पर प्रताड़ना, बलात्कार आैर हत्या का आरोप लगाता रहा है। म्यांमार के सैनिकों पर मानवाधिकारियों के उल्लंघन के गम्भीर आरोप भी लगे। फलस्वरूप रोहिंग्या वहां से भाग खड़े हुए। रोहिंग्या समुदाय की छवि भी जरायमपेशा की ही बनी। म्यांमार में 25 वर्ष बाद चुनाव हुए। इन चुनावों में आंग सान सू की की पार्टी नेशनल लीग फॉर डेमोक्रेसी की भारी जीत हुई। विदेशी से शादी करने के चलते संवैधानिक नियमों के तहत सू की राष्ट्रपति तो नहीं बन सकीं लेकिन वह स्टेट काउंसलर की भूमिका में हैं।
मानवाधिकारों की चैम्पियन होने के बावजूद वह खामोश रहीं। सू की की चुप्पी इस बात का सबूत है कि म्यांमार में रोहिंग्या के प्रति जरा सी भी सहानुभूति नहीं। रोहिंग्या के खिलाफ सेना के एक्शन लेकर पूरा देश सेना के साथ खड़ा है। रोहिंग्या मामले में सू की का रवैया भी अपने पिता आंग सान की ही तरह रहा। 1947 में जब पांगलांग वार्ता हुई थी तो उसमें भी रोहिंग्या प्रतिनिधियों को बुलाया नहीं गया था। 1950 के दशक में कुछ समय के लिए रोहिंग्या समुदाय को बर्मा (म्यांमार का पुराना नाम) का नागरिक मानने के लिए समझौते के प्रयास किए गए थे। तत्कालीन सरकार द्वारा 144 जातीय समूहों की पहचान की गई लेकिन सेना ने सूची में से रोहिंग्या समेत 9 जातियों को बाहर कर दिया था। सू की के पिता जनरल आंग सान ने रोहिंग्या को पूरे अधिकार देने आैर भेदभाव खत्म करने का भरोसा दिया था लेकिन वे भी अपने वादे से पलट गए थे। 1962 में जनरल नेविन सत्ता में आए तो उन्होंने रोहिंग्या समुदाय के सामाजिक और राजनीतिक संगठनों को ध्वस्त कर दिया। 1977 में सेना ने सभी नागरिकों का पंजीकरण किया तो 2 लाख से ज्यादा रोहिंग्या मुस्लिमों ने बंगलादेश में जाकर शरण ली।
रोहिंग्या लगातार खदेड़े जाते रहे। रोहिंग्या मुस्लिमों की पीढ़ियां तम्बुओं में ही जीवन बिता रही हैं। दुनियाभर में नरसंहार होते रहे और बड़े देश असहाय नजर आए। ऐसी ही स्थिति रोहिंग्या के साथ बनी। आंग सान सू की अपने पूर्वजों की गद्दी पर बैठकर क्रांति भूल गईं, लोगों का दुःख-दर्द भूल गईं। शायद उन्हें भी इस बात का भय हो कि वह कुछ बोलीं तो सेना फिर उनके शासन को उखाड़ न फैंक दे। सत्ता बहुत निष्ठुर भी होती है और आनन्ददायक भी। सत्ता का अपना ही नशा होता है। अगर रोहिंग्या का घर म्यांमार नहीं है तो उनकी पीढ़ियां कहां रह रही थीं, उनका मूल कहां है? बेहतर होता उनके घर जलाए जाने, उन पर हमले करके उनकी जान लेने की बजाय उन्हें म्यांमार की नागरिकता दी जाती, वह देश जहां वे पैदा हुए हैं। सू की से सम्मान वापस लेने से उन पर कोई फर्क पड़ेगा, ऐसी कोई उम्मीद भी नहीं, यह भी एक रस्म अदायगी ही है।