इतिहास गवाह है कि भारत को आजादी सहजता से नहीं मिली। बड़ी भारी कीमत चुकाते हुए अपना खून बहाकर यहां के स्वतंत्रता सेनानियों ने हमें सुकून दिया है। इसीलिए सरकारों से उम्मीदें बढ़ जाती हैं। मोदी सरकार तीन साल पहले सत्ता में आई तो सचमुच इसने एक के बाद एक ऐसे फैसले लिए जो जनता के हितों से जुड़े हैं। भाजपा को इस मामले में एक पारदर्शी सरकार माना जाता है लेकिन अगर आप सीमा पर आए दिन गोलियां बहाने वाले पाकिस्तान के आतंकवादियों को सबक सिखा सकते हो, उनके खिलाफ सर्जिकल स्ट्राइक कर सकते हो और कश्मीर घाटी में पत्थरबाजों के रहनुमा बनकर आतंकवादियों को ठिकाने लगा सकते हो तो फिर अपने देश में आरएसएस के हमलावरों के खिलाफ एक्शन कब लोगे।
केरल में पिछले 5 साल से जिस तरह से आरएसएस के स्वयंसेवकों और भाजपा के नेताओं को निशाने पर लिया गया तो इन हमलावरों के खिलाफ मोदी सरकार एक्शन कब लेगी। प्रजातंत्र में सत्ता के चक्कर में जिस प्रकार की कम्यून (कम्युनिस्ट) हिंसा केरल में चल रही है उसका प्रतिकार इस समय देश मांग रहा है। रिकार्ड खंगालने पर पता चलता है कि 1962 से लेकर आज तक केरल में लगभग 48 स्वयंसेवक और भाजपा के 10 से 15 कार्यकर्ताओं पर हमले करके उनके खून से होली खेली गई है। लिहाजा अगर आरएसएस इस मामले में न्याय की मांग बुलंद कर रहा है तो हम इसका पुरजोर समर्थन करते हैं। हमारा मानना है कि यह हत्याएं सुनियोजित तरीके से की जा रही हैं और इन्हें राजनीतिक हत्याओं के रूप में देखा जाना चाहिए क्योंकि केरल में इस समय वाम मोर्चा की सरकार है, जो भाजपा को, विशेष रूप से आरएसएस को, अपना जमीनी राजनीतिक शत्रु मानती है।
दक्षिण में आरएसएस के बढ़ते कदम वाम मोर्चा को रास नहीं आ रहे। इसीलिए आरएसएस के दफ्तरों और भाजपा के कार्यालयों और इनसे जुड़े नेताओं के घरों पर भी कभी बम फैंके जा रहे हैं तो कभी गोलियां बरसाई जा रही हैं। ऐसे में हमारा सवाल यह है कि कल तक असहिष्णुता का राग अलापने वाले वामपंथियों के मुंह में अब दही क्यों जम गई है? बड़े-बड़े साहित्यकार जिनको सहिष्णुता और अहिष्णुता के टकरावों के बीच बाण छोडऩे का मौका मिल गया था, अब खामोश क्यों हैं? कम्युनिस्टों ने केरल में जिस तरह से हिन्दू विचारधारा की अग्रणी आरएसएस और राष्ट्रभक्ति की परिभाषा स्थापित करने वाली भाजपा के खिलाफ हिंसा का तांडव शुरू कर रखा है तो इसके खिलाफ एक्शन की डिमांड सरकार से नहीं की जाएगी तो किससे की जाएगी? दो दिन पहले आरएसएस के दिग्गज सह सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबोले ने दिल्ली आकर इस मामले पर प्रैस कांफ्रैंस भी आयोजित की और उन्होंने साफ कहा कि समय आ गया है कि केरल में राष्ट्रपति शासन लगाया जाए और इस बात की न्यायिक जांच की जाए कि आरएसएस और भाजपा कार्यकर्ताओं पर सुनियोजित हमले और उनकी हत्याएं क्यों की जा रही हैं? उन्होंने साफ कहा कि पिछले 13 महीने में आरएसएस के 14 कार्यकर्ताओं की कथित तौर पर माकपा से जुड़े आपराधिक तत्वों ने हत्या की है।
यह कम्युनिस्टों की तालिबानी मानसिकता का परिचायक है। ये लक्षित और सुनियोजित हमले हैं। इन हमलों में मुख्य रूप से हमारे दलित प्रचारकों को निशाना बनाया गया, क्योंकि हमारे संगठन में काफी संख्या में दलित, मछुआरे, सफाई करने वाले, ट्रक चलाने वाले शामिल हो रहे हैं। यह माकपा को बर्दाश्त नहीं हो रहा है। उन्होंने कहा कि अक्तूबर 2016 में अखिल भारतीय अधिवेशन में हमने केरल में हिंसा को लेकर एक प्रस्ताव पारित किया था। हमने राष्ट्रपति और गृहमंत्री के समक्ष भी इस विषय को उठाया और अच्छी बात है कि संसद में पिछले दो दिनों में यह विषय उठा है लेकिन ये हमले रुक नहीं रहे हैं। सुनियोजित और जघन्य तरीके से आरएसएस कार्यकर्ताओं पर ऐसे हमले हो रहे हैं। हम तो यही कहेंगे कि आरएसएस के सब्र का इम्तिहान न लिया जाए।
होसबोले ने अपनी बात लोकतांत्रिक मूल्यों के तहत मर्यादित तरीके से रखी। कहा जा रहा है कि जो आरएसएस भाजपा रणनीतिकारों के दम पर सरकारों का गठन करवाती है तो उसके स्वयंसेवकों को कम्युनिस्टों की इस तालीबानी हिंसा के खिलाफ जंतर-मंतर पर प्रदर्शन करना पड़े तो इसका संज्ञान खुद प्रधानमंत्री मोदी को लेना होगा और केरल में उस सरकार के खिलाफ एक्शन लेना होगा जो सब कुछ करवा रही है। केवल मात्र निंदा करना तो हल नहीं है। मान लिया कि आप इन हत्याकांडों की निंदा कर रहे हैं। निंदा करने से वह आरएसएस के स्वयंसेवक वापस तो नहीं आएंगे जिनकी हत्या हो चुकी है। इन राजनीतिक हत्याओं के अलावा केरल में और भी बहुत कुछ हो रहा है जो राष्ट्रीयता और लोकतंत्र के खिलाफ है। आरएसएस के इस दर्द को समझना होगा तथा एक्शन लेना होगा, इसका इंतजार न केवल आरएसएस स्वयंसेवकों को है बल्कि पूरे देश को मोदी सरकार से उम्मीदें हैं कि कम्युनिस्टों के इस जहरीली तालीबानी विचारधारा से उत्पन्न हमलों के नाग का फन कुचलना होगा, यह समय की मांग है।