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​तमिलनाडु, ओडिशा और पश्चिम बंगाल का रुख

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महाराष्ट्र, तमिलनाडु, झारखंड, बिहार को छोड़ दें तो विपक्षी एकजुटता की तस्वीर स्पष्ट रूप से अभी तक उभर नहीं सकी। प्रमुख राज्यों में देश के सबसे बड़े राज्य तमिलनाडु में अब काफी परिवर्तन आ चुका है। इस बार तमिलनाडु राजनीति में लम्बे समय तक निर्धारित करने वाले व्यक्तित्व जे. जयललिता और करुणानिधि दोनों ही नहीं हैं। दोनों ओर से गठबंधन हो चुका है। पिछली बार अन्नाद्रमुक ने एकपक्षीय जीत हासिल की थी। अब भाजपा अन्नाद्रमुक के साथ है तो कांग्रेस का द्रमुक के साथ गठबंधन है। सामान्य धारणा यही है कि वहां 2014 के परिणामों की पुनरावृत्ति तो नहीं होगी ले​किन एकपक्षीय जीत की भी संभावना नहीं है।

कर्नाटक में भले ही जनता दल सैक्युलर के साथ कांग्रेस सत्ता में है लेकिन भाजपा का जनाधार पहले की ही तरह बरकरार है। विधानसभा चुनाव में सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर तो भाजपा ही उभरी थी, लेकिन कांग्रेस द्वारा जनता दल (एस) को सरकार बनाने के लिए समर्थन देने पर गठबंधन को कुछ बढ़त मिल गई थी। आमतौर पर ओडिशा के चुनाव परिणामों को राष्ट्रीय स्तर पर उतनी तवज्जो नहीं दी जाती जितनी इस बार दी जा रही है।

सभी प्रमुख पार्टियों की नज़रें इस बात पर टिकी हुई हैं कि किसी दल को पूर्ण बहुमत मिलने की स्थिति में अगली सरकार के गठन में बीजू जनता दल सुप्रीमो और राज्य के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक की क्या भूमिका रहेगी आैर वो किसके पक्ष में जाएंगे। लगातार 19 वर्ष से सत्ता में रहने के बाद नवीन पटनायक के लिए इस बार चुनाव जीतना आसान नहीं होगा। उन्हें एंटी इंकम्वैसी फैक्टर का खामियाजा भुगतना ही पड़ेगा।

2014 के चुनाव में राज्य की 21 सीटों में से 20 सीटें बीजू जनता दल ने जीती थीं और केवल एक सीट भाजपा के खाते में गई थी। आेडिशा एक ऐसा राज्य था जहां देश के बाकी हिस्सों में चली मोदी आंधी का कोई असर नहीं पड़ा लेकिन इस बार वैसी स्थिति नहीं है। 2014 की तुलना में राज्य में मोदी और भाजपा दोनों के प्रति समर्थन बढ़ा है। नरेन्द्र मोदी के सत्ता में आने के बाद पूर्वी भारत पर भाजपा ने खास ध्यान दिया है और इसी के तहत ओडिशा को अपनी हर कल्याणकारी योजना की प्रयोगशाला बनाया है। प्रदेश में निर्जीव पड़ी कांग्रेस भी अब जी जान से जुट गई है।

भाजपा ने अपने दिग्गज वोटरों को ओडिशा में उतारा है। उसके पास खोने के लिए वहां कुछ नहीं है, जो भी हासिल होगा वह उसके लिए फायदे का ही सौदा है। भाजपा की रणनीति यही रही है कि हिन्दी पट्टी में उसे अगर नुक्सान भी हुआ तो उसकी पूर्ति ओडिशा और अन्य तटीय राज्यों से पूरी कर ली जाए। इसी क्रम में भाजपा की नज़रें पश्चिम बंगाल पर लगी हुई हैं। पश्चिम बंगाल में युद्ध की जमीन तो बहुत पहले तैयार हो चुकी थी लेकिन चुनावों की घोषणा के बाद दोनों ओर की सेनाएं और हथियारों की रणनीति के साथ मैदान में आ डटी हैं। चुनावी समर में तृणमूल कांग्रेस और भाजपा आपने-सामने है। राज्य की 42 सीटों पर दोनों की निगाहें टिकी हुई हैं।

भाजपा उत्तर भारतीय राज्यों में होने वाले संभावित नुक्सान की भरपाई पश्चिम बंगाल से करना चाहती है। पश्चिम बंगाल के लालकिले को ध्वस्त करना आसान नहीं था लेकिन तृणमूल कांग्रेस के गठन के बाद बंगाल के लालकिले को ढहाने का श्रेय ममता बनर्जी को ही जाता है। शुरूआती नाकामियों के बाद अंततः उन्होंने लेफ्ट के फार्मूले से ही उसे शिकस्त दे दी थी। नोटबंदी हो या जीएसटी या अन्य मुद्दे, ममता बनर्जी केन्द्र की एनडीए सरकार और प्रधानमंत्री के खिलाफ मुखर नेताओं में से एक रही है।

हालांकि शारदा चिटफंड घोटाले को लेकर बहुत टकराव हुआ। घोटाले के सिलसिले में कोलकाता के पुलिस आयुक्त राजीव कुमार से सीबीआई की पूछताछ की कोशिश के विरोध में ममता बनर्जी धरने पर बैठ गई थी, 2014 के लोकसभा चुनावों में दो सीटें जीतने के बाद कांग्रेस और सीपीएम को पीछे धकेलते हुए नम्बर दो के तौर पर उभरी है। पंचायत चुनावों के दौरान भी भाजपा ने अच्छा प्रदर्शन किया था। हालांकि इन चुनावों में जमकर हिंसा हुई थी और तृणमूल कांग्रेस के 34 फीसदी सीटों पर तृणमूल के उम्मीदवार निर्विरोध जीते थे क्योंकि विपक्षी उम्मीदवारों को नामांकन पत्र तक दायर नहीं करने दिया गया था। सौ से ज्यादा लोग हिंसा की बलि चढ़ गए थे।

दोनों पक्षों के युद्ध की हुंकार की वजह से चुनाव दिलचस्प होंगे। भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने 24 सीटें जीतने का लक्ष्य रखा है। कांटे की टक्कर में अगर भाजपा की सीटें दो से कहीं अधिक बढ़ती हैं तो मोदी के पुनः सत्ता में आना सुनिश्चित ही करेगा। केरल की 20 लोकसभा सीटों पर भी भाजपा की नज़रें हैं। 2014 में यूडीएफ ने 12 सीटें जीती थीं और एलडीएफ ने 8 सीटों पर जीत दर्ज की थी। इस बार भाजपा का यहां खाता खुल सकता है। केरल में भाजपा का वोट प्रतिशत भी बढ़ेगा। जैसे-जैसे चुनाव नजदीक आएंगे देशभर में स्थिति साफ होती जाएगी।

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