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आंसू बहाती खाकी

सुकीर्ति माधव के यह शब्द खाकी वर्दी पहनने वालों की व्यथा है। आज फिर घर में पुलिस कर्मी देवेन्द्र का पार्थिव शरीर आया। चारों तरफ क्रन्दन।

‘‘भूख और थकान
की बात ही क्या
कभी आहत हूं, कभी चोटिल हूं
और कभी तिरंगे में लिपटी
रोती सिसकती छाती हूं
मैं खाकी हूं
शब्द कह पाया कुछ ही
आत्मकथा मैं बाकी हूं
मैं खाकी हूं।’’
सुकीर्ति माधव के यह शब्द खाकी वर्दी पहनने वालों की व्यथा है। आज फिर घर में पुलिस कर्मी देवेन्द्र का पार्थिव शरीर आया। चारों तरफ क्रन्दन। एक माह पहले ही उसके यहां दूसरी बेटी ने जन्म लिया था। बड़ी बेटी 3 वर्ष की है। बहन की शादी अगले कुछ दिनों में होने वाली थी। गांव में कोहराम है। कोई भी सरकारी सहायता उनके परिवार के आंसू नहीं पोंछ पाएगी। बेटियां तमाम उम्र पापा का इंतजार ­करेंगी। खाकी आंसू बहा रही है।
उत्तर प्रदेश के बिकरू कांड की चर्चा अभी तक सबकी जुबान पर है जब एक घातक हमले की शिकायत के बाद कुख्यात विकास दूबे के घर पहुंची पुलिस पर अचानक घरों की छतों से गोलीबारी शुरू हो गई थी। इससे पहले सड़क पर जेसीबी मशीन खड़ी कर पुलिस वालों का रास्ता रोक दिया गया था। स्पष्ट था कि पुलिस पर हमला सुनियोजित था। इस हमले में आठ पुलिसकर्मियों की हत्या के बाद हाहाकार मच गया था। यद्यपि पुलिस ने विकास दूबे को गिरफ्तार कर लिया था। नाटकीय घटनाक्रम में विकास दूबे की मौत हो गई थी। अब फिर उत्तर प्रदेश के कासगंज में मंगलवार देर शाम शराब माफिया ने दुस्साहसिक वारदात को अंजाम दिया। कुर्की के लिए नोटिस चस्पां करने गए दरोगा अशोक पाल और सिपाही देवेन्द्र सिंह को जमकर पीटा। देवेन्द्र कुमार की मौत हो गई जबकि दारोगा की हालत गम्भीर है। पुलिस ने बड़ी कार्रवाई करते हुए मुठभेड़ में शराब माफिया मोती धीमर के भाई को ढेर कर दिया। शराब माफिया ने न केवल पुलिसकर्मी की हत्या की ​बल्कि पुलिसकर्मियों को दौड़ा-दौड़ा कर भगाया, उनकी वर्दी फाड़ दी और असलहे छीन लिए गए।
बिकरू गोलीकांड में भी माफिया विकास दूबे और पुलिस अफसरों की सांठगांठ भी उजागार हो चुकी है। इसमें कोई संदेह नहीं कि उत्तर प्रदेश की योगी आदित्यनाथ सरकार ने अपराध और अपराधियों के खिलाफ जीरो टालरेंस की नीति अपनाई है, जिसके चलते बहुत सारे अपराधी मारे जा चुके हैं या फिर उन्हें गिरफ्तार किया गया है। कई अपराधियों ने खौफ के चलते आत्मसमर्पण भी किया है। ऐसी आपराधिक घटनाएं केवल उत्तर प्रदेश में ही नहीं बल्कि अन्य राज्यों में भी होती हैं। देश में अनेक तरह के माफिया सक्रिय हैं। शराब माफिया के अलावा अवैध खनन माफिया, रेत माफिया, कोल माफिया, भू माफिया, ड्रग्स माफिया। ये माफिया इतने क्रूर हैं कि इनके सामने इंसानी जिन्दगी की कोई कीमत नहीं। अवैध खनन माफिया तो पुलिसकर्मियों की हत्या के लिए कुख्यात है। कोल माफिया कोयले की चोरी आैर श्रमिकों के शोषण के लिए कुख्यात है। अपराध की दुनिया में सभी माफियाओं के लम्बे-चौड़े रिकार्ड हैं। यह जगजाहिर की स्थिति है कि स्थानीय स्तर पर उभरे अपराधियों को किसी न किसी राजनीतिक दल का समर्थन प्राप्त होता है, फिर अपराध की दुनिया में कद बढ़ने के बाद वह अलग-अलग पार्टियों में प्रभावशाली पदों पर बैठे नेताओं तक अपनी पैठ बना लेता है। राजनीतिक संरक्षण के बाद उसे पुलिस में शामिल काली भेड़ों का संरक्षण मिल जाता है। फिर वह अपराध की दुनिया में अपने पांव फैलाता है, उसके सम्पर्क बड़े माफियाओं से होते हैं, जिनके इशारे पर वह काम करने लगता है और अपनी ऊंची पैठ के चलते आजाद घूमता रहता है। उत्तर प्रदेश में जहरीली शराब से लोगों की मौतों की खबरें आती रहती हैं। ऐसा तो माना नहीं जा सकता कि इलाके के पुलिस प्रभारी को इस बात की जानकारी नहीं होगी कि कौन से इलाके में अवैध शराब का धंधा होता है और कौन-कौन उसमें लिप्त है। सवाल यह भी है कि इलाके की पुलिस अपराध होने के बाद ही सक्रिय क्यों होती है। गम्भीर प्रकृति के अपराधों में ​लिप्त लोग खुले क्यों घूमते रहते हैं। इस अघोषित संरक्षण से बढ़े हौंसले की वजह से जब किसी पुलिसकर्मी की जान ले ली जाती है तो पुलिस आती  सक्रिय हो जाती है। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के अपराध मुक्त उत्तर प्रदेश के संकल्प में ईमानदारी है लेकिन पुलिस प्रशासन में छिपे चंद लाेग अपना ईमान बेच दें तो संकल्प तो धूल धुसरित होगा ही। जब उत्तर प्रदेश सरकार ने पुलिस प्रशासन को अपराधियों से निपटने में फ्री हैंड दे रखा है तो पुलिस को भी कानून और संस्थान की गरिमा को 
बनाए रखने का अपना प्राथमिक दायित्व तो समझना ही चाहिए। दरअसल उत्तर प्रदेश की पूर्व की सरकारों ने पुलिस का राजनीतिकरण ही किया। ऐसा माहौल बन गया था कि पुलिस थानों को विशेष जाति के थाने करार दिए जाने लगे थे। स्थानीय स्तर का कोई भी नेता अपनी जाति से जुड़े लोगों पर कार्रवाई होने ही नहीं देता था। इस तरह अपराध की जमीन पुख्ता होती गई। कमजोर और 
दभित शोषित तबकों के भीतर भय और दबाव के मनोविज्ञान को बनाए रखने के लिए अनेक हमले किए गए। महज वर्चस्व की कुंठा के चलते किसी को दबाए रखने के मकसद से आपराधिक घटनाओ काे अंजाम दिया जाने लगा। 
अपराधियों का मनोबल बढ़ता गया और पुलिस का उनमें कोई खौफ नहीं रहा। अब अपराधी सीधा पुलिस वालों को निशाना बना रहे हैं। जरूरत है पुलिस को ईमानदार और कर्त्तव्यनिष्ठ बनाने की। पुलिस के जवान का अपराधियों 
के हाथों मारा जाना स्वस्थ लोकतंत्र की सही तस्वीर नहीं है। अगर ऐसा ही 
होता रहा तो फिर सवाल उठेगा कि जो पुलिस अपनी सुरक्षा नहीं कर सकती वह दूसरों के साथ न्याय कैसे कर पाएगी।

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