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न्याय और अन्याय की कसौटी

सुप्रीम कोर्ट ने एससी/एसटी एक्ट के तहत गिरफ्तारी के प्रावधानों को हल्का करने संबंधी अपना पुराना फैसला वापिस ले लिया है।

सुप्रीम कोर्ट ने एससी/एसटी एक्ट के तहत गिरफ्तारी के प्रावधानों को हल्का करने संबंधी अपना पुराना फैसला वापिस ले लिया है। पिछले वर्ष 20 मार्च को सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में एससी/एसटी के तहत मुकदमा दर्ज होने के बाद तुरन्त गिरफ्तारी से छूट दे दी थी। 
सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने के बाद 2 अप्रैल को दलित समुदाय के बंद के दौरान हिंसा का तांडव हुआ था। हिंसा में लगभग एक दर्जन लोग मारे गए और करोड़ों की सम्पत्ति को नुक्सान पहुंचा था। तब नरेन्द्र मोदी सरकार को दलित समुदाय की ओर से काफी आलोचना का सामना करना पड़ा था और विपक्ष ने आरोप लगाया था कि केन्द्र की एनडीए सरकार दलितों के हितों की रक्षा करने में नाकाम रही है। 
मोदी सरकार पहले ही एससी/एसटी एक्ट में संशोधन कर उसका मूल स्वरूप बहाल कर चुकी है। साथ ही केन्द्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में पुनर्विचार याचिका भी डाली थी। सरकार की इसी याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने अपना फैसला पलट दिया है। अब इस तरह से पुराना कानून ही बहाल हो जाएगा। अब जाति सूचक शब्दों के इस्तेमाल संबंधी शिकायत पर तुरन्त मामला दर्ज होगा, तुरन्त गिरफ्तारी होगी और मामले की सुनवाई सिर्फ विशेष अदालत करेगी। 
सरकारी कर्मचारी के खिलाफ अदालत में चार्जशीट दायर करने से पहले जांच एजैंसी को अथारिटी से अनुमति भी नहीं लेनी होगी। तीन जजों की पीठ ने माना कि देश में समानता के लिए अनुसूचित जाति और जनजाति का संघर्ष अभी खत्म नहीं हुआ है। इस समुदाय के लोगों को अभी भी छुआछूत, दुर्व्यवहार और सामाजिक बहिष्कार का सामना करना पड़ता है। अपने पूर्व के फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि वह इस कानून के खिलाफ नहीं है लेकिन यह भी नहीं चाहता कि इसका इस्तेमाल निर्दोषों को सजा देने के लिए किया जाए। 
अब सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने कहा है कि इस कानून के प्रावधानों के दुरुपयोग और झूठे मामले दायर होना जाति व्यवस्था की वजह से नहीं बल्कि मानवीय विफलता का नतीजा है। हमारे देश में कानून बनाने का काम संसद का है और न्यायपालिका का काम उनके गुण-दोषों को परखना है लेकिन किसी कानून का दुरुपयोग होने के चलते क्या कानून को कमजोर बनाया जाना चाहिए? यह सवाल सबके सामने है। इसमें कोई संदेह नहीं कि समाज की समस्याओं को दुरुस्त करने के लिए कानून के रूप में जब भी सरकार की तरफ से पहल हुई, उस कदम का परिणाम एक नए विद्रूप में दिखाई दिया। 
कानून का तकाजा है कि सौ गुनहगार बच जाएं लेकिन एक निर्दोष को सजा न मिले। इस देश में दहेज विरोधी कानून हो या घरेलू हिंसा रोकथाम कानून, सभी के दुरुपयोग की बातें जगजाहिर हो चुकी हैं। किसी पीडि़त को सहायता देने के नेक इरादे से कभी ये तमाम कानून बनाए गए, लेकिन बाद में इनके बढ़ते दुरुपयोग ने इन कानूनों का असली मकसद ही छीन लिया। एससी/एसटी कानून का भी कुछ मामलों में दुरुपयोग हुआ। यह समस्या सामाजिक है लेकिन विडम्बना यह है कि इसका इलाज सरकार कर रही है। 
भारत और उसका समाज बदल रहा है। कभी अक्षर और स्कूल से वंचित दलित समाज आज टॉपर पैदा कर रहा है। समाज की अगड़ी जातियों की पहुंच वाले पदों पर काबिज होकर ऐसे प्रतिभाशाली दलित युवाओं ने बता दिया है कि देश बदल रहा है। अगर कुछ नहीं बदला तो वह है समाज की सोच। आज भी देश में दलित दूल्हों को घोड़ी पर चढ़कर बारात लाने की अनुमति नहीं दी जाती। कई जगह दलितों को आज भी अगड़ी जाति के लोग अपने कुंओं से पानी नहीं भरने देते। 
देश के कई क्षेत्रों में आजादी से पूर्व जैसी स्थितियां हैं। दलितों को कई बार अपमानित किया जाता है। ऐसे में यह देखना भी जरूरी है कि दलितों पर अत्याचार नहीं हो। जरूरी यह है कि सभी सामाजिक कानूनों की समीक्षा हो और समय के मुताबिक उनमें परिवर्तन किया जाए। कानून के अनुभव बताते हैं कि सामाजिक समस्याओं को ठीक करने की पहल कानूनी-कायदे से ज्यादा समाज को सशक्त बनाकर किए जाने की आवश्यकता है। जितना अधिक लोग जागरूक होंगे, सामाजिक कुरीतियां उतनी ही जल्दी दम तोड़ती नजर आएंगी। 
कानूनों का दुरुपयोग तो बोनस की तरह है। पिछले कुछ दशकों से राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता के चलते कानून का दुरुपयोग कर शिकायतें दर्ज कराई गईं। अदालतों ने कई बार पाया कि निर्दोष लोग ही इनका शिकार बने। यह भी देखना जरूरी है कि कहीं कानून ही समस्या तो नहीं बन गया। अब अहम सवाल यह है कि समाज और कानून में संतुलन कैसे कायम किया जाए। देश के संभ्रांत नागरिकों को कानून का पालन करना चाहिए लेकिन यह भी देखना होगा कि किसी निर्दोष के साथ अन्याय नहीं हो। इसके लिए समाज को स्वयं पहल करनी होगी ताकि ढाल ही को हथियार न बनाया जा सके। न्याय और अन्याय को कसौटी पर परखना ही होगा।

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