पांच राज्यों के चुनाव परिणामों से स्पष्ट है कि देश में राजनैतिक परिवर्तन की लहर बहनी शुरू हो गई है। बिना शक इसका श्रेय कांग्रेस अध्यक्ष श्री राहुल गांधी को दिया जा सकता है जिन्होंने संसद से लेकर सड़क तक विचारधारा की उस लड़ाई को केन्द्र में लाने के लिए कठिन परिश्रम किया जिसे लोकतन्त्र का आधार कहा जाता है। व्यक्तिगत आक्षेपों और आलोचना की सड़क छाप सस्ती छींटाकशी के बीच सार्वजनिक बहस के स्तर को स्तरीय बनाये रखना निश्चित रूप से बहुत मेहनत की मांग करता है। वस्तुतः चुनाव जीतना ही लोकतन्त्र में किसी भी राजनैतिक दल का ध्येय होता है जिसमें नैतिकता को खोजना समुद्र में सूई ढूंढने के बराबर हो जाता है परन्तु इन चुनावों की सबसे बड़ी विशेषता यह कही जायेगी कि विपक्ष में रहते हुए कांग्रेस पार्टी ने राजनैतिक बहस का स्तर बनाये रखने का पूरा प्रयास किया और चुनाव प्रचार को आम जनता के मूल मुद्दों पर केन्द्रित करने की कोशिश की परन्तु उत्तर भारत के तीन राज्यों मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ व राजस्थान की काबिज भाजपा सरकारों के खिलाफ जनरोष का सटीक रूपान्तरण इसलिए नहीं हो सका क्योंकि इन राज्यों में कांग्रेस को स्वयं अपने ही भीतरघातियों से जूझना पड़ा और दूसरे जातिमूलक राजनीतिक दलों की वोटकाटू राजनीति का शिकार बनना पड़ा जो हर हालत में त्रिशंकु विधानसभाएं गठित होने की अपेक्षा लगाये बैठे थे।
इनमें बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी प्रमुख कही जा सकती हैं। इन्होंने भाजपा विरोध को अस्त्र बनाते हुए जिस प्रकार विपक्षी मतों का बंटवारा किया उससे अन्ततः सत्ताधारी दल की ही मदद हुई। इसके अलावा जिस प्रकार कांग्रेस के विद्रोही उम्मीदवारों ने राजस्थान व मध्य प्रदेश में मतों में बिखराव किया उससे भी सत्ताधारी दल को ही मदद मिली परन्तु आम जनता के रोष का अन्दाजा इस तथ्य से आसानी से लगाया जा सकता है कि इस सबके बावजूद तीनों ही राज्यों से भाजपा सरकारों की विदाई निश्चित हो गई। इनमें से छत्तीसगढ़ में तो कांग्रेस को दो तिहाई बहुमत मिल गया जबकि कांग्रेस से ही अलग हुए अजीत जोगी की जनता कांग्रेस पार्टी ने जो भी वोट प्राप्त किये वे भी मूल रूप से कांग्रेस के ही माने जाने जाते हैं। सत्ता विरोधी मतों के इस कदर बिखराव के बावजूद यदि विपक्षी पार्टी कांग्रेस की विजय हुई है तो इसका सीधा मतलब यही निकाला जा सकता है कि राजनीति का आयाम बदल रहा है जिसका असर आने वाले लोकसभा चुनावों पर पड़ना भी लाजिमी है।
लोकतन्त्र में मतदाता ही सर्वोच्च होता है और उसने जो जनादेश दिया उसे स्वीकार करना ही होगा। दरअसल भारत में नफरत और असहिष्णुता की राजनीति के लिए कभी कोई स्थान नहीं रहा है। कभी-कभी इसका फौरी लाभ किसी राजनैतिक दल को हो सकता है मगर लम्बे अर्से में एेसी राजनीति उस राजनैतिक दल को ही खा जाती है। चाहे राजस्थान हो या मध्य प्रदेश अथवा छत्तीसगढ़, इन तीनों राज्यों में एक ही समस्या सबसे प्रमुख थी कि खेतीहर मजदूरों और किसानों के साथ सरकारें अन्याय इस तरह कर रही थीं कि उनके श्रम का फल उन्हें नहीं मिल पा रहा था और उन्हें मदद करने वाली सरकारी स्कीमों का परिचालन बिचौलियों पर इस तरह छोड़ दिया गया था कि वे किसानों के ही बहाने अपनी तिजोरियां भरते रहें। इसके अलावा जिस प्रकार बेरोजगार युवकों के साथ इन राज्यों की सरकारों ने मजाक किया और उन्हें स्वरोजगार देने के बहाने उनके स्वाभिमान से खेला उसका परिणाम भी भाजपा को भुगतना पड़ा।
भारत के संघीय ढांचे की विशेषता यह है कि केन्द्र की किसी भी स्कीम को राज्य सरकार ही लागू करती है अतः केन्द्र की जिन-जिन स्कीमों का भी ढिंढोरा चुनावों के दौरान पीटा गया उसकी तसदीक स्वयं जनता ने की और जमीन पर केवल ठेकेदारों की मौज देख कर उसे भारी हताशा हुई। कुछ ऐसे मुद्दे भी उठाये गये जिनका संसदीय लोकतन्त्र में कोई मतलब नहीं था। लोकतन्त्र में पार्टियां ही मुख्य रूप से चुनाव लड़ती हैं। इन चुनावों मंे कांग्रेस ने विजय प्राप्त कर यही सिद्ध किया है और यह मंजर बना दिया है कि कांग्रेस के बिना भारत की राजनीति वाचाल नहीं रह सकती।