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मुल्क की बदलती फिजा

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क्या फिजा बदली है इस मुल्क की कि न्यायपालिका खुद पिंजरे के पंछी की तरह फड़फड़ा रही है, संसद का गला घुट रहा है और जनता के चुने हुए नुमाइन्दे मुल्जिमों के साथ खड़े हुए नजर आ रहे हैं। राजनैतिक दलों में होड़ लगी हुई है कि संसद का दम घोंटने का इल्जाम किसके माथे पर चस्पा किया जाये मगर इसी देश का इतिहास गवाह है कि जब यहां के लोग सियासतदानों के चेहरों को बेनकाब करने की ठान लेते हैं तो इसके ताज-ओ-तख्त पर वे खुद जाकर बैठ जाते हैं।

आजादी के बाद जब नये भारत की निर्माता पीढ़ी ने संविधान की बुनियाद पर लोकतन्त्र को हमारा दीन-ईमान घोषित किया तो उसी दिन तय कर दिया था कि हुकूमत चलाने वालों की हैसियत सिर्फ जनता के नौकर की होगी और उन्हें अपनी हर कारगुजारी का हिसाब-किताब जनता को ही देना होगा। इन दूरदर्शी लोगों ने संसद के जरिये ही यह अख्तियार जनता के हाथों में दिया और लिख दिया कि हिन्दोस्तान का बड़े से बड़ा संविधान की कसम उठा कर औहदा संभालने वाला आदमी भी बाहर नहीं रहेगा। राष्ट्रपति से लेकर न्यायपालिका के प्रमुखों और खुद संसद को चलाने वाले लोगों की हिमाकतों के खिलाफ कार्रवाई करने का हक संसद को ही दिया गया जिसमें आम जनता के चुने हुए नुमाइन्दों के हाथ में हुकूमत की बागडोर रहती है।

बेशक इसके लिए सख्त तरीके भी हमारे संविधान निर्माताओं ने तय किये मगर सीधी-सादी जबान में अगर इसी बात को कहना हो तो मुझे स्व. राज कपूर द्वारा अभिनीत ‘श्री 420’ फिल्म का वह लोकप्रिय गाना याद आ रहा है जिसे शेलेन्द्र ने लिखा था। इसका आखिरी बन्द है ‘‘होंगे राजे–राजकुंवर हम बिगड़े दिल शहजादे–हम सिंहासन पर जा बैठें जब-जब करें इरादे।’’ इन दो लाइनों में भारत के लोकतन्त्र की अजीम ताकत का पुरजोर इजहार है जो बताता है कि इस मुल्क का मुफलिस और अनपढ़ समझा जाने वाला मतदाता किस कदर होशियार है।

इन मतदाताओं को बहकाया नहीं जा सकता है, बेशक लोग अपनी आदत के मुताबिक हादसों को देखकर सुन्न पड़े रहें मगर जब आंख खोलते हैं तो शहंशाहों को भी अपनी कतार में खड़ा कर देते हैं। पूरी दुनिया देख रही है कि आजकल सर्वोच्च न्यायालय में क्या समां बना हुआ है कि खुद मुल्क के लोगों को इंसाफ देने वाले न्यायमूर्ति ही अपने लिए इंसाफ की गुहार लगा रहे हैं ! पूरे देश ने देखा कि किस तरह संसद का बजट सत्र बेकार कर दिया गया और किसके इशारे पर किया गया तथा किस वजह से किया गया ?

यही तो इस मुल्क के लोगों का मिजाज है कि उनकी आंखों पर पर्दा डालने की जब-जब कोशिश की गई तब-तब ही उन्होंने और ज्यादा दूर देखने के पुख्ता सबूत छोड़ कर खुद को रहबर समझने वाले लोगों की रहजनी को उजागर कर दिया। मुझे 1974 में स्व. जयप्रकाश नारायण द्वारा चलाये गये सम्पूर्ण क्रान्ति आन्दोलन की याद आ रही है जब यह नारा विपक्ष में बैठी जनसंघ पार्टी ने ही गढ़ा था- ‘‘सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।’’ इस नारे को जेपी ने सहर्ष अपनी स्वीकृति दी थी और कहा था कि सत्ताधारी इंदिरा गांधी के खिलाफ उनका संघर्ष जनता की ताकत का अहसास दिलाने का वह जरिया है जिसकी बदौलत स्वयं इंदिरा जी को मुल्क की किस्मत लिखने का अख्तियार जनता ने दिया है।

इतिहास के विद्यार्थियों को यह भी पता होगा कि जेपी ने सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के पद पर कनिष्ठ न्यायाधीश श्री ए. नाथ रे को बिठाने का मुद्दा भी अपने आन्दोलन में जोड़ा था। यह बेवजह नहीं था कि पं. नेहरू द्वारा कई बार मन्त्रिमंडल में शामिल करने की पेशकश को ठुकराने वाले जेपी ने न्यायपालिका की स्वतन्त्रता को भारत के लोकतन्त्र का सर्वाधिक महत्वपूर्ण हिस्सा बताया था मगर हैरानी तब होती है जब आज का कानून मन्त्री सर्वोच्च न्यायालय के ही एक समारोह में यह दलील देता है कि जब एटम बम का बटन प्रधानमन्त्री के हाथ में यह देश दे सकता है तो मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति का अधिकार उसे दिये जाने पर क्या एतराज हो सकता है? यह इसी बात का सबूत है कि लोकतन्त्र को समझने की हमारी दृष्टि कितनी आत्म केन्द्रित हो चुकी है।

इसी तरह संसद में जिस तरह अपनी संविधानपरक जिम्मेदारियों से भागने के बहाने ढूंढे गये उनसे यही साबित हुआ कि 130 करोड़ लोगों द्वारा चुनी गई इस महापंचायत को सर्कस का खेल बनाने में सारी प्रतिभा का इस्तेमाल किया गया और लोगों को समझाया गया कि जब ‘आंगन ही टेढ़ा हो तो राधा कैसे नाचेगी’ मगर लोकसभा की कार्यवाही खुद गवाही देने के लिए काफी है कि इसका कारवां क्यों लुटा ? यह वह सदन होता है जिसका नेता खुद प्रधानमन्त्री होता है (सिवाय उसके राज्यसभा सदस्य होने के), इसके भीतर हर सदस्य के अधिकारों की रक्षा करने के लिए अध्यक्ष होता है जो इस सदन को चलाने के लिए बनाये गये नियमों से बन्धा होता है। इसमें लोकसभा की न कोई गलती है और न लोकतन्त्र की बल्कि गलती इसमें बैठने वालों की है। इसलिए पूर्व राष्ट्रपति श्री के. आर. नारायणन का यह कथन याद करने की जरूरत है कि ‘‘लोकतन्त्र ने हमें असफल नहीं किया है बल्कि हम लोकतन्त्र को असफल कर रहे हैं।’’

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