हरियाणा विधानसभा चुनावों के जो परिणाम आये हैं उन्हें देखकर निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि दोनों ही राज्यों में विपक्ष की निराशा से भरी तटस्थ उदासीनता ने सत्तारूढ़ पार्टी के लिए पुनः पदासीन होने का रास्ता आसान बनाने में अहम भूमिका निभाई है। महाराष्ट्र की 288 सदस्यीय विधानसभा में सत्तारूढ़ भाजपा व शिवसेना की महायुति को 157 सीटें मिली है जो भंग विधानसभा में इन दोनों पार्टियों की कुल शक्ति से 28 कम हैं। इसी प्रकार हरियाणा की 90 सदस्यीय विधानसभा में भाजपा की ताकत घट कर 40 रह गई जो बहुमत से छह कम है परन्तु विपक्ष में किसी भी अन्य पार्टी को भाजपा से अधिक सीटें नहीं मिली हैं हालांकि कांग्रेस पार्टी की ताकत में 100 प्रतिशत से भी अधिक वृद्धि हुई है और इसकी सदस्य संख्या 31 पर पहुंच गई है।
जबकि चौ. देवी लाल के प्रपौत्र दुष्यन्त चौटाला की नवगठित ‘जन नायक जनता पार्टी’ को 10 सीटें मिली हैं और शेष पर निर्दलीय विजयी रहे हैं। अतः स्वाभाविक रूप से चुनाव पूर्व गठबंधन होने की वजह से महाराष्ट्र में महायुति बनाने का पूर्ण अधिकार है और हरियाणा में सबसे बड़ी पार्टी होने के नाते सरकार बनाने के लिए पहला अवसर भाजपा को पाने का नैतिक व लोकतान्त्रिक अधिकार इस दृष्टि से है कि उसके खिलाफ जीत कर आयी किसी भी अन्य पार्टी ने बहुमत के विधायकों के समर्थन से सरकार बनाने का दावा पेश नहीं किया है।
अतः यह स्पष्ट है कि दोनों ही राज्यों में कमजोर पड़ने के बावजूद सरकार भाजपा की ही बन सकती है परन्तु पेंच यह है कि महाराष्ट्र में शिवसेना उसके साथ सत्ता में भागीदार बनने के लिए कौन सी और कैसी शर्तें लगाती है और हरियाणा में भाजपा पूर्ण बहुमत में आने के लिए किस तरह के दांव खेलती है अर्थात वह निर्दलीय सदस्यों को लुभाने के लिए किस तरह की और कैसी सौदेबाजी करती है परन्तु इतना निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि हरियाणा में जो भी सरकार भी बनेगी वह जोड़-तोड़ के बहुमत पर ही टिकी होगी परन्तु महाराष्ट्र में स्थिति बिल्कुल दूसरी है। यहां दो पुराने राजनैतिक सहयोगियों के बीच लेन-देन का मामला है।
इसका क्या स्वरूप निकलता है यह तो समय ही बतायेगा परन्तु यह भी सत्य है कि राज्य की जनता ने पुनः सत्तारूढ़ गठबन्धन को ही कार्यशील बहुमत प्रदान किया है। अतः विपक्ष में आये श्री शरद पवार की राष्ट्रवादी कांग्रेस और राष्ट्रीय कांग्रेस को विपक्ष में ही अपनी सक्रिय भूमिका तलाशनी होगी। बेशक चुनाव परिणामों से भाजपा में बहुत ज्यादा उत्साह का वातावरण नहीं बन पाया है मगर हैरानी की बात यह है कि देश की प्रमुख विपक्षी पार्टी कांग्रेस को स्वयं मतदाताओं ने आगे आकर सन्देश दिया है कि वह हताशा से बाहर निकले और सक्षम विपक्ष की भूमका निभाये। महाराष्ट्र में तो इस राज्य की राजनीति के महारथी कहे जाने वाले शरद पवार ने सिद्ध कर दिया है कि उनकी जमीनी सियासत का तोड़ आसान काम नहीं है।
नितान्त विपरीत चुनावी परिस्थितियों के बावजूद श्री पवार ने अपनी पार्टी की सदस्य संख्या में 13 की बढ़ाैतरी की जबकि उनके खिलाफ प्रवर्तन निदेशालय ने मामला खोल दिया था और उनकी पार्टी के दूसरे दिग्गज प्रफुल पटेल पर तो दाऊद एंड कम्पनी तक से जुड़ने का आरोप तैर गया था। चुनावी मौसम में इस प्रकार के आरोपों को आम मतदाता ने गंभीरता से लेना शायद उचित नहीं समझा। मगर सबसे ज्यादा आश्चर्य इस पर हुआ कि कांग्रेस पार्टी की भी चार सीटें पिछली विधानसभा के मुकाबले बढ़ गईं जबकि इस पार्टी के नेताओं ने चुनाव प्रचार इस प्रकार किया था जैसे किसी गहरी नींद में सोये व्यक्ति को अचानक जगा कर ‘हनुमान चालीसा’ पढ़ने के लिए कह दिया जाये।
हताशा में डूबी कांग्रेस पार्टी के लगभग सभी क्षेत्रीय नेता अपने-अपने इलाकों में अपनी-अपनी साख बचाने में ही जुटे हुए थे। यह इस बात का प्रमाण था कि उन्हें सामूहिक रूप से अपनी पार्टी के प्रत्याशियों से मुकाबला करने की अपेक्षा नहीं थी। मगर यह कार्य स्वयं आम जनता ने आगे बढ़ कर किया और कांग्रेस को पहले से ज्यादा सीटें दे दीं। यही लोकतन्त्र की वह अजीम ताकत है जिसे ‘जनशक्ति’ कहा जाता है मगर इसमें कांग्रेसियों के फूल कर कुप्पा होने की कोई वजह नहीं है क्योंकि उन्होंने तो ठीक चुनावी मौके पर ही खुद पर यकीन को खो दिया था।
अगर खुद पर यकीन कायम रख सके तो वह जाहिर तौर पर शरद पवार थे जिनकी पार्टी से चुनावों से पहले भाजपा में प्रवेश करने वाले नेताओं की कतार लग गई थी लेकिन दूसरा पहलू यह भी है कि भाजपा अपेक्षाकृत कमजोर होने की हालत के बावजूद दोनों राज्यों की सबसे बड़ी पार्टी है उसकी स्थिति को कोई अन्य पार्टी चुनौती नहीं दे पाई है। अतः नैतिक रूप से सरकार बनाने का अधिकार भी उसी का है। कांग्रेस को केवल यह सोचना है कि आम जनता के बीच में उसकी उपस्थिति भाजपा के विजयी सिंहनाद के बीच भी मौजूद है।
अतः राजनैतिक धरातल से उसके अस्तित्वहीन का संकट लघुकालिक जरूर हो सकता है लेकिन सबसे बड़ा संकेत इन दो राज्यों ने यह दिया है कि आम मतदाता की सोच प्रभावित करने की क्षमता राजनैतिक नेतृत्व में घट रही है जबकि राजनीति को प्रभावित करने की वैचारिक क्षमता मतदाताओं में स्वतः सस्फूर्त रूप में रहती है जिसका प्रदर्शन वह यथा समय करने से नहीं चूकता। अतः हर चुनाव सत्ता के लिए खास पैगाम से भरे होते हैं। अतः लोकतन्त्र में चुनाव तो सरकार बनाने के लिए ही होते हैं और चुने हुए सदन के भीतर बना संख्या गणित इसका निर्धारण करता है। यह गणित जनता द्वारा दिये गये फैसले से ही निर्देशित होता है। फर्क सिर्फ यह होता है कि फैसले का मन्तव्य क्या है?