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अर्थव्यवस्था को संभालना होगा

भारत की सकल विकास वृद्धि दर में लगातार गिरावट का निश्चित रूप से एक कारण नहीं हो सकता जो अर्थव्यवस्था को कमजोर कर रहा है।

भारत की सकल विकास वृद्धि दर में लगातार गिरावट का निश्चित रूप से एक कारण नहीं हो सकता जो अर्थव्यवस्था को कमजोर कर रहा है। फिलहाल भारत की अर्थव्यवस्था अजीब विरोधाभासी दौर में है जिसमें लगातार उत्पादन गतिविधियां कमजोर हो रही हैं, निवेश घट रहा है, बाजार में मांग कम हो रही है और निर्यात घाटा भी बढ़ रहा है तथा विदेशी मुद्रा डालर महंगी हो रही है मगर शेयर बाजार बढ़ रहा है और सोने की कीमतों में भी लगातार वृद्धि हो रही है। 
मुद्रास्फीति की दर या महंगाई में कमी को भी इन्हीं सब आधारभूत आर्थिक मानकों से बांध कर देखना होगा। इसका सीधा मतलब यह होता है कि बाजार में सक्रिय आर्थिक शक्तियां बजाये ऊपर की तरफ जाने के नीचे की तरफ आ रही हैं। बस केवल एक मोर्चे पर बाजार में धन की आवक बढ़ी है और वह सरकारी प्रशासनिक क्षेत्र में सरकारी खाते से खर्च का बढ़ना है। 
वैसे तो सभी प्रमुख आर्थिक गतिविधियों के क्षेत्र में गिरावट दर्ज हुई है परन्तु उत्पादन गतिविधियों में पिछले साल की समालोच्य तिमाही में जहां इसमें 6.9 प्रतिशत की वृद्धि हुई थी वहीं इस चालू वर्ष की जुलाई से सितम्बर की तिमाही में यह उलटी तरफ घूम गई है और इसमें एक प्रतिशत की कमी हुई है जो कि बहुत ही चिन्ताजनक आंकड़ा है। राज्यसभा में इस मुद्दे पर जो बहस हुई उसके जवाब में वित्त मन्त्री श्रीमती सीतारमण कोई सन्तोषजनक हल नहीं सुझा पाईं और वह केवल सरकार द्वारा उठाये गये कदमों का विवरण ही देती रहीं। 
सितम्बर को समाप्त हुई तिमाही में यदि विकास दर मात्र 4.5 प्रतिशत पर आती है तो सवाल उठना लाजिमी है कि क्या हम मन्दी के दौर में फंस रहे हैं? विपक्षी नेता इसका कारण अभी तक नोटबन्दी व जीएसटी को बता रहे हैं। सरकार की इन आर्थिक नीतियों से अर्थव्यवस्था में एक बार ठहराव या गिरावट का आना लाजिमी था क्योंकि समूची अर्थव्यवस्था का स्वरूप ढीलमढाले धन तन्त्र से नियमित सांचे में ढाला जाना था। 
नियमित सांचे में जाने के बाद यदि विकास दर कम होती है तो इसका मतलब यह भी निकलता है कि काले धन की समानान्तर प्रणाली ध्वस्त हो रही है। नोटबन्दी का सबसे अच्छा असर जमीन-जायदाद के क्षेत्र में पड़ा है जहां अब नकद रोकड़ा के बूते पर जायदाद का खरीदना मुश्किल हो गया है और सारा काम नियमित धनतन्त्र के जरिये ही हो सकता है। कम से कम बड़े-बड़े शहरों में यह परिवर्तन हुआ है परन्तु दूसरी तरफ बैंकों के कारोबार में कमी आयी है। इसका मतलब यह है कि बैंकों की ऋण देने की क्षमता में गिरावट आयी किन्तु इसे सरकार ने दुरुस्त करने की कोशिश भी की। बैंकों के पास पूंजी प्रचुरता बनाये रखने हेतु 70 हजार करोड़ रुपये की मदद दी। 
अतः पूंजी प्रचुरता के बावजूद बैंकों से कर्ज लेने में यदि हिचकिचाहट दर्ज हो रही है तो इसका मतलब यह निकलता है कि ब्याज दरें ऊंची हैं जिसकी वजह से निजी निवेशक कर्ज लेने से घबरा रहे हैं। यह घबराहट का माहौल उत्पादन क्षेत्र की गति को धीमा कर रहा है जिसकी वजह से रोजगार साधनों में वृद्धि नहीं हो पा रही है और आम लोगों की क्रय क्षमता में गिरावट आ रही है परन्तु दूसरी तरफ यह भी आंकड़ा है कि ग्रामीण क्षेत्रों में मांग में इजाफा हो रहा है। सरकारी खजाने से विभिन्न स्कीमों की मार्फत जिस तरह गरीब तबके के लोगों को विभिन्न योजनाओं के तहत आर्थिक मदद दी जा रही है उसकी वजह से ग्रामीण अर्थव्यवस्था में धन की आवक बढ़ रही है और यह मांग को प्रेरित कर रही है। 
महंगाई के काबू में रहने का मतलब यही निकलता है कि बाजार में मांग व सप्लाई की स्थिति ऐसी है जिसमें सप्लाई या आपूर्ति की कोई कमी नहीं है परन्तु बैंक ऋणों के क्षेत्र में हमें यह देखने को नहीं मिल रहा है तो वजह साफ है कि नकद रोकड़ा की ब्याज सेवा करने का जोखिम बढ़ गया है। हमें यही सोचना है कि इस वातावरण को किस तरह बदला जाये जिससे उत्पादन क्षेत्र में गर्मी आये और बाजार में मांग को बढ़ावा मिले जिससे सेवा क्षेत्र समेत व्यापार व वाणिज्य क्षेत्र में तेज गति से विकास हो। 
इसके लिए बैंकों की ब्याज दरों को वर्तमान स्तर से नीचे लाकर तथा आयातित माल के मुकाबले भारत में निर्मित माल की उत्पादन लागत घटाकर मांग को बढ़ावा देने के प्रयास सफल हो सकते हैं। मोदी सरकार की उन समाजवादी योजनाओं की आलोचना करने से कुछ नहीं होगा जो गरीबों के हाथ में धन की प्रचुरता को बढ़ा रही हैं और सरकारी खजाने से अधिक धन को सुलभ करा रही हैं। यह भी तथ्य स्वीकार किया जाना चाहिए कि जीएसटी के बाद टिकाऊ उपभोक्ता सामग्री जैसे वाशिंग मशीन से लेकर टीवी, फ्रिज आदि पर कर की दरें पहले के मुकाबले आधी तक हो गई हैं। 
इसके बावजूद यदि मांग में वृद्धि नहीं हो रही है और मोटर-वाहन उद्योग तक की बिक्री में कमी आ रही है तो अर्थव्यवस्था अपने धन तन्त्र को नियमित करने की तरफ तेजी से बढ़ रही है। भारत में घरेलू मांग को बढ़ाकर हम इसका तोड़ उसी हालत में ढूंढ सकते हैं जबकि लोगों की क्रय क्षमता में इजाफा इस प्रकार करें कि काले धन का बाजार से प्रभुत्व समाप्त होता जाये। ग्रामीण क्षेत्रों में यह काम हो रहा है। हमें इसी दिशा में आगे बढ़ना चाहिए और कर्ज को सस्ता बनाने के उपाय करने चाहिएं।

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