सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी में दूसरे दलों के नेताओं के प्रवेश की जिस तरह बहार आयी हुई है उसे देखते हुए लगता है कि राजनीति में अब विचारधारा या सिद्धान्तों के लिए ज्यादा जगह नहीं बची है परन्तु मूल मुद्दा यह है कि भारत के राजनैतिक दलों की लोकतन्त्र में स्थिति क्या है? दरअसल राजनैतिक दलों की संरचना ही पूरी तरह वैचारिक पक्ष से खोखली हो चुकी है और चुनावी राजनीति में उनकी हार-जीत ही केन्द्र में रहती है। इस हार-जीत में भी व्यक्तिगत तौर पर नेताओं की बड़ी भूमिका रहती है।
कुछ नेता ऐसे होते हैं जो चाहे किसी भी दल में रहें वे चुनाव जीत ही जाते हैं। यह भी विचारणीय मुद्दा है कि मतदाता चुनावों में पार्टियों को वोट देते हैं अथवा प्रत्याशियों को? इस मायने में 2019 के लोकसभा चुनाव विशिष्ट हैं। इन चुनावों में मतदाताओं ने भाजपा को वोट दिया मगर प्रत्याशियों को महत्व नहीं दिया मगर पार्टी को वोट भी केवल प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी की नुमाइंदगी के तौर पर दिया।
श्री मोदी की पार्टी भाजपा थी अतः मतदाताओं ने भाजपा को वोट दिया। संसदीय राजनीति में यह व्यक्तित्व के चारों तरफ पार्टी के घूमने का दूसरा उदाहरण है। इससे पहले लगभग पचास वर्ष पहले 1971 के लोकसभा चुनावों में मतदाताओं ने स्व. इंदिरा गांधी के नाम पर आंख मीच कर वोट दिया था। उसके बाद 1980 के लोकसभा चुनावों में भी ऐसा हुआ था और आश्चर्यजनक रूप से 1984 के चुनावों में इंदिरा जी की हत्या से गुस्से में भरे लोगों ने उनके पुत्र स्व. राजीव गांधी को भरपूर आशीर्वाद दिया था।
भारतीय उपमहाद्वीप के लगभग सभी उन देशों में जहां लोकतन्त्र है वहां व्यक्तित्व मूलक राजनीति बड़ी आसानी के साथ अपनी पैठ बनाने में कामयाब होती रही है। इसमें संशोधन यह हुआ है कि इसका स्वरूप परिवारवाद में बदलता गया जिसकी वजह से वैचारिक पक्ष या सिद्धान्त का पहलू पर्दे के पीछे पहुंचता चला गया परन्तु 2019 के चुनावों में एक क्रान्तिकारी परिवर्तन यह आया कि यही परिवारवादी राजनीति ढेर हो गई परन्तु इसके विकल्प के रूप में व्यक्तित्ववादी राजनीति ने संगठनात्मक तौर पर जमी हुई राजनीति को पछाड़ डाला परन्तु यह कार्य असाधारण था क्योंकि व्यक्तित्व को दलीय ढांचे से ऊपर खड़ा करना राजनीति में बहुत कम नेता ही कर पाते हैं।
श्री मोदी ने यह कार्य बड़े सामान्य तरीके से इस प्रकार किया कि विभिन्न राजनैतिक दलों के सैद्धांतिक विमर्श उनके एकल व्यावहारिक कार्यों के समक्ष फीके पड़ने लगे। बेशक राष्ट्रवाद उनका केन्द्रीकृत उपबन्ध था परन्तु इसके चारों तरफ उन्होंने जिस समाजवादी सोच को पूंजीवादी व्यवस्था में उतारा उससे विभिन्न सिद्धान्तों की व्यावहारिकता ही खतरे में आ गई। अतः वर्तमान समय में विपक्षी दलों को छोड़-छोड़ कर जो नेता भाजपा में आ रहे हैं उन्हें अपने भविष्य के प्रति ज्यादा चिन्ता नहीं है क्योंकि उन्हें लगता है कि किसी अन्य विकल्प के न उभरने तक उन्हें सुरक्षित राजनीति करनी चाहिए। हालांकि विपक्षी दलों की ओर से आरोप लगाया जा रहा है कि सत्ता में होने की वजह से भाजपा विरोधी नेताओं को अपनी तरफ खींचने के लिए साम, दाम, दंड, भेद की नीति अपना रही है परन्तु इसकी असली वजह स्वयं भाजपा में प्रवेश करने वाले नेताओं की ही सत्ताभोगी प्रवृत्ति है।
जाहिर है यह अवसरवादिता के दायरे में डाली जायेगी परन्तु पूरी राजनीति ही जब इसके घेरे में आ चुकी है तो किसे दोष दिया जा सकता है। हाल ही में राज्यसभा सांसद श्री संजय सिंह कांग्रेस छोड़कर भाजपा में शामिल हुए हैं। इससे पहले भी वह भाजपा में रह चुके हैं किन्तु उनका यह कहना बहुत मह्तवपूर्ण है कि कांग्रेस पार्टी अतीत में जी रही है और उसे भविष्य के बारे में कुछ पता नहीं है। यह ऐसा सत्य है जिसे प्रत्येक कांग्रेसी को सार्वजनिक रूप से भले ही स्वीकार न करना पड़े मगर व्यक्तिगत रूप से सबकी यही भावना है परन्तु इसके तोड़ में भाजपा पर आरोप लगता है कि वह अतीत के चिन्हों पर ही राजनीति करती है परन्तु दोनों में मूलभूत अन्तर है।
भाजपा अतीत के सहारे भविष्य बना रही है और कांग्रेस अतीत के सहारे भविष्य को बिगाड़ रही है। इसलिए आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि भाजपा में अभी उत्तर प्रदेश से ही कुछ अन्य दलों के और सांसद शामिल हों। विशेष रूप से राज्यसभा के जहां भाजपा का अभी भी पूर्ण बहुमत नहीं है। संसद के इस उच्च सदन में भाजपा की सरकार विभिन्न विधेयकों को पारित कराने में इसीलिए सफल हो रही है क्योंकि विपक्षी दलों में अपनी राजनीति के कमजोर पड़ने का भाव पैदा हो गया है और उन्हें यह आभास हो चुका है कि उनमे से किसी के पास भी नरेन्द्र मोदी का मुकाबला करने योग्य कोई व्यक्तित्व नहीं है।
अतः भाजपा के सामने कोई चुनौती निकट भविष्य में खड़ी होती नहीं दिखाई दे रही है और उसी की प्रतिध्वनि का आभास करते हुए महाराष्ट्र में भी कांग्रेस व राष्ट्रवादी कांग्रेस विधायकों ने भाजपा की शरण लेने में अपनी भलाई समझी है जबकि इस राज्य में आगामी छह महीने के भीतर ही चुनाव होने हैं लेकिन इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है क्योंकि राजनीति का ध्येय अन्ततः सत्ता ही होता है और लोकतन्त्र में सत्ता जनता के अधीन होती है और जनता उसी की होती है जो उसके मन की भाषा को अपनी जबान देता है। यह प्रक्रिया चलती रहती है और व्यक्तित्वों को भी परखती रहती है जिसके कारण राजनीति व्यक्तित्व प्रधान बनती है। अतः हमें अभी तैयार रहना होगा कि भाजपा पूरे देश में अपने पंख खुलकर पसारे।