जम्मू-कश्मीर में आतंकवाद अपने पूरे चरम पर है। यह क्यों है और इसे कैसे खत्म करना है? इन सवालों का जवाब केंद्र में बैठी सरकार को देना है। सबको पता है कि आतंकवाद का खात्मा हमारे सुरक्षा जवान करने में सक्षम हैं। बड़े-बड़े आतंकवादियों को या सीमा पार से आने वाले आतंकियों को हमारी सेना ने निपटाया है लेकिन असली समस्या इस बात की है कि घाटी में जो आतंकी अपने पाकिस्तानी आकाओं के दम पर खेल खेल रहे हैं उसे लेकर बहुत कुछ सख्ती से किया जाना बाकी है।
सेना या बीएसएफ और जम्मू-कश्मीर पुलिस के अलावा सीआरपीएफ को टारगेट करके लोकल लोग उन्हें अपना दुश्मन मानते हुए उन पर पत्थर फैंक रहे हैं। इसके बावजूद उन्हें गोली चलाने के अगर अधिकार नहीं हैं, तो बात कैसे बनेगी? हम समझते हैं कि जम्मू-कश्मीर राज्य के अंदर अगर पत्थरबाज अपनी करतूतों से बाज नहीं आ रहे तो उनसे निपटने के लिए गोली तो चलानी ही होगी। आज दो पत्थरबाज मरेंगे तो कल चार सौ पत्थरबाज समझ जाएंगे कि सामने से भी गोली आएगी और जान जाएगी। दुर्भाग्य से ऐसा नहीं हो रहा है।
यही वजह है कि आतंकवादी हर बार पत्थर फैंकने के बाद अब एक नई रणनीति पर उतर आए हैं। वह यह कि पहले उन्होंने सीआरपीएफ को टारगेट पर लिया और अब उन्होंने जम्मू-कश्मीर पुलिस को निशाने पर लेकर यह संदेश फैलाया है कि उन्हें अगवा करके मार दिया जाएगा। उनकी यह बात उस समय सही निकली जब उन्होंने दर्जनभर ऐसे जवानों के अपहरण के बाद उनकी हत्या भी कर डाली।
नया मामला यह आया है कि वे पुलिस वालों को वर्दी उतार देने की धमकियां दे रहे हैं और इसका बाकायदा पोस्टरों से तथा सोशल साइट्स पर दुष्प्रचार भी जमकर किया जा रहा है। कहते हैं कि कुछ पुलिस के जवानों ने इस्तीफे दे भी दिए हैं। हालांकि गृह मंत्रालय ने इससे इन्कार किया है। हमारा यह मानना है कि हर सूरत में जम्मू-कश्मीर पुलिस के जवानों का मनोबल बना रहना चाहिए। सेना और अर्द्ध सैन्य बलों के साथ-साथ हर किसी का मनोबल जितना ऊंचा होगा, उतनी ही आतंकवाद पर चोट पड़ेगी।
आज की तारीख में जम्मू-कश्मीर में राजनीतिक सिस्टम की आड़ में आतंक फैलाने वाले लोग सत्ता से बेदखल कर दिए गए हैं। महबूबा को जब भाजपा ने अपनी बैसाखियों के सहारे सीएम बनाया था तो इसे एक प्रयोग के तौर पर आजमाया गया था। उम्मीद की गई कि आतंकवाद खत्म करने के लिए वह लोकल स्तर पर बहुत कुछ करेंगी लेकिन भाजपा के राजनीतिक सपोर्ट का परिणाम यह निकला कि लोकल लोग पत्थर लेकर सेना पर फैंकने लगे।
इतना ही नहीं आतंकवादियों के खिलाफ केस खत्म करने और उनकी रिहाई की शर्तें भी महबूबा ने रखीं। सब कुछ वही हुआ जो उसने चाहा। लोग सोशल साइट्स पर कह रहे हैं कि अब जबकि महबूबा को सत्ता से विदा कर दिया गया है तो यह संदेश भी जाना चाहिए कि सरकार जो चाहती है, कश्मीर के लोग जो चाहते हैं वह सब कुछ किया जा रहा है। कश्मीरी लोग घाटी से पलायन करते रहे हैं। अब अगर जम्मू-कश्मीर में लोगों का विश्वास जीतना है तो मौका सरकार के हाथ में है।
यह सच है कि लोहा लोहे को काटता है, तो फिर आतंक का जवाब अब अगर गोली से दिया जाता है तो समस्या का समाधान भी हो सकता है। पत्थरबाजों के खिलाफ गोली चलाने पर अगर सेना या पुलिस या सुरक्षाबलों के विरुद्ध एफआईआर दर्ज की जाएगी तो उनका मनोबल ऊंचा कैसे होगा? लोग सोशल साइट्स पर चर्चा कर रहे हैं कि भाजपा राष्ट्र भक्ति वाली पार्टी है और वह लोगों की भावनाओं को समझती है परंतु अब जबकि एक-एक कश्मीरी चाहता है कि पत्थरबाजों को आतंकवादियों की तरह गोली मारो तो ऐसा क्यों नहीं किया जा रहा है? अब जबकि जम्मू-कश्मीर में राज्यपाल शासन है, सारा प्रशासन और पुलिस अपने हाथ है तो भी पत्थरबाजी चल रही है। तो इसे क्या कहेंगे?
पंचायत चुनावों को लेकर राजनीतिक स्तर पर विरोधी सुर नेशनल कांफ्रेंस या महबूबा की पार्टी ने मिलाने शुरू कर दिए हैं, ऐसे में लोकतंत्र की जमीन अगर कमजोर की जा रही है तो गलत है। अगर दो विरोधी विचारधाराओं वाली पार्टियां पंचायत चुनावों का विरोध कर सकती हैं तो कांग्रेस और भाजपा मिलकर इन दोनों राष्ट्र विरोधी पार्टियों को निपटाने के लिए अगर जम्मू-कश्मीर में एक हो जाएं तो कोई गलत बात नहीं है। ऐसी भावनाएं सोशल साइट्स पर लोग एक-दूसरे से शेयर कर रहे हैं। हमारा यह मानना है कि हर सूरत में लोकतंत्र जीवित रहना चाहिए और आतंकवादियों तथा उनके प्रमोटरों को करारा जवाब मिलना चाहिए। क्योंकि अब सब कुछ हमारे हाथ में है तो इस अवसर का हमें लाभ उठाना चाहिए।
हम कब तक सर्जिकल स्ट्राइक के उदाहरण देकर लोगों से अपनी बहादुरी की बातें करेंगे, ये सब काम तो सेना ने किए हैं और ऐसा करने के पीछे राजनीतिक संकल्प था, जो हमारी कर्त्तव्यपरायणता थी। आतंकवादियों के खात्मे के लिए अब इसी राजनीतिक सोच को आगे रखकर काम करना होगा तो इसके कई लाभ होंगे। पहला जम्मू-कश्मीर में अमन स्थापित हो जाएगा। दूसरा आतंकवादियों का सफाया हो जाएगा और तीसरा आतंक के प्रमोटर जो पाकिस्तान में बैठे हैं, को भी करारा जवाब मिलेगा। हमारा यह मानना है कि पाकिस्तान से सचिव या विदेश मंत्री या फिर पीएम स्तर पर बातचीत होनी ही नहीं चाहिए।
हालांकि प्रस्तावित भारत-पाक विदेश मंत्री वार्ता रद्द हो गई है लेकिन यह होना भी नहीं चाहिए कि जम्मू-कश्मीर में खून बहे और इस्लामाबाद या दिल्ली में राजनीतिक बात हो। बगल में छुरी और मुंह में राम, पाकिस्तान की यही फितरत रही है। इसका जवाब देने का माकूल समय हमारे सामने है। लोहा गर्म है, क्या राजनीतिक स्तर पर हथौड़ा मारने की इच्छा शक्ति सरकार दिखाएगी, इसका इंतजार है।