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कानूनों का लक्ष्य लोक कल्याण!

किसानों के मुद्दे पर सर्वोच्च न्यायालय द्वारा गठित चार सदस्यीय विशेषज्ञ समिति की विश्वसनीयता पर जो सन्देह की अंगुली उठ रही है उसका निराकरण इसलिए आवश्यक है कि इसका गठन देश की सबसे ऊंची अदालत ने किया है।

किसानों के मुद्दे पर सर्वोच्च न्यायालय द्वारा गठित चार सदस्यीय विशेषज्ञ समिति की विश्वसनीयता पर जो सन्देह की अंगुली उठ रही है उसका निराकरण इसलिए आवश्यक है कि इसका गठन देश की सबसे ऊंची अदालत ने किया है। किसान संगठन व विपक्षी पार्टियां जिस तरह से समिति के सदस्यों सर्वश्री पी.के. जोशी, अशोक गुलाटी, अनिल गणावत व भूपेन्द्र सिंह मान के कृषि कानूनों के बारे में दिये गये पूर्व वक्तव्यों का हवाला देकर उन्हें एक पक्षीयता रहे हैं, उससे इस समिति की व्यावहारिकता पर प्रश्न चिन्ह लग सकता है।
सर्वोच्च न्यायालय द्वारा इन कानूनों के अमल पर रोक लगा देने के बावजूद किसान संगठन अपना आंदोलन समाप्त करने को राजी नहीं हैं और उनका मत है कि इन कानूनों की वैधानिकता पर फैसला देने के बजाय सर्वोच्च न्यायालय ने इनके अमल पर रोक लगाने का आदेश देकर स्वयं ही यह स्वीकार कर लिया है कि इन कानूनों में मूलभूत रूप से दोष है। कार्यपालिका भी जिस पर सरकार का सीधा नियन्त्रण होता है वह भी संविधान की नियत सीमाओं से बाहर नहीं जा सकती।
न्यायपालिका की भूमिका पूरी तरह सरकार से अलग अपनी स्वायत्तता के दायरे में स्वतन्त्र रहती है। इस पर किसी भी राजनीतिक दल का, किसी भी सरकार का कोई प्रभाव नहीं होता है। अतः राजनीतिक उखाड़-पछाड़ से अलग रहते हुए यह केवल संविधान के अनुरूप शासन चलने के प्रति निष्ठा से बंधी रहती है। यही वजह है कि संविधान के संरक्षक राष्ट्रपति को सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश शपथ दिलाते हैं और बदले में मुख्य न्यायाधीश को राष्ट्रपति शपथ दिलाते हैं।
अधिशासी सरकार के मुखिया प्रधानमन्त्री का इससे कोई मतलब नहीं होता क्योंकि जो भी सरकार होती है वह राष्ट्रपति की अपनी सरकार होती है, हालांकि उसका चुनाव देश की आम जनता ही करती है मगर राष्ट्रपति का चुनाव भी पांच साल के लिए देश की जनता ही परोक्ष रूप से (चुने हुए सांसदों व विधायकों के वोट से) चुनाव करती है। संविधान की यह कलात्मक कशीदाकारी भारत की अनूठी पहचान मानी जाती है जो हमारे पुरखे हमें सौंप कर गये हैं।
स्वतन्त्र भारत की यदि कोई सबसे बड़ी उपलब्धि है तो वह इसका संविधान है क्योंकि यह नये आजाद भारत की परिकल्पना प्रस्तुत करता है। इसमें लोक कल्याणकारी राज की स्थापना का वचन है जिसे पूरा करना हर चुनी हुई सरकार का कर्त्तव्य होता है। अतः किसान आन्दोलन के सन्दर्भ में केवल इसी नजरिये से समस्या का हल खोजा जा सकता है और मौजूदा सरकार इसके ​लिए प्रयासरत भी लगती है।
मगर यह कार्य कोई भी सरकार संविधान की कसौटी पर खरा उतर कर ही कर सकती है। यही वजह है कि राज्यसभा के दो सांसदों श्री त्रिची शिवा (द्रमुक) व मनोज झा (राजद) ने नये कृषि कानूनों को सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी हुई है।लोकतन्त्र में न्यायालय की शरण में जाना सामान्य प्रक्रिया होती है। पूर्व में भी हमने देखा है कि 2005 में सर्वोच्च न्यायालय ने ही असम के विदेशी नागरिक पहचान पर संसद द्वारा बनाये गये कानून को ही असंवैधानिक करार दे दिया था।
यह कानून भारत की संसद में ही बनाया गया था मगर संविधान की कसौटी पर खरा नहीं उतर सका था। इसी तरह जब 1969 में बैकों के राष्ट्रीयकरण के कानून को सर्वोच्च न्यायालय ने अवैध करार दिया था तो पूरे देश में राजनीतिक युद्ध छिड़ गया था। इसकी वजह यह थी कि तत्कालीन इंदिरा गांधी सरकार यह कानून जनता के कल्याण की दृष्टि से लाई थीं मगर इसका भारी विरोध तब के विपक्षी दलों ने किया था।
ठीक यही स्थिति आज कृषि कानूनों को लेकर बनी हुई है। प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी की सरकार की राय में नये कानूनों से किसानों काे लाभ होगा मगर विपक्ष का मानना है कि इनसे किसानों की हालत बदतर होगी। वास्तव में यह राजनीतिक युद्ध है जो बैंकों के राष्ट्रीयकरण की भांति अदालत में पहुंच गया है परन्तु अदालत ने इस बार पूरी तरह अपना रुख बदल कर संसद द्वारा पारित इन कानूनों के अमल पर रोक लगा दी है।
इसके सभी पक्ष अपने-अपने तरीके से मतलब निकाल रहे हैं। बेशक लोकतन्त्र में इस स्थिति को अच्छा नहीं बताया जा सकता क्योंकि इसके साथ सर्वोच्च न्यायालय की निर्विवाद व निष्कलुष प्रतिष्ठा जुड़ी हुई है। अतः इस मोर्चे पर बहुत संजीदगी के साथ राजनीतिक दलों को अपने विचार व्यक्त करने चाहिए। बेहतर तो यही होगा कि कृषि कानूनों पर अंतिम फैसला देश की संसद के भीतर ही हो क्योंकि कानून बनाना केवल संसद का ही विशेषाधिकार होता है।
भारत की संसद का इतिहास लोक कल्याणकारी कार्यों से भरा पड़ा है। इसी संसद के भीतर यदि कृषि कानूनों पर पुनः सर्वसम्मति बनाने के राजनीतिक प्रयास किये जाते हैं तो वह दिन स्वर्णिम अक्षरों में लिखा जायेगा। इस विक्लप के अलावा दूसरा कारगर विकल्प स्वयं सरकार के कृषि मन्त्री श्री नरेन्द्र सिंह तोमर के दिमाग में उभरा है कि नये कानूनों के अमल को राज्य सरकारों पर छोड़ दिया जाये। मगर सर्वोच्च न्यायालय द्वारा फौरी तौर पर इनका अमल रोक दिये जाने के बाद परिस्थितियों में परिवर्तन आया है।
-आदित्य नारायण चोपड़ा

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