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किसानों के भारत बन्द का सबब

किसान आंदोलन को चलते हुए अब दस महीने (300 दिन) का समय हो गया है परन्तु सरकार व किसान संगठनों की बातचीत किसी नतीजे पर नहीं पहुंची है।

किसान आंदोलन को चलते हुए अब दस महीने (300 दिन) का समय हो गया है परन्तु सरकार व किसान संगठनों की बातचीत किसी नतीजे पर नहीं पहुंची है। किसानों ने शहीद-ए-आजम भगत सिंह के जन्म दिवस 27 सितम्बर को भारत बन्द का आयोजन किया। किसान संसद द्वारा पारित उन तीन कृषि कानूनों को समाप्त किये जाने की मांग कर रहे हैं जिनके तहत कृषि मंडियों के समानान्तर कृषि उत्पादों के मुक्त व्यापार केन्द्र स्थापित होंगे तथा कृषि क्षेत्र में ठेके पर खेती कराये जाने की छूट होगी और कृषि वस्तुओं की कोई भंडारण सीमा तब तक नहीं रहेगी जब तक कि उन वस्तुओं के दाम दुगने ही न हो जायें। इसके साथ ही किसानों की प्रमुख मांग यह भी है कि न्यूनतम कृषि मूल्य प्रणाली को कानूनी जामा पहनाया जाये।
दूसरी तरफ सरकार का कहना है कि कृषि क्षेत्र में सुधारों की इस तरह जरूरत है जिससे किसानों का सम्बन्ध भी सीधे बाजार की शक्तियों से जुड़ सके और बाजार की ताकतें उनकी ऊपज का मूल्य निर्धारित करें। अर्थात कृषि व्यापार को वर्तमान खुली बाजार मूलक अर्थव्यवस्था से जोड़ा जाये। सबसे पहले यह समझने की जरूरत है कि कृषि क्षेत्र में पैदा हुई फसलों को बाजार की ताकतों से जोड़ कर भारत की आर्थिक रूप से कमजोर या गरीब जनता को मिले भोजन के अधिकार के कानूनी प्रावधान को तभी लागू किया जा सकता है जब तक कि सरकार स्वयं अनाज व अन्य जरूरी जिंसों का भंडारण उनकी संख्या व खपत के अनुपात में न करें। साथ ही खाद्य वस्तुओं के दाम बांधे रखने या उन्हें उचित दायरे में सीमित करने के लिए वह स्वयं बाजार में हस्तक्षेप करे। क्योंकि महंगाई की दर को थामे रखने के लिए ऐसा किये बगैर भारत जैसे विशाल देश में गुजारा नहीं हो सकता। इसके साथ यह भी जरूरी है कि किसान को उसकी मेहनत और लागत का पर्याप्त मुआवजा कृषि जिंसों के बाजार मूल्य में मिले। बाजार मूलक अर्थव्यवस्था में कोई भी सरकार इसकी गारंटी नहीं दे सकती जिसकी वजह से किसान न्यूनतम समर्थन मूल्य को संवैधानिक अधिकार बनाये जाने की मांग कर रहे हैं। इसका मतलब यह है कि नये कानूनों के तहत मुक्त व्यापार केन्द्रों में कोई भी ऊपज न्यूनतम समर्थन मूल्य से नीचे नहीं बिकनी चाहिए।
 सरकार का कहना है कि वह न्यूनतम समर्थन मूल्य प्रणाली को समाप्त करने नहीं जा रही है और यह व्यवस्था लागू रहेगी तथा सरकार हर साल किसानों की उपज को इस तय मूल्य पर खरीदने की प्रथा पहले की तरह जारी रखेगी परन्तु इस बारे में वह कानूनी प्रावधान नहीं बना सकती है क्योंकि भारत की विशालता और कृषि जिंसों के बड़े बाजार को देखते हुए उन्मुक्त व्यापारिक गतिविधियों को नहीं रोका जा सकता है। इस सन्दर्भ में यह बहुत महत्वपूर्ण है कि विगत जनवरी महीने में हुई बातचीत के बाद  अब तक किसानों व सरकार के बीच कोई वार्तालाप नहीं हुआ है। हालांकि सरकार बीच-बीच में कहती रही है कि वह बातचीत करने को तैयार है मगर तीन कृषि कानूनों को छोड़ कर क्योंकि इन कानूनों को देश के सर्वोच्च न्यायालय ने 18 महीने के लिए ठंडे बस्ते में डाल दिया है और इन्हें लागू न करने का आदेश दिया है। किसान इससे सन्तुष्ट नहीं हैं और वे कानूनों को एक सिरे से खारिज करने की मांग कर रहे हैं।
कृषि हालांकि राज्यों का विषय है मगर केन्द्र सरकार ने ये कानून व्यापार व वाणिज्य की कानून प्रणाली के तहत बनाये हैं जो कि केन्द्र के अधिकार में आता है। किसानों का कहना है कि कृषि जिंसों के व्यापार केन्द्रों में जाने से पूरे कृषि व्यापार पर चन्द बड़े-बड़े पूंजीपतियों व उद्योगपतियों का कब्जा हो जायेगा और भंडारण की कोई सीमा न होने की वजह से ये पूंजीपति भारी मुनाफा लेकर इनका विक्रय करेंगे।
दरअसल हकीकत यह है कि भारतीय जनता पार्टी की मूल जनसंघ पार्टी प्रारम्भ से ही कृषि को उद्योग का दर्जा देने की पक्षधर रही है। 1951 में गठित जनसंघ के घोषणापत्र में इसका उल्लेख मिलता है। अतः इस क्षेत्र के बारे में भाजपा की सरकार का नजरिया समाजवादी कृषि नीतियों से दूसरा रहा है। 70 के दशक से पहले तक हुए हर राज्य के चुनावों में भारतीय जनसंघ इस आशय के पोस्टर  निकाल कर किसानों को रिझाने का काम भी करती थी। उस समय जनसंघ का चुनाव निशान ‘दीपक’ था और नारा पोस्टरों पर यह होता था कि ‘हर हाथ को काम, खेत को पानी, घर-घर में दीपक जनसंघ की निशानी’। इसके साथ ही यह मांग भी लिखी होती थी कि ‘खेती को उद्योग का दर्जा दो’। हालांकि बाजार मूलक अर्थव्यवस्था भी जनसंघ के घोषणापत्र का ही आर्थिक अंग है। इससे यही निष्कर्ष निकलता है कि सरकार और किसानों को मिल बैठ कर 1991 से लागू परिवर्तित बाजार मूलक आर्थिक नीतियों के अनुरूप ऐसा हल बातचीत द्वारा निकालना होगा जिससे किसानों को पूरी सुरक्षा भी मिले और कृषि क्षेत्र में आवश्यकतानुरूप संशोधन व सुधार भी होते चलें। यह कार्य न्यूनतम समर्थन मूल्य को कानूनी जामा पहनाने से हो सकता है बशर्ते भारत की भौगोलिक विविधता को देखते हुए सभी प्रमुख फसलों के न्यूनतम मूल्य उनमें लगने वाली लागत को देखते हुए तय किये जायें।

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