महाराष्ट्र और हरियाणा के विधानसभा चुनावों में मतदाताओं का ढंडा उत्साह इस बात का संकेत है कि लोकतन्त्र की ‘राजनीतिक ऊर्जा’ सुप्तावस्था में है। इसका अर्थ यह भी निकाला जा सकता है कि विचार वैविध्यता के ओज से आवेशित रहने वाली भारत की स्फूर्तवान राजनीति विकल्प-विहीनता के दौर में है। यह स्थिति गतिहीनता की निशानी भी कही जा सकती है परन्तु जड़ता की नहीं क्योंकि गतिहीनता ‘प्रकृति विरुद्ध’ सूनेपन का अस्थिर आयाम ही हो सकती है।
इस अन्तराल को हम यदि लोक उदासीनता के रूप मे देखें तो चुनाव परिणामों का विश्लेषण बहुत सरलता के साथ कर सकते हैं क्योंकि एकपक्षीय विचार यात्रा का ठौर अंत में विजय ही होता है किन्तु लोकतन्त्र में मतदाता जब उदासीनता के साये में रहता है तो विकल्पों की संभावना कम नहीं होती है बल्कि राजनीति स्वयं विकल्पविहीन होने के खतरे से जूझने लगती है जिसकी वजह से ‘वैकल्पिक राजनीति’ की बात उठने लगती है परन्तु चुनावी राजनीति ने भारत में जो स्वरूप विगत 70 वर्षाें में लिया है उसने ‘वैकल्पिक राजनीति’ की संभावना को समूल नष्ट करने का ऐसा प्रभावशाली तन्त्र खड़ा कर दिया है कि चुनावी राजनीति में सामान्य नागरिक की भागीदारी केवल दर्शक की बन कर रह गई है।
अतः मतदाता उदासीनता का विश्लेषण भी कई धरातलों पर किया जा सकता है। इस तरफ स्वतन्त्र भारत का सबसे पहले ध्यान स्व. जय प्रकाश नारायण ने 1974 में चलाये गये अपने आंदोलन में खींचा था और चुनाव सुधारों की आवश्यकता बताई थी। इस आन्दोलन को बेशक ‘सम्पूर्ण क्रान्ति’ आन्दोलन का नाम तक दिया गया परन्तु इसमें वैचारिक इन्कलाब की जगह मात्र ‘सत्ता पलट’ का भाव था जो तब की प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गांधी की सरकार के खिलाफ समूचे विपक्षी दलों ने एक छाते के नीचे जुड़कर चलाया था।
अतः इसके बाद न कुछ बदलने वाला था और न ऐसी कोई संभावना थी सिवाय सत्ता के पाले में राजनीतिक दलों के बदलने के लेकिन वर्तमान में जेपी आन्दोलन का सन्दर्भ राजनीति के कुछ शोधार्थियों को अटपटा लग सकता है किन्तु इसका सम्बन्ध प्रत्यक्षतः मतदाता उदासीनता के पक्ष से ही है। चलायमान लोकतन्त्र कभी यह बर्दाश्त नहीं कर सकता कि एक ही राजनीतिक विचार की गन्ध से पूरा वातावरण महकता रहे। बहुदलीय राजनीतिक प्रशासनिक प्रणाली प्रत्येक अहिंसक विचार को फलने-फूलने का पर्याप्त स्थान देती है।
इसे अवसर में बदलने का काम राजनीतिक दल अपने नेताओं के माध्यम से करते हैं। जब यह प्रक्रिया शिथिल पड़ जाती है तो मतदाताओं में उदासीनता का भाव घर करने लगता है। मतदाता व्यवस्थागत दायरे की शर्तों के भीतर भी लोकतन्त्र की ऊर्जा से आवेशित होकर चुनावी प्रक्रिया को अपने एक वोट की ताकत से गतिशील बना डालता है परन्तु यह कार्य वह जमीन पर होने वाली राजनीतिक गतिविधियों से उठने वाले प्रकाश की ज्योति में ही करता है और एक ‘लौ’ जगा कर उसे ‘ज्वाला’ तक बना देता है। यह सब चुनावी तन्त्र के तहत ही होता है।
जाहिर है कि विपक्षी दल अपनी गतिविधियों से ऐसा कोई भी प्रकाश राजनीतिक आकाश में जगमगाने में असमर्थ हो रहे हैं और मतदाता उनकी यह बेचारगी और अयोग्यता देखकर उदासीनता के भाव से भरता जा रहा है। महाराष्ट्र जैसे राज्य में यदि मतदान का प्रतिशत 63 के आसपास रहता है तो समझा जा सकता है कि इस राज्य के मतदाताओं की मनोस्थिति क्या है? जाहिर है मतदाता ने यथास्थिति से समझौता कर लिया है और वह किसी ठोस व सशक्त विकल्प की उम्मीद नहीं कर रहा है। यह विपक्षी राजनीति की स्वयं सिद्ध पराजय भी कही जा सकती है।
राज्य की राजनीति में जिस प्रकार का निर्वात (खालीपन) देवेन्द्र फड़नवीस जैसे नवोदित भाजपा नेता के रहते आया है वैसा इससे पहले तब भी नहीं आया था जब साठ और सत्तर के दशक में स्व. वीपी नाइक जैसा कद्दावर और जमीन से उठकर जननेता बना व्यक्ति मुख्यमन्त्री था। स्व. नाइक बंजारा जाति से सम्बन्ध रखते थे। दरअसल पिछले दो दशक में राज्य की राजनीति में जो बदलाव आया उसमें शिवसेना जैसे खड़े हुए क्षेत्रीय राजनीतिक दल ने इस राज्य की राजनीति का ‘माफियाकरण’ इतने करीने से किया कि कांग्रेस व भाजपा दोनों ही पार्टियों को अपनी जड़ें संभालने के लिए उसके विरुद्ध विमर्श खड़ा करने के स्थान पर उसके समानान्तर अपनी जमीन तैयार करनी पड़ी।
यह विचार वैविध्यता के गुम होने की पहली निशानी थी परन्तु हरियाणा के बारे में ऐसा नहीं कहा जा सकता क्योंकि यहां भाजपा ने कठिन प्रयासों के बाद अपनी जमीन को उर्वरा बनाया। इस क्रम में सबसे पहले उसने हरियाणा के शेर कहे जाने वाले स्व. बंसीलाल को ‘बकरी’ बनाया। यह कार्य उसने पिछले दशक में किया। वजह यह थी कि भाजपा के पास स्व. डा. मंगल सेन के बाद हरियाणा में कोई दूसरा ऐसा नेता नहीं था जो इस राज्य के सभी वर्गों के लोगों की अपेक्षाओं पर खरा उतरने की क्षमता रखता हो परन्तु प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी ने 2014 में मनोहर लाल खट्टर के रूप में ऐसा तोहफा हरियाणावासियों को दिया जिसकी अपनी कोई निजी आकांक्षा नहीं थी।
निजी आकांक्षाओं की अभिलाषा से परिपूरित राजनीतिज्ञों के बीच मनोहर लाल खट्टर ऐसे ‘बैरागी’ राजनीतिज्ञ के रूप में उभरे जिनसे जातिवाद से प्रभावित इस राज्य के प्रत्येक समाज के लोगों को कोई भय या वेदना नहीं थी। अतः इन चुनावों में हरियाणावासी यदि यथास्थिति को स्वीकार करते हैं तो इसमें उनकी उदासीनता इतनी अधिक नहीं है जितनी कि विपक्षी नेताओं की क्रियाहीनता।
हरियाणा में मतदान का प्रतिशत भी महाराष्ट्र की अपेक्षा बेहतर रहा है जो बताता है कि कुछ क्षेत्रों में खास विपक्षी नेताओं का प्रभाव रहा है किन्तु इन राज्यों के साथ ही उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ व कर्नाटक आदि राज्यों में कुछ विधानसभा व लोकसभा क्षेत्रों में उपचुनाव भी हुए हैं। इन उपचुनावों के परिणाम क्या रहते हैं, इसका विश्लेषण करना भी रुचिकर होगा क्योंकि उपचुनावों में प्रधानमन्त्री चुनाव प्रचार नहीं करते हैं, जबकि महाराष्ट्र व हरियाणा के चुनाव श्री मोदी के ही चारों तरफ घूमे हैं।