रूस-यूक्रेन के युद्ध को चलते एक वर्ष से अधिक का समय बीत जाने के बावजूद अंतर्राष्ट्रीय मोर्चे पर इस युद्ध की समाप्ति के उपाय ढूंढने के बजाय इसे जिस तरह भड़काये रखने के ही इन्तजाम बांधे जाने के बीच चीन के राष्ट्रपति शी-जिनपिंग का यूक्रेन के राष्ट्रपति जेलेंस्की से फोन पर वार्तालाप करने की खबरें सांत्वना के रूप में पहली नजर में प्रकट तो होती हैं मगर दूसरे ही पल यह खबर भी आ जाती है कि चीन इस युद्ध के सन्दर्भ में अपना नजरिया बदलने को तैयार नहीं है। इसका क्या अर्थ निकाला जा सकता है ? कूटनीति में ऐसे प्रयासों को मुंहदिखावे के रूप में ही प्रस्तुत किया जा सकता है क्योंकि चीनी राष्ट्रपति ने साफ कर दिया कि वह रूस का साथ देने से पीछे नहीं हटेंगे। बेशक जेलेंस्की लम्बे अर्से से मांग कर रहे थे कि रूस समर्थक देशों के साथ भी उनकी बातचीत होनी चाहिए मगर दूसरी तरफ यह भी हकीकत है कि यूक्रेन समर्थक यूरोपीय देशों के सामरिक संगठन ‘नाटो’ ने अभी तक उसे भारी युद्ध सामग्री की सप्लाई करने में पीछे कदम नहीं उठाया है और 1550 बख्तरबन्द आक्रामक वाहन व 230 टैंक उपलब्ध करा दिये हैं। जाहिर है कि युद्धक सामग्री यूक्रेन में सजावट के लिए नहीं भेजी गई है बल्कि रूसी सैनिकों का मुकाबला करने के लिए ही भेजी गई है।
चीन व यूक्रेन के नेताओं की बातचीत के बाद रूसी राजनयिकों ने जो कहा वह भी कम दिलचस्प नहीं है। उन्होंने कहा कि रूस जेलेंस्की- शी जिनपिंग की बातचीत का स्वागत करता है मगर यूक्रेन के बारे में वह अपनी नीति नहीं बदलेगा। इसका मतलब साफ है कि इस प्रकार की आले-पाले की बातचीत से कोई फर्क पड़ने वाला नहीं है। रूस का स्पष्ट कहना है कि यूक्रेन यूरोपीय सामरिक संगठन नाटो का सदस्य बनने की जिद छोड़े और अपने क्षेत्र में रखे गये रूसी भाषा बोलने वाले इलाकों को उसके हवाले करे। बेशक 1990 तक पूरा यूक्रेन सोवियत संघ का ही हिस्सा था मगर इसी वर्ष में सोवियत संघ के 14 देशों में विभाजित हो जाने के बाद जिस तरह पश्चिमी यूरोपीय देशों ने रूस की बची-खुची ताकत को भी और कमजोर करना चाहा उसी की वजह से आज यूक्रेन व रूस में युद्ध चल रहा है।
पूरी दुनिया में चीन खुलकर रूस के साथ खड़ा हुआ है और राष्ट्रसंघ के मोर्चे से लेकर अन्तरक्षेत्रीय मोर्चे तक उसका समर्थन कर रहा है दूसरी तरफ नाटो देश भी अमेरिका की अगुवाई में यूक्रेन के पाले में खड़े हो गये हैं और इन्होंने इस देश को सैनिक परीक्षण स्थल में तब्दील कर डाला है। इतना ही नहीं रूस को अलग-थलग करने के लिए यूरोपीय देशों ने रूस पर कड़े आर्थिक प्रतिबन्ध भी लगा दिये हैं मगर रूस ने इन सभी प्रतिबन्धों को इस तरह नकारने की नीति बनाई है कि बहुत से देशों के साथ उसने द्विपक्षीय आधार पर आर्थिक सम्बन्ध स्थापित करने में सफलता हासिल कर ली है। रूस के पास बिजली से लेकर पेट्रेल, गैस ऊर्जा का खजाना है जिसका इस्तेमाल करके वह यूरोपीय देशों की एकजुटता को ही चुनौती दे रहा है। अमेरिका की कोशिश लगातार यह है कि रूस की अर्थव्यवस्था को इस तरह जर्जर बना दिया जाये कि वह हार कर नाटो देशों की शर्तें मान ले और यूक्रेन के इस संघ में शामिल होने पर ज्यादा आपत्ति न करे मगर रूस के राष्ट्रपति श्री पुतिन पहले ही साफ कर चुके हैं कि अमेरिका समेत नाटो देशों को इस मोर्चे पर मुंह की खानी पड़ेगी क्योंकि रूस आज भी दुनिया का शक्तिशाली सैनिक बल है। इसके साथ ही अमेरिका यूक्रेन के बहाने चीन के साथ अपना आर्थिक गणित सही करना चाहता है और उसके रूस के पाले में खड़े होने का, सन्देश पूरी दुनिया को देना चाहता है क्योंकि नाटो देशों ने रूस की स्थिति यूक्रेन में आक्रमणकारी देश की बना रखी है।
राष्ट्रसंघ पूरी स्थिति को लाचारगी की हालत में देख रहा है क्योंकि न तो अमेरिका झुकने को तैयार है और न रूस व चीन। भारत के सामने भी यूक्रेन युद्ध को लेकर एक धर्म संकट रहा है क्योंकि रूस उसका सच्चा व परखा हुआ दोस्त है जबकि यूक्रेन के साथ भी भारत के सम्बन्ध मधुर रहे हैं और व्यापारिक रिश्ते भी प्रगाढ़ रहे हैं, इसी वजह से प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी ने राय दी थी कि वर्तमान समय युद्ध का नहीं बल्कि शान्ति वार्ताओं का है। भारत जानता है कि चीन उसका निकट का पड़ोसी देश है और उसकी निगाह हमेशा सीमा पर भूमि हड़पने की रहती है और आर्थिक रूप से भी वह आज विश्व की दूसरी महाशक्ति है। मगर एशिया में चीन के बाद भारत ही दूसरी आर्थिक महाशक्ति है अतः चीन अपनी अर्थव्यवस्था का विस्तार भारत के सहयोग के बिना नहीं कर सकता। अतः असली सवाल यही है कि यूक्रेन को कब सद्बुद्धि आयेगी कि वह इस बात पर गौर करे कि विश्व आर्थिक क्रम को बदलने के फेर में अमेरिका व नाटो देश उसकी धरती को ही सामरिक प्रयोगशाला बनाना चाहते हैं।
आदित्य नारायण चोपड़ा
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